विचार
– प्रवीण नारायण चौधरी
हँसी कि कानी….!
किछु दिन सँ दिमाग मे एहेन-एहेन बात आबि रहल अछि जे खने हँसबैत अछि, खने दुःखी कय दैत अछि। अपन मनोभाव इजहार कय शायद कने हल्लुक हुए।
बात एहेन छैक जे हम मिथिलावासी मे डीएनए अछि ‘जनक’ केर, जिनका विदेह सेहो कहल जाइत छन्हि… विदेह एहि लेल जे भौतिक सुख-सुविधा मे ओ कहियो आसक्त नहि भेलाह। हुनकर राज मे कोनो बातक कमी नहि छलैक। मानवक आवश्यकता एतेक कम जे सब केँ पुरि जाइत छलैक। हाँव-डाँव आ हाहुत्ती के सवाले नहि छलैक।
हुनकर एहि विशेषताक प्रचार भारतवर्षीय समस्त जनपद धरि पहुँचि गेल छलैक आ केहनो विरक्त या आसक्त लोक केँ मानवोचित कर्म केर शिक्षा, खासकय गृहस्थी एवं आर्थिक व्यवस्थापन सम्बन्धी गूढ़ तत्त्व समीक्षा लेल तहिया मिथिला पठायल जाइत छलैक लोक केँ। व्यासदेव अपन विरक्त पुत्र शुकदेवजी केँ सेहो जनक सँ यैह शिक्षा ग्रहण करबाक उपदेश कयलनि।
शुकदेवजीक सम्बन्ध मे बुझले होयत जे शिवकोप सँ डरायल मायक गर्भ सँ बाहर एबाक नामहि नहि लेथि, कतेको विनती आ आश्वासनक बाद जन्म त लेलाह लेकिन अपन अन्तर्ज्ञान आ अमर तत्त्वक शिवोपदेशक प्रभाव सँ जन्म लैत देरी जंगल दिश प्रस्थान कय गेलाह… पिता व्यासदेव हुनका रोकबाक प्रयास कयलथि त उल्टा पिता केँ कय रंगक उपदेश दैत मानवजीवनक वास्तविक मर्मादिक प्रवचन दैत के पिता के पुत्र आदि प्रश्न कय ओहिना नंगटे शरीरे वनगमन कय गेलाह।
कालान्तर मे जीवनक किछु निहित कर्म प्रति सचेष्ट भेलाह आ पिता सँ गृहस्थी धर्मक सम्बन्ध मे जिज्ञासा कयलनि त हुनका जनक दरबार मे पठा देल गेलनि। शुकदेवजी समान महान् ज्ञानी, पूर्ण निश्छल आ निर्भीक बालक कपड़ा पहिरबाक विन्दु आदि पर बिना कोनो सोच-विचार कएने सीधे जनक दरबार अबैत छथि, जनक स्थिति बुझि स्त्री समाज केँ ओतय सँ इशारा मे चलि जेबाक आज्ञा दय शुकदेवजी केँ स्वागत मे आसन दैत हाल-चाल आ आगमनक उद्देश्य सब जानि हुनका शिक्षा ग्रहण करबाक लेल उचित आश्वासन दैत छथिन आ पहिल शिक्षा यैह होइत छन्हि जे केहनो संन्यासी आ विरक्त मनुष्य केँ अपन वैराग्यक प्रभाव आन गृहस्थी धर्मक निर्वाह करनिहार लोक द्वारा अवधारल मर्यादा आ सीमा केँ उल्लंघन करबाक अधिकार नहि दैत अछि। आर शुकदेवजी हुनकर तर्क सँ सहमत होइत बस छोट विष्ठी टा धारण करबाक लेल तैयार होइत छथि।
शुकदेवजी केँ जनकजी द्वारा दरबार सँ स्त्री समाज केँ हुनका अबिते हंटि जेबाक दृष्टान्त दैत बुझायल गेलनि। मानव जीवन मे स्त्री आ पुरुष दुइ अलग-अलग प्रकृति केर सम्बन्ध मे बुझायल गेलनि। दुनू के अलग बनावट आ दुनू के संसर्ग सँ सृष्टिक निरन्तरता आदिक निरूपण कयल गेलनि। आर एहि क्रम मे नर व मादा केँ अपन शरीर आ भावनाक बीच कपड़ारूपी पर्दाक सार्थकता सेहो बुझायल गेलनि। ओ विष्ठी धारण करबाक वचन दैत गुरु प्रति नतमस्तक भेलाह।
शुकदेवजी अन्तर्ज्ञानी एहि लेल भेलाह जे देवाधिदेव महादेव द्वारा पार्वती केँ अमर कथा कहबाक क्रम मे परवाक अंडा आ बाद मे बच्चाक रूप मे ओहो ओहि अमरनाथक गूफा मे सुनने रहथि। जीवनक लगभग सम्पूर्ण वृत्तान्त सँ ओ परिचित भऽ गेल रहथि। महादेव समान दयालू गुरु दोसर कियो नहि भऽ सकैत छथि, ओ भोला थिकाह आ सब पर दया छन्हि। लेकिन शर्त अनुसार अमरकथा सुनबाक अधिकारिनी केवल पार्वती छलीह। लेकिन शिव आज्ञा मे अंडारूप जीव केँ गूफा सँ नहि हंटायल जेबाक कारण ई लाभ शुकदेवजी केँ प्राप्त भेलनि। हालांकि एहि लेल शिवजीक कोप के भाजन सेहो भेलाह, परञ्च एक माताक गर्भ मे जा कय शरण लय लेबाक कारण शिवकोप शान्त भऽ गेल छल आ शुकदेवजीक प्राणरक्षा भऽ गेल छलन्हि। मुदा अमरकथाक विशेष ज्ञान सँ सम्पन्न शुकदेवजी अपन जीवनक असल अभीष्ट ‘मोक्ष’ (मुक्ति) प्रति पूर्ण सचेत छलाह।
जीवनक अन्तिम लक्ष्य निश्चित मुक्ति प्राप्त करब थिकैक। मुक्ति केर सही अर्थ यैह छैक जे परमात्मा (परमपिता परमेश्वर) केँ प्राप्त होयब, अर्थात् जाहि परमात्मा सँ आत्मारूप बनि हम-अहाँ (कोनो जीव) एक निश्चित उद्देश्य लेल अस्तित्व पाबि जीवनचक्र मे प्रवेश कयलहुँ से अपन सम्पूर्ण जीवन-कर्म करैत उद्देश्य पूरा कय पुनः परमात्मा सँ मिलन करू, यैह भेल मोक्ष यानि मुक्ति। हम-अहाँ जन्म-जन्मान्तर सँ जीवनक्रम मे छी, से परमपिताक आज्ञा सँ… उद्देश्य प्राप्तिक संग परमपिता सँ मिलन लेल प्रयासरत छी।
जतय सँ जे वस्तुक आविर्भाव होइत छैक, ओ वस्तु पुनः ओतहि जाकय अपन असल रूप मे विलय भेल करैत अछि। जेना – सूर्य सँ प्रकाशक आविर्भाव भेल छैक त प्रकाशपुञ्ज हमेशा सूर्यमुखी (ऊर्ध्वमुखी) गमन करैत रहैत अछि। दीपक केर लौ हमेशा ऊपर दिश जाइत अछि। जल केर आविर्भाव पाताललोक सँ भेल छैक, ओ हमेशा अपन मूल (पाताल) मे समाहित होयबाक लेल नीचाँ दिश यात्रा करैत रहैत अछि। जतेक बहाव सहितक नदी अछि ओहो सब ऊपर सँ नीचाँ ढलकैत आखिरी मे अपन मूल ‘सागर’ मे जाय केँ समाहित भेल करैत अछि। एहिना माटि सँ जे जन्म लेलक ओ माटिये मे मिलि जाइत अछि, हवा सँ सृजित वस्तु हवा मे विलय होइत अछि, आकाश, अग्नि, आदि जाहि कोनो अस्तित्वक मूल जतय छैक ओकरा ओहि मे जेबाक युयुक्षा (अन्तिम इच्छा) रहैत छैक। तहिना हम मानवक असल तत्त्व ‘आत्मा’ सेहो अपन मूल ‘परमात्मा’ मे मिलय चलि जाइत अछि। यैह भेल मोक्ष।
तखन यात्रा बड सहज नहि छैक। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् – माने भूलोक सँ लैत सत्यलोक केर बीच ७ परत के लोक आ १-१ लोक केर अवस्था एहि पृथ्वी जेकाँ कतेको विशाल आ वृहत् रूप मे छैक से सिर्फ कल्पना कय सकैत छी। अहाँ सब सोचैत होयब जे कतय सँ कतय लय कय चलि गेल!! हमर कहब केवल यैह अछि जे जीवनरूपी यात्रा विभिन्न नाव (शरीर) द्वारा होइत रहैत अछि आ हम सब सेहो अपन मूल परमपिता परमेश्वर मे लीन होयबाक लेल – केवल वैह मंजिल पर जेबाक लेल यात्रा कय रहल छी। यात्राक किछु नियम छैक। किछु मर्यादा छैक। शुकदेवजीक उदाहरण मे पहिल पाठ सेहो यैह सिखेलक।
शुकदेवजीक परीक्षा कोना लेलखिन जनकजी से सुनबैक त हँसैत-हँसैत पेट फूलि जायत!
पूर्ण अन्तर्ज्ञानी आ मोक्षविद्या सँ लैश शुकदेवजी जखन गृहस्थी धर्म आ दिनचर्याक ज्ञान हासिल कय रहल छलाह जनक शिक्षालय मे त हुनका छात्रावास मे रहय लेल जगह भेटल छलन्हि। शुकदेवजीक पास मात्र २ टा विष्ठी छलन्हि, एकटा पहिरथि, एकटा बदलथि। एक दिन संचालित कक्षा जाहि मे जनकजी मुमुक्षु (शिष्य) सब केँ पढा रहल छलाह आ शुकदेवजी सेहो पढि रहल छलाह… ओहि कक्षा मे एक सेवक दौड़ल-दौड़ल आयल आ हपसैत बाजल, “गुरुजी! राजा साहेब!! आगि लागि गेल… आगि लागि गेल।” गुरुजी पुछलखिन जे कतय, केम्हर…? सेवक कहलकनि जे शुकदेवजी वला छात्रावास मे। ओहि छात्रावासक सब विद्यार्थी सब दौड़ल छात्रावास दिश… शुकदेवजी सेहो दौड़ि गेलाह। कनीकाल मे सब किछु शान्त भेलैक। जखन सब वापस कक्षा मे आयल त गुरुजी विहुँसि रहल छलाह।
गुरुजी पुछलखिन सब सँ जे समान सुरक्षित रहलौ आ कि जरि गेलौ। सब अपन-अपन हाल कहलकनि। जनकजी विहुँसैत शुकदेवजी दिश तकलाह। पुछलखिन, “यौ, अहाँ कियैक दौड़लियैक?” शुकदेवजी सेहो विहुँसैत जवाब देलखिन जे गुरुजी, हमहुँ विष्ठी सुखाय लेल डोरी पर देने रहियैक। जनकजी ठहाकय हँसैत कहलखिन जे वाह! आइ अहाँक शिक्षा पूर्ण भेल। गृहस्थी धर्म मे एकटा विष्ठी के सेहो कतेक महत्व छैक से अहाँ बुझि सकलहुँ, यैह लेल अहाँक पिता व्यासदेव व्यग्र रहथि आ ओ अहाँ केँ मिथिलानगरी हमरा पास पठेने रहथि। आब अहाँ ईश्वरक महिमा गान करैत अपन जीवनयापन – घर-गृहस्थी चलाउ, यैह जीवन आ जीवनक उद्देश्य थिक। सिर्फ अन्तर्ज्ञान सँ परिपूर्ण भऽ ई विशाल जीवन केँ हम सब जंगल मे भटकैत या फेर तरह-तरह के यातना दैत पूर्ण करी तखनहि मुक्ति भेटत से जरूरी नहि। शुकदेवजीक शिक्षा पाबि काफी सन्तुष्ट भेलाह। बहुत प्रसन्नताक संग गुरुजी केँ प्रणाम करैत अपन देश लौटलाह।
बन्धुगण! हम सब सेहो अपन-अपन जीवनयात्रा मे छी। कतेको रंग के अन्तर्ज्ञान सँ भरल छी। वर्तमान नाव ‘मानव शरीर’ छी। संस्कार, भाषा, व्यवहार – सब किछु मानव वला अछि। अन्य जीव आ मानव मे मात्र एक ‘विवेक’ केर पातर सूत बरोबरि फर्क छैक। धरि ई विवेकरूपी सूत्र बहुत महत्वपूर्ण छैक। अपन व्यवहार सँ हम-अहाँ न अपना केँ तकलीफ दी आ ने दोसर केँ। संगहि शुकदेवजी त बच्चा मे नंगटे घुमथि, हुनको विष्ठी जनकजी पहिरबा देलाह… हम-अहाँ जे नंगटे घुमय चाहब से केना हेतैक, हमरो-अहाँक माय-बहिन, बेटी-पुतोहु, स्त्री समाज के संग चलबाक मर्यादा मे त रहय पड़त। तहिना स्त्री समाज पर त पर्दाक मात्रा आर बेसी छन्हि, कारण पुरुष समाज मे हुलकाह प्रवृत्ति सँ हुनका लोकनि केँ बचबाक जरूरत छन्हि। पुरुष सँ बेसी झाँपतोप करयवला बनावट हुनका लोकनिक छन्हि। से सब बुझय जाउ।
हँ, हम जे उचकपनी करनिहार केँ निकालि दैत छियैक परिवार सँ से तुरन्त घोघ-तोघ ओढिकय फेर दोसर रूप मे आबि गेल करैत अछि। छौंड़ा सब छौंड़ी बनिकय आबि जाइत अछि। लेकिन केना बुझबियैक…! रे बेवकूफ! कहलियौ नहि जे पढबैत-पढबैत ४१ वर्ष भेल आब!! अनुभव अछि सब बातक! नीक लोक बनिकय रहे न! टेढी देखेमे… सेहो हमरा सन मास्टर केँ? तखन त रवि दिन के व्यंग्य मे कहिये देने रहियौक असली मीमांसा! मिथिलाक बेटा थिकें, समयक सदुपयोग करब सीख!! ॐ तत्सत्!!
हरिः हरः!!