स्वाध्याय सँ प्राप्त सुन्दरतम् लेख – मैथिली अनुवाद
– प्रवीण नारायण चौधरी
ई बदैल सकैत अछि अहाँक जीवन!!
(It can change your life!)
(स्कन्दपुराण सँ लेल गेल एक कथा)
श्रीनारदजी ऐतरेय मुनि आ हुनक माताक बीच भेल संवादक उल्लेख कएने छथि, जाहि मे कहल गेल अछि जे ऐतरेय मुनि अपन माय केँ वैराग्यक उपदेश देलनि आर ओहि वैराग्यमय परमार्थ चर्चाक अद्भुत प्रभाव सँ तुरंत भगवान् विष्णु हुनका सामने प्रकट भय गेलखिन।
नारदजी कहलनि – पूर्वकालक बात थिक, एहि श्रेष्ठ तीर्थ मे ऐतरेय नामक ब्राह्मण भगवान् वासुदेवक कृपा प्राप्त कएने छलाह। हारीत मुनिक वंश मे माण्डुकि नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण छलाह। हुनक इतरा नामवाली पत्नी सँ ऐतरेयक जन्म भेल छलन्हि। ओ बाल्यावस्थहि सँ निरन्तर द्वादशाक्षर-मन्त्र ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ केर जप करैत छलाह। हुनका एहि मन्त्र केर पूर्वहि जन्म मे शिक्षा भेटल छलन्हि। ओ नहि त केकरो बात सुनथि आर नहिये स्वयं किछु बाजथि आर नहिये अध्ययनहि करथि। एहि सँ सब केँ निश्चय भऽ गेल छलैक जे ई बालक गोंग (बौक) अछि। एक दिन हिनक माता इतरा अपन पुत्र सँ बजलीह – ‘अरे! तूँ त हमरा कष्टे दय लेल जन्म लेलें। हमर जन्म आ जीवन केँ धिक्कार अछि। एहि सँ नीक त हमर मरि गेनाय होयत।’ माताक बात सुनिकय ऐतरेय हँसि पड़लाह। ओ बड़ा धर्मज्ञ रहथि। ओ दुइ घड़ी भगवानक ध्यान कय माताक चरण मे प्रणाम कयलनि आ कहलखिन –
“माँ! तूँ जे शोचनीय नहि अछि ताहि वास्ते शोक करैत छँ आर जे वास्तव मे शोचनीय अछि ताहि लेल तोहर मोन मे कनिकबो शोक नहि छौक। ई संसार मिथ्या थिक। एहि मे तूँ एहि शरीर केर वास्ते कियैक चिन्तित आ मोहित भऽ रहल छँ, ई त मूर्खक काज थिक। तोरा जेहेन विदुषी स्त्रि लेल ई शोभा नहि दैत छौक। ई त मानवशरीर छी, गर्भ सँ लय मृत्युपर्यन्त धरि सदिखन अत्यन्त कष्टप्रद अछि। ई शरीर एक तरहक घर छी। हड्डीक समूह मात्र एकर भार केँ सम्हारयवला खाम्ह (खंभा) थिक। नाड़ी जलरूपी डोरी (रस्सी) सँ एकरा बान्हल गेल अछि। रक्त आर मांसरूपी माटि सँ एकर नीपल गेल अछि। विष्ठा आर मुत्ररूपी द्रव्य केर संग्रहक ई पात्र थिक। ई सदा-सदा लेल काल केर मुखाग्नि मे स्थित अछि। एहेन देहरूपी गेह मे जीव नामवाला गृहस्थ निवास करैत अछि। कतेक कष्ट केर बात छैक जे जीवन एहि देह-गेह केर मोह-माया सँ मूढ़ भऽकय तददनुकूल बर्ताव करैत अछि।”
ऋषिपत्नी इतरा अकचकायल लेकिन पुत्रक सुन्दर आ सटीक तर्कपूर्ण बात बड़ा ध्यानपूर्वक सुनय लगलीह। एहि बातक प्रसन्नता जे बेटा बौक नहि अछि ताहि सँ बहुत बेसी बेटाक अन्तर्ज्ञान सँ भरल बुद्धिमत्तापूर्ण बात मे ओ आब डुबकी लगा रहल छथि। बेटा ओ कहलखिन –
“जेना पहाड़ सँ झरना खसैत रहैत अछि, ताहि तरहें शरीर सँ सेहो कफ आर मूत्र आदि बहैत रहैत अछि। ओहि शरीरक लेल जीवन मोहित होइत रहैत अछि। विष्ठा आर मूत्र सँ भरल रहल चर्मपात्रक समान ई शरीर समस्त अपवित्र वस्तु सभक भंडार थिक आर एकर एकहु टा प्रदेश (अंश) पवित्र नहि अछि। अपन शरीर सँ निकलल मल-मूत्र आदिक जे प्रवाह अछि, ओकर स्पर्श भऽ गेलापर माटि आर जल सँ हाथ शुद्ध कयल जाइत अछि। तथापि वैह अपवित्र वस्तु सभक भंडाररूप एहि देह सँ नहि जानि कियैक मनुष्य केँ वैराग्य नहि होइत छैक। सुगन्धित तेल आर जल आदिक द्वारा यत्नपूर्वक खूब बढियाँ जेकाँ साफ कयलो पर ई शरीर अपन स्वाभाविक अपवित्रता केँ नहि छोड़ैत अछि, ठीक तहिना जेना कुत्ताक टेढ़ पूच्छड़ कतबो सीधा कयल जाय ओ अपन टेढ़पन नहि छोड़ि पबैछ। अपन देहक दुर्गन्ध सँ जे मनुष्य विरक्त नहि होइछ, ओकरा वैराग्यक लेल आन कोन साधनक उपदेश देल जाय! दुर्गन्ध तथा मल-मूत्र केर लेप केँ दूर करबाक लेल शारीरिक शुद्धिक विधान कहल गेल अछि। एहि दुनूक निवारण भऽ गेलाक बाद आन्तरिक भाव केर सेहो शुद्धि भऽ गेला सँ मनुष्य शुद्ध होइछ। भावशुद्धि मात्र सबसँ बढ़िकय पवित्रता छी। वैह सब कर्म मे प्रमाणभूत अछि। आलिंगन पत्नीक सेहो कयल जाइछ आ पुत्रीक सेहो; मुदा दुनू मे भाव केर महान अन्तर होइछ। पत्नीक आलिंगन कोनो आर भाव सँ कयल जाइछ आर पुत्रीक कोनो आर भाव सँ। एक स्त्रीक स्तन केँ पुत्र दोसर भाव सँ स्मरण आ स्पर्श करैत अछि आर पति दोसर भाव सँ। अतः अपन चित्त केँ मात्र शुद्ध करबाक चाही; भावदृष्टि सँ जेकर अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध छैक, ओ स्वर्ग आर मोक्ष केँ सेहो प्राप्त कय लैत अछि।”
हम उम्मीद करैत छी जे हरेक पाठक एखन धरि उपरोक्त प्रत्येक बात मे कर्त्ताभाव मे प्रवेश करैत स्वयं केर जीवन आ शरीरक काज – भावशुद्धि जेहेन महत्वपूर्ण विषय धरि मनन करयवला अवस्था केँ प्राप्त भऽ गेल होयब। कल्पना करू जे ऋषिपत्नी इतरा जिनका अपन पुत्र केर बौक (गोंग) होयबाक दुःख भेल छलन्हि ओ कोन अवस्था मे पहुँचल हेतीह। बेटा ऐतरेय केर कथन जारी छन्हि –
“ज्ञानरूपी निर्मल जल तथा वैराग्यरूपी मृत्तिका सँ मात्र पुरुषक अविद्या आ रागमय मल-मूत्रक लेप तथा दुर्गन्धक शोधन होइछ। एहि तरहें एहि शरीर केँ स्वभावतः अशुद्ध मानल गेल अछि। जे बुद्धिमान अपन शरीर केँ एहि तरहें दोषयुक्त जानिकय उदासीन भऽ जाइत अछि, शरीर सँ अनुराग हंटा लैत अछि, वैह एहि संसारबन्धन सँ छूटिकय निकलि सकैत अछि; मुदा जे एहि शरीर केँ दृढ़तापूर्वक पकड़ने रहैत अछि – एकर मोह नहि छोड़ैत अछि, ओ संसार मे पड़ल रहि जाइत अछि। एहि तरहें ई मानव-जन्म लोकक अज्ञान-दोष सँ तथा नाना कर्मवशात् दुःखस्वरूप व महान कष्टप्रद कहल गेल अछि। गर्भक झिल्ली मे लेपटायल रहल जीव महान कष्ट पबैत अछि। जेना केकरो लोहाक घैल (घड़ा) मे राखिकय आगि सँ पकायल जाइछ, तहिना गर्भरूपी घर मे रहल जीव जठरानल (पेटक आगि) सँ पाकैत रहैत अछि। यदि आगिक समान दहकैत सूइया सँ केकरो निरन्तर छेदन (भूर) कयल जाय तखन जतबा पीड़ा भऽ सकैत छैक, ताहि सँ आठगुना बेसी पीड़ा गर्भ मे भोगय पड़ैत छैक। एहि तरहें स्थावर-जङ्गम समस्त प्राणी केँ अपन-अपन कर्मक अनुरूप ई महान गर्भरूप दुःख प्राप्त होइत छैक।”
“गर्भ मे स्थित भेलोपर सब मनुष्य केँ अपन पूर्वजन्मक स्मरण होबय लगैत छैक। ओहि समय जीवन एहि तरहें सोचैत रहैत अछि – ‘हम मरिकय फेर उत्पन्न भेलहुँ आर उत्पन्न भऽ कय कय फेर मृत्यु केँ प्राप्त करब। जन्म लय-लय केँ हम सहस्रों योनि केर दर्शन कयलहुँ। एहि समय जन्म धारण करैत देरी हमर पूर्वसंस्कार जागि उठल अछि। आब हम एहि कल्याणकारी साधनक अनुष्ठान करब, जाहि सँ फेर हमरा गर्भवास नहि हुअय। हम संसारबन्धन सँ दूर करयवला भगवदीय तत्त्वज्ञानक चिन्तन करब।’ एहि तहरें एहि दुःख सँ छुटकारा पेबाक उपाय सभक विचार करैत गर्भस्थ मनुष्य चिन्तामग्न रहैत अछि। जखन ओकर जन्म होबय लगैत छैक, ताहि समय तऽ ओकरा गर्भवासक तुलना मे करोड़ों गुना बेसी कष्ट होबय लगैत छैक। गर्भवासक समय जे सद्बुद्धि ओकरा मे जाग्रत भेल रहैत छैक से जन्म लेलाक बाद बिसरा जाइत छैक। बाहरक हवा लगिते मूढ़ता आबि जाइत छैक। राग आर मोह केर वशीभूत भेल ओ संसार मे नहि करय योग्य पापादि कर्म मे लागि जाइत अछि। ओहि मे फँसिकय ओ नहि त अपना केँ जनैत अछि आ नहिये दोसर केँ जनैत अछि तथा नहिये कोनो देवता केँ किछु बुझैत अछि। ओ अपने परम कल्याणक बात तक नहि जनैत अछि। आँखि रहितो अपन कल्याण मार्ग दिश नहि तकैत अछि। विद्वानक बुझेलोपर बुद्धि रहितो ओ नहि बुझि पबैत अछि। तेँ राग आर मोह केर वशीभूत भेल संसार मे क्लेश पबैत रहैत अछि।”
“बाल्यावस्था मे इन्द्रिय केर वृत्ति अव्यक्त रहैत छैक। ताहि लेल मनुष्य ओहि समयक महान् दुःख बतेबाक इच्छा भेलोपर नहि बता सकैत अछि आर नहिये ओ दुःखक निवारणक लेल किछुओ कइये सकैत अछि। जखन दाँत आबय लगैत छैक तखन ओकरा महान कष्ट भोगय पड़ैत छैक। एकर बाद जखन ओ किछु पैघ होइत अछि, तखन अक्षर सभक अध्ययन आदि सँ गुरुक शासन सँ ओकरा महान दुःख होइत छैक।”
“युवावस्था मे रागोन्मत्त पुरुष केँ यदि कतहु अनुराग भऽ जाइत छैक त ईर्ष्याक कारण ओकरा भारी दुःख होइत छैक। जे उन्मत्त आ क्रोधी अछि, ओकर कतहु राग भेनाय केवल दुःख टा केर कारण थिक। राति मे कामाग्निजनित खेद सँ पुरुष केँ निद्रा नहि अबैछ, दिन मे द्रव्योपार्जनक चिन्ता लागल रहबाक कारण ओकरा सुख नहि भेटि सकैत छैक। सम्मान-अपमान सँ, प्रियजनक संयोग-वियोग सँ तथा वृद्धावस्था सँ ग्रस्त होयबाक चिन्ताक कारण जवानी मे सुख कतय?”
“युवावस्थाक शरीर एक दिन जरा अवस्थाक द्वारा जर्जर कय देल गेलापर सम्पूर्ण कार्यक लेल असमर्थ भऽ जाइत अछि। देह मे झुर्री पड़ि जाइत छैक। माथ पर केस उज्जर भऽ जाइत छैक आर शरीर बहुते ढील-ढाल भऽ जाइत छैक। बुढापा सँ दाबल गेल पुरुष असमर्थ होयबाक कारण पत्नी-पुत्र आदि बन्धु-बान्धव लोकनि सँ तथा सेवकहु द्वारा पर्यन्त अपमानित होइत अछि। वृद्धावस्था मे रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष केर साधन करय सँ असमर्थ भऽ जाइत अछि; ताहि लेल युवावस्था मे टा धर्मक आचरण करबाक चाही।”
“वात, पित्त आ कफक विषमते व्याधि कहाइत अछि। एहि शरीर केँ वात आदिक समूह कहल गेल अछि। एहि लेल अपन ई शरीर व्याधिमय अछि, एना बुझबाक चाही। यदि जीवनक काल आबि गेल अछि त ओकरा धन्वन्तरि सेहो जीवित नहि राखि सकैछ। काल सँ पीड़ित मनुष्य केँ औषध, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु-बान्धव कियो नहि बचा सकैत अछि। रसायन, तपस्या, जप, योग, सिद्ध, महात्मा तथा पण्डित सब मिलियोकय मृत्यु केँ नहि टालि सकैत अछि। समस्त प्राणीक लेल मृत्युक समान आन कोनो दुःख नहि छैक, मृत्युक समान कोनो भय नहि छैक तथा मृत्युक समान कोनो त्रास नहि छैक। सती भार्या, उत्तमपुत्र, श्रेष्ठ मित्र, राज्य, ऐश्वर्य आर सुख – ई सब स्नेहपाश मे बन्हायल अछि, मृत्यु एकरा सब केँ उच्छेद (समाप्त) कय दैत अछि।”
“एहि जीवनक समाप्ति भेलापर मनुष्य अत्यन्त भयावह मृत्यु केँ प्राप्त होइछ। मृत्युक बाद ओ फेर सँ करोड़ों योनि सभ मे जन्म ग्रहण करैत अछि। कर्मक गणना अनुसार देहभेद सँ जे जीव केँ एक शरीर सँ वियोग होइत छैक, ओकरा ‘मृत्यु’ नाम देल गेल छैक; वास्तव मे ओहि सँ जीवनक विनाश नहि होइछ। मृत्युक समय महान मोह केँ प्राप्त भेल जीव केर मर्मस्थान विदीर्ण होबय लगैत छैक, ओहि समय ओकरा जे बड़ा भारी कष्ट भोगय पड़ैत छैक, तेकर एहि संसार मे कतहु उपमा नहि छैक।”
“विवेकी पुरुष लेल केकरो सँ किछु माँगब मृत्यु सँ सेहो अधिक दुःखदायी होइत छैक। तृष्णा मात्र लघुताक कारण छी। एहि सँ आदि, मध्य व अन्त मे सेहो दारुण दुःख टा प्राप्त होइत छैक। दुःखक यैह परम्परा, समस्त प्राणी सब केँ स्वभावतः प्राप्त होइत छैक। क्षुधा केँ सब रोग सँ महान रोग मानल गेल अछि। जेना आन रोग सँ लोक मरैत अछि, तहिना क्षुधा सँ पीड़ित भेलापर मनुष्यक मृत्यु भऽ जाइत छैक। (जँ कही, धन-धान्यसम्पन्न राजा सुखी होयत त सेहो ठीक नहि।) राजा केँ केवल ई अभिमान होइत छैक जे हमर घर मे एतेक वैभव शोभा पाबि रहल अछि। वास्तव मे त ओकर सबटा आभरण भाररूप छैक, समस्त आलेपन-द्रव्य मलमात्र छैक, सम्पूर्ण संगीत-राग प्रलापमात्र छैक तथा नृत्य आदि सेहो पागल जेकाँ चेष्टा थिकैक। विचार-दृष्टि सँ देखलापर एहि राज्यभोग सभक द्वारा राजा लोकनि केँ सुख कहाँ भेटैत छैक? कियैक तँ ओ सब त एक-दोसर केँ जीतबाक लेल सदिखन चिन्तित रहैत अछि। राज्य-लक्ष्मी अथवा धन-ऐश्वर्य सँ के सुख पबैत अछि? मनुष्य स्वर्गलोक मे जे पुण्य-फल भोगैत अछि, से अपन मूल धन केँ गमइयेकय भोगैत अछि; कियैक त ओतय ओ दोसर नवीन कर्म नहि कय सकैत अछि। एहि स्वर्ग मे अत्यन्त भयंकर दोष छैक। जेना कोनो गाछक जैड़ काटि देलापर ओ विवश भऽ कय जमीन पर खसि पड़ैत अछि तहिना पुण्यरूपी मूल केर क्षय भेलापर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वीपर खसि पड़ैत अछि। एहि तरहें विचारपूर्वक देखल जाय त स्वर्ग मे देवताओ सभ केँ कोनो सुख नहि छन्हि। नरक मे गेल पापी जीव केँ दुःख त प्रसिद्ध अछिये – ओकर वर्णन कि कयल जाय? स्थावर-जङ्गम योनि मे पड़ल जीव सब केँ बहुत दुःख भोगय पड़ैत छैक।”
“दुर्भिक्ष, दुर्भाग्यक प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच-ऊँचक भाव, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव, पारस्परिक अपमानक दुःख, एक-दोसर सँ धन, वैभव मे या मान-बड़ाई मे बढ़लापर ईर्ष्याक कष्ट, अपन प्रभुताक सदा स्थिर नहि रहब, ऊँच पर चढल लोक केर नीचाँ खसायल जायब इत्यादि महान दुःख सब सँ ई सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त अछि। अतः एहि संसार केँ दुःख सँ भरल रहल जानिकय एकरा दिश सँ अत्यन्त उद्विग्न भऽ जेबाक चाही। उद्वेग सँ वैराग्य होइत छैक, वैराग्य सँ ज्ञान होइत छैक आर ज्ञान सँ परमात्मा विष्णु केँ जानिकय मनुष्य मोक्ष प्राप्त कय लैत अछि।”
“माँ! जेना कौआक अपवित्र स्थान मे राजहंस नहि रहि सकैत अछि, तहिना एहि दुःखमय संसार मे हम त कदापि नहि रमि सकैत छी। जतय रहिकय हम बिना कोनो बाधाक आनन्दपूर्वक रहि सकैत छी, ओ स्थान बतबैत छी – तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल, अचपलता, अक्रोध आर प्रिय वचन – ओहि विद्यावन मे ई सात टा पर्वत स्थित अछि। दृढ़ निश्चय, सभक संग समता, मन आ इन्द्रिय केर संयम, गुणसंचय, ममताक अभाव, तपस्या तथा संतोष – ई सात टा सरोवर अछि। भगवान केर गुणक विशेष ज्ञान भेला सँ जे भगवान मे भक्ति होइछ, वैह विद्या-वन केर पहिल नदी थिक, वैराग्य दोसर, ममताक त्याग तेसर, भगवत्-आराधन चारिम, भगवदर्पण पाँचम, ब्रह्मैकत्वबोध छठम तथा सिद्धि सातम – यैह सात नदी ओतय स्थित अछि। वैकुण्ठधाम केर समीप एहि सात नदीक संगम होइछ। जे आत्मतृप्त, शान्त आ जितेन्द्रिय होइत अछि, से महात्मा टा एहि मार्ग सँ परात्पर ब्रह्म केँ प्राप्त होइछ।”
“माँ! हम एतय ब्रह्मचर्य केर आचरण करैत छी। ब्रह्म टा समिधा, ब्रह्म टा अग्नि तथा ब्रह्म टा कुशास्तरण छथि। जल से ब्रह्म छथि आर गुरु सेहो ब्रह्म छथि, यैह हम ब्रह्मचर्य थिक। विद्वान पुरुष एकरे सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानैत छथि। आब हमर गुरुक परिचय सुनू – एक्के टा शिक्षक छथि दोसर कियो नहि। हृदय मे विराजमान अन्तर्यामी पुरुष टा शिक्षक भऽ कय शिक्षा दैत छथि। हुनकर सिवाय दोसर कियो गुरु नहि छथि। हुनका हम प्रणाम करैत छी। जे हृदय मे विराजमान छथि, वैह एक परमात्मा टा बन्धु छथि। ताहि लेल हम हुनका नमस्कार करैत छी। आब हमर गार्हस्थ सेहो सुनि लिय – प्रकृति टा हमर पत्नी थिकीह, मुदा हम कहियो हुनकर चिन्तन नहि करैत छी, ओ हमर सबटा प्रयोजन केँ सिद्ध करयवाली छथि। नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन, तथा बुद्धि – ई सात प्रकारक अग्नि सदिखन हमर अग्निशाला मे प्रज्वलित रहैत छथि। गन्ध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मन्तव्य आर बोधव्य – ई सात हमर समिधा छथि। होता (आचार्य) सेहो नारायण छथि आर वैह ध्यान सँ साक्षात् उपस्थित भऽ कय ओहि हविष्यक उपयोग करैत छथि। एहेन यज्ञद्वारा हम अपन एहि गृहस्थी मे ओहि परमेश्वर विष्णु केर यजन करैत छी आर कोनो वस्तु केर कामना नहि रखैत छी। हम स्वभाव राग-द्वेष आदि सँ लिप्त नहि अछि। माता! एहेन हमरा सन पुत्र सँ अहाँ दुःखी जुनि होउ। हम अहाँ केँ ओहि पद पर पहुँचायब जतय सैकड़ों यज्ञ कइयोकय पहुँचब असम्भव अछि।”
अपन पुत्र केर ई सबटा बात सुनिकय इतरा केँ बहुत विस्मय भेलनि। ऐतरेय केँ अपन कथन समाप्त करिते ओतय ओहि अर्चाविग्रह सँ शङ्ख-चक्र-गदाधारी भगवान विष्णु साक्षात् प्रकट भऽ गेलाह, ओ ओहि ब्राह्मण-बालक केर बात सँ अत्यन्त प्रसन्न रहथि। भगवानक कान्ति सैकड़ों सूर्यक समान प्रकाशमान आर दिव्य छल। ओ अपन प्रभा सँ सम्पूर्ण जगत केँ उद्भासित कय रहल छलाह। भगवान केँ देखिते ऐतरेय दण्डक भाँति धरतीपर खसि पड़लाह – हुनकर शरीर मे रोमाञ्च भऽ उठलनि, नेत्र सँ प्रेमक अश्रुधारा बहय लगलनि आर वाणी गदगद भऽ गेलनि। बुद्धिमान ऐतरेय भगवानक स्तुति कयलनि। स्तुति सँ प्रसन्न भऽ कय भगवान् हुनका सँ वर माँगय कहलखिन्ह।
एहि पर ऐतरेय कहलखिन – हम अभीष्ट वर त यैह अछि जे घोर संसार मे डूबैत हमरा सन असहाय केर वास्ते अपने कर्णधार बनि जाय।
भगवान वासुदेव कहलखिन्ह – वत्स! अहाँ त संसार-सागर सँ मुक्त छीहे। जे सदा एहि स्तोत्र सँ गुप्त भेल क्षेत्र मे स्थित हम वासुदेवक स्तरव करत, ओकरो सम्पूर्ण पापक नाश भऽ जेतैक। से कहिकय भगवान् विष्णु पुनः वासुदेव-विग्रह मे प्रवेश कय गेलाह। ओहि समय ऐतरेय केर माता और ऐतरेय दुनू एकटक दृष्टि सँ भगवान दिश तकैत आनन्दमग्न भऽ रहल छलथि।
हरिः हरः!!