“साहित्य”
– शिव कुमार सिंह।
”गामक दलान”
जखन गामक दलान के बात होय आ ओ पुरनका बात मन में नै घुरियाई भ नै सकैया।बिना दलानक त घर के कोनो शोभे नै होई छै।दलान त मिथिला के संस्कृति माटि पानि सँ परिचित करबैत अछि।बुढ़ पुरान सब दलानक शोभा बढ़ौने रहैत अछि।चारि बजे भोरे उठि गेल आ जोर सँ सीताराम राधेश्याम जपैत रहल।जखन कनिया बहुरिया सब के आवाज सुनि क नीन खुजल त बाजथि बुझाय भोर भ गेलै बुढ़वा राम राम जपै छै।अन्हारे उठि फेर दिशा मैदान आ दतमैन कय फ्रेश भ गेल। फेर सभ के उठौलक देखी त एखन तक सब सुतले छै,कीरिन फुटल जाय छै। एहनो कहुँ सुतनाय भेलै य। बुझितै छियै आबक बेसी लोक के जाबत रौद नै उगत ताबत उठऽ के नाम नै लेत।दलान प भिंसरक समय में कतेक बुजुर्ग एक ज इकट्ठा भेल त सब दिश सँ एक सँ एक गप छोड़लक।पहिने त समाचार शुरू केलक फलना गाम में उ भेलै त फलना गाम उ । फेर दोसर बजला कि कहै छ राति एतेक कौरगर खा लेलिय ने से बड गैस बनि गेल।एह तोहों त…हमरा एहन खेबऽ त बुझाय सुलवाये भ जेतऽ। फेर बीच में टोकैत कियो बजता कि कहिय हमर पोता त भरि दिन कुरकुरे खाय पर रहै छै बहसि गेल छै दुलारे सँ सिका प चढ़ि गेल छै ,मोजरे नै दै छै ।कि कहबहक आबक बच्चा त बापे बनि क जनम लै छै।आबक धिया पुता कतेक उचक्का होई छै ।देखलक सब के जर भेल त कहलक हौ बुढ़वा चलऽ खेत कोदारि पारै लेल ,त झट सँ बजता रौ हम सब त एके साँस में कट्ठा भरि तामि दै छेलियै तू त चारिये डेग में हुकुर हुकुर करऽ लगबे।एहिना गप दैत त उखराहा बीत जाय छै। जाड़ मास में त आओर बेसि घुर ल बैस क सांझ भीन्सर गप चलैत रहल।कर कुटुम जे आयल दलान प बैसल ,पर पंचायत सेहो भेल।जँ बराति अबै छलै त सबके बैठक दलाने प रहै छलै ,आब त रातिये में भागि जाई छै। गामक दलानक शोभा देखऽ लायक रहै छै।मुदा आब ओय में किछ कमी छै। कतेक लोक त परदेशे रहै छै, जे घरो प रहल त दोसर सँ ओतेक माने मतलब नै रखलक । एक दोसर से मनमुटाव बेसी रहै छै।बुढ़ा सब दलान प बैसल चुपचाप तकैत रहल। एना नै हेबाक चाही एक दोसर के प्रति सदभाव रहक चाही। समाजिकता बनल रहक चाही। इहे त अपन मिथिलाक पहचान छै संस्कृति छै।मुदा किछ कहियौ गामक दलानक कतबो विशेषता कहब त हमरा बुझाय य कमे पड़त।
जय मिथिला।