“साहित्य”
– दीपिका झा।
४/२/२०२१।
“झरकल मुंह शोभैयै पान”
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चंद्र सनक मुंह सून पड़ल अछि,
सोन शोभैयै कौवा कान।
श्रमिक के थारी, पड़ल अइ खाली,
कोढ़िक आंगन भरल अइ धान॥
सब कर्मी बनल आब गामक मुखिया,
सरपंच बनल जे सब सँ बइमान।
कबिलाहा मुंह झूर बैसल अइ,
झरकल मुंह में शोभैयै पान॥
जिनका बाजक मुंह नै कतौ,
ओ सीना तानि बजथि सरेआम।
मान जिनक अछि मिलल धूल में,
तैयो सोच में भरल गुमान॥
कोन जुगक अइ असर पड़ल ई,
सम्मानविहीन छथि गुण के खान।
कबिलाहा मुंह झूर बैसल अइ,
झरकल मुंह में शोभैयै पान॥
लोमड़ी सिंहक कोर बैसल अइ,
गदहा सभा में बढ़बै शान।
अजगर भेल रखबैया घरके,
बिलारि बैन बैसल दरबान॥
चीता दौड़ में सबसँ पाछू,
मूस बनल बड़का पहलवान।
कबिलाहा मुंह झूर बैसल अइ,
झरकल मुंह में शोभैयै पान॥
जे मंदिर-मस्जिद दौड़ लगाबथि,
अपनो हिस्सा क’ देथि दान।
धर्म-कर्म सँ कतौ नहिं पाछू,
ओ खसथि ठेस लागि झूर-झमान॥
आब कर्तव्यक स्थान लेलक चापलूसी,
तीलक-तार बनि मचै घमासान।
कबिलाहा मुंह झूर बैसल अइ,
झरकल मुंह में शोभैयै पान॥
ई जुनि बूझू अहां हारल छी,
जुनि सोचू अहां छी अनजान।
बस लोकक खेल में भेल छी पाछू,
उठू, करू हिम्मत आ लिय’ संज्ञान॥
सबहक अप्पन बनै के क्रम में,
अपनहि लेल नहिं बनू आन।
कबिलाहा मुंह झूर अइ बैसल,
झरकल मुंह में शोभैयै पान॥