मैथिली सुन्दरकाण्डः रावण केँ विभीषण केर बुझेनाय और विभीषणक अपमान

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

रावण केँ विभीषण केर बुझेनाय और विभीषणक अपमान

दोहा :
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बाजथि भय आश
राज धर्म तन तीनि केर होय बेगिहीं नाश॥३७॥
भावार्थ:- मंत्री, वैद्य और गुरु – ई तीन यदि (अप्रसन्नता केर) भय या (लाभ केर) आशा सँ (हित केर बात नहि कहिकय) प्रिय टा बजैत (मुंह पर नीक लागयवला बोल कहय लगैत छथि), तऽ (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म – एहि तीन केर शीघ्रे नाश भऽ जाइत अछि॥३७॥
चौपाई :
सैह रावण केँ बनल सहाय। स्तुति करय सुनाय सुनाय॥
अवसर जानि विभीषण एला। भ्राता चरण शीश झुकेला॥१॥
भावार्थ:- रावण लेल सेहो ओहने सहायता (संयोग) आबि बनल अछि। मंत्री लोकनि ओकरा सुना-सुनाकय (मुंह पर) स्तुति करैत छथि। (ताहि समय) अवसर बुझिकय विभीषण जी एला। ओ जेठ भाइ केँ चरण मे माथ झुकेलनि॥१॥
पुनि सिर नवा बैसि निज आसन। बजला वचन पाय अनुशासन॥
जौँ कृपाल पूछी मोर बात। मति अनुरूप कही हित तात॥२॥
भावार्थ:- फेर सँ माथ नमाकय अपन आसन पर बैसि गेलाह आर आज्ञा पाबिकय ई वचन बजलाह – हे कृपालु! जँ अपने हमरा सँ बात (राय) पुछलहुँ हँ त हे तात! हम अपन बुद्धिक अनुसार अहाँक हित केर बात कहैत छी – ॥२॥
जे आपन चाहय कल्याणा। सुयश सुमति शुभ गति सुख नाना॥
से परनारि लिलार गोसाईं। तजू चौठ के चान कि नाईं॥३॥
भावार्थ:- जे मनुष्य अपन कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार केर सुख चाहैत हो, से हे स्वामी! परस्त्री केर ललाट केँ चौठक चंद्रमा जेकाँ त्यागि दियए (अर्थात्‌ जेना लोक चौठक चंद्रमा केँ नहि देखैत अछि, ओहिना परस्त्रीक मुंह नहि देखय)॥३॥
चौदह भुवन एक पति होय। भूत द्रोह टिकइ नहि सोय॥
गुण सागर नामी नर सेहो। अल्प लोभ भल कहे न कियो॥४॥
भावार्थ:- चौदहो भुवन केर एकमात्र स्वामियो जे छथि, ओहो जीव सँ वैरी कय केँ नहि टिकि सकैत छथि (नष्ट भऽ जाइत छथि)। जे मनुष्केय गुणक समुद्र आ चतुर हो, ओकरा चाहे कनिकबो लोभ कियैक नहि हुअय, तैयो ओकरा कियो भला नहि कहैत छैक॥४॥
दोहा :
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुवीर भजू भजैत जेना छथि संत॥३८॥
भावार्थ:- हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ – ई सबटा नरक केर रास्ता छी, एहि सबकेँ छोड़िकय श्री रामचंद्रजी केँ भजू, जिनका संत (सत्पुरुष) लोकनि भजैत छथि॥३८॥
चौपाई :
तात राम नहि नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु केर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। व्यापक अजित अनादि अनंता॥१॥
भावार्थ:- हे तात! राम मनुष्य के राजा मात्र नहि छथि। ओ समस्त लोकक स्वामी और काल केर सेहो काल थिकाह। ओ (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान केर भंडार) भगवान्‌ छथि, ओ निरामय (विकाररहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म छथि॥१॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। वेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता॥२॥
भावार्थ:- ओहि कृपा के समुद्र भगवान्‌ पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवता लोकनिक हित करबाक लेल मात्र मनुष्य शरीर धारण कयलनि अछि। हे भाइ! सुनू, ओ सेवक सब केँ आनन्द दयवला, दुष्टक समूह केर नाश करयवला आ वेद तथा धर्म केर रक्षा रकयवला छथि॥२॥
तिनक वैरि तजि नमबू माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
दियौन नाथ प्रभु केँ वैदेही। भजू राम बिनु हेतु सनेही॥३॥
भावार्थ:- वैरी (शत्रुता) त्यागिकय हुनका मस्तक नवाउ। ओ श्री रघुनाथजी शरणागत केर दुःख नाश करयवला छथि। हे नाथ! ओहि प्रभु (सर्वेश्वर) केँ जानकीजी दय दियौन आर बिना कोनो कारण सिनेह करयवला श्रीराम जी केँ भजू॥३॥
शरण गेल प्रभु ताहि न त्यागल। विश्व द्रोह कृत पाप यदि लागल॥
जिनक नाम त्रय ताप नशावन। से प्रभु प्रकट बुझू हिय रावण॥४॥
भावार्थ:- जेकरा संपूर्ण जगत्‌ सँ द्रोह करबाक पाप लागल छैक, शरण गेला पर प्रभु ओकरो त्याग नहि करैत छथि। जिनकर नाम तीनू ताप केँ नाश करयवला अछि, वैह प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप मे प्रकट भेला अछि। हे रावण! हृदय मे ई बुझि लिअ॥४॥
दोहा :
बेर बेर पद लागिकय विनय करी दसशीश।
परिहरि मान मोह मद भजू कोसलाधीश॥३९क॥
भावार्थ:- हे दशशीश! हम बेर-बेर अहाँक चरण लगैत छी आर विनती करैत छी जे मान, मोहआर मद केँत्यागिकय अहाँ कोशलपति श्रीरामजीक भजन करू॥३९ (क)॥
मुनि पुलस्ति निज शिष्य सँ कहि पठेला ई बात।
तुरत से हम प्रभु सँ कहल पाय सुअवसर तात॥३९ (ख)॥
भावार्थ:- मुनि पुलस्त्यजी अपना शिष्य केर हाथे ई बात कहा पठेलनि अछि। हे तात! सुंदर अवसर पाबिकय हम तुरंते से बात प्रभु (अहाँ) सँ कहि देलहुँ॥३९ (ख)॥
चौपाई :
माल्यवंत अति सचिव सियान। हुनक वचन सुनि अति सुख मान॥
तात अनुज छथि नीति विभूषन। से हिया धरू जे कहथि विभीषण॥१॥
भावार्थ:- माल्यवान्‌ नाम केर एक बहुते बुद्धिमान मंत्री छल। ओ हुनकर (विभीषणजीक) वचन सुनिकय बहुत सुख मानलनि (और कहलखिन -) हे तात! अहाँक छोट भाइ नीति विभूषण (नीति केँ भूषण रूप मे धारण करयवला अर्थात्‌ नीतिमान्‌) छथि। विभीषण जे किछु कहि रहल छथि ओकरा हृदय मे धारण कयल जाउ॥१॥
रिपु उत्कर्ष कहय शठ दुनू। दूर न करय एतय सँ कुनू॥
माल्यवंत गृह गेला बहुरि। कहथि विभीषण पुनि कर जोड़ि॥२॥
भावार्थ:- (रावण कहलकैक -) ई दुनू मूर्ख शत्रु केर महिमा बखानि रहल अछि। एतय कियो छँ? एकरा सब केँ दूर कर न! तखन माल्यवान् त अपन घर वापस चलि गेलाह मुदा विभीषणजी हाथ जोड़िकय फेरो कहय लगलाह – ॥२॥
सुमति कुमति सभक हिय रहय। नाथ पुराण निगम से कहय॥
जतय सुमति ओतय संपत्ति नाना। जतय कुमति ओतय विपत्ति निदाना॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! पुराण और वेद एना कहैत छैक जे सुबुद्धि (नीक बुद्धि) और कुबुद्धि (खोट बुद्धि) सभक हृदय मे रहैत छैक, जतय सुबुद्धि अछि, ओतय नाना प्रकार केर संपदा (सुख केर स्थिति) रहैत अछि आर जतय कुबुद्धि अछि ओतय परिणाम मे विपत्ति (दुःख) रहैत छैक॥३॥
अहाँ हिय कुमति बसल विपरीता। हित अनहित मानी रिपु प्रीता॥
कालराति निशिचर कुल केरी। ताहि सीता पर प्रीति घनेरी॥४॥
भावार्थ:- अहाँक हृदय मे उल्टा बुद्धि बैसि गेल अछि। एहि सँ अहाँ हित केँ अहित आ शत्रु केँ मित्र मानि रहल छी। जे राक्षस कुल केर लेल कालरात्रि (केर समान) छथि, ताहि सीता पर अहाँक बड़ा प्रीति अछि॥४॥
दोहा :
तात चरण गहि माँग करी राखू मोर दुलार।
सीता दियौन राम केँ अहित न होय तोहार॥४०॥
भावार्थ:- हे तात! हम पैर पकड़िकय अहाँ सँ भीख मंगैत छी (विनती करैत छी)। कि अहाँ हमर दु चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ (विनती करता हूँ) जे अहाँ हमर दुलार राखू (हम बालक केर आग्रह केँ स्नेहपूर्वक स्वीकार करू) श्री रामजी केँ सीताजी दय दियौन, जाहि मे अहाँ अहित नहि होयत॥४०॥
चौपाई :
बुद्ध पुराण श्रुति सन्मत वाणी। कहल विभीषण नीति बखानी॥
सुनैत दसानन उठल रिसाय। खल तोर निकट मृत्यु आब आय॥१॥
भावार्थ:- विभीषण पंडित (बुद्धिमान), पुराण और वेद द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी सँ नीति बखानिकय कहला। लेकिन से सुनिते रावण क्रोधित भऽउठल आर बाज जे रे दुष्ट! आब मृत्यु तोहर नजदीक आबि गेलौक अछि!॥१॥
जियए सदा शठ मोर जियावा। रिपु केर पक्ष मूढ़ तोंहे भावा॥
कहय न खल अछि के जग माहिं। भुज बल जे जीतल हम नाहिं॥२॥
भावार्थ:- अरे मूर्ख! तूँ जियैत त छँ सदिखन हमर जियेला सँ (अर्थात् हमरहि अन्न पर पोसा रहल छँ), मुदा रे मूढऽ पक्ष तोरा शत्रु केर टा नीक लगैत छौक। अरे दुष्ट! बता न, जगत् मे एहेन के अछि जेकरा हम अपन भुजाक बल सँ नहि जीतने होइ?॥३॥
मोरा पुर बसि तपसी सँ प्रीति। शठ मिलय जो हुनके कह नीति॥
से कहि कयलक चरण प्रहार। अनुज गहय पद बारम्बार॥३॥
भावार्थ:- हमर नगर मे रहिकय प्रेम करैत अछि तपस्वी पर। मूर्ख! हुनके सँ जाकय मिल जो आ हुनके नीति बता। एना कहिकय रावण हुनका लात मारलक, मुदा छोट भाइ विभीषण (मारलो के बाद) बेर-बेर ओकर चरण टा पकड़ला॥३॥
उमा संत केर यैह बड़ाइ। मंद करत जे करहि भलाइ॥
अहाँ पिता सम भले मोहे मार। राम भजब हित नाथ तोहार॥४॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे उमा! संत केर यैह बड़ाइ (महिमा) थिकैक जे ओ खराबो कयला पर (खराब कयनिहारक) भलाइये करैत छैक। (विभीषणजी कहलखिन -) अहाँ हमर पिता समान छी, हमरा मारलहुँ से त नीके कयलहुँ, परन्तु हे नाथ! अहाँक भला श्री रामजी केँ भजने मे अछि॥४॥
सचिव संग लय नभ पथ गेला। सब केँ सुनाय कहथि ई भेला॥५॥
भावार्थ:- (एतेक कहिकय) विभीषण अपना मंत्रि लोकनि केँ संग लय आकाश मार्ग मे गेला और सबकेँ सुनाकय ओ एना कहय लगलाह -॥५॥