मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
श्री सीता-त्रिजटा संवाद
दोहा :
जहिं तहिं गेल तखन सबटा सीता मन मे सोच।
मास दिन केर बितिते मारत निशिचर पोच॥११॥
भावार्थ : तखन (ओकर बाद) ओ सब जहाँ-तहाँ चलि गेल। सीताजी मन मे सोच करय लगलीह जे एक महीना बीत गेलापर नीच राक्षस रावण हमरा मारत॥११॥
चौपाई :
त्रिजटा सँ कहली कर जोड़ि। मातु विपत्ति संगी अहीं मोरि॥
तजी देह करु जल्द उपाय। दुसह विरह आब सहल नहि जाय॥१॥
तजी देह करु जल्द उपाय। दुसह विरह आब सहल नहि जाय॥१॥
भावार्थ : सीताजी हाथ जोड़िकय त्रिजटा सँ कहली – हे माता! अहाँ हमर विपत्तिक संगिनी छी। जल्दी कोनो एहेन उपाय करू जाहि सँ हम शरीर छोड़ि सकी। विरह असह्म भऽ गेल अछि, आब ई सहल नहि जाइत अछि॥१॥
आनि काठ रचु चिता बनाउ। मातु अनल पुनि देह लगाउ॥
सत्य करू मम प्रीति सयानी। सुनय के श्रवन सूल सन वाणी॥२॥
सत्य करू मम प्रीति सयानी। सुनय के श्रवन सूल सन वाणी॥२॥
भावार्थ : काठ आनि चिता बनाकय सजा दिअ। हे माता! फेर ओहि मे आग लगा दिअ। हे सयानी! अहाँ हमर प्रीति केँ सत्य कय दिअ। रावण केर शूल समान दुःख दयवाली बोल-वचन (वाणी) कान सँ के सुनय?॥२॥
सुनैत वचन पैर पकड़ि समझाबय। प्रभु प्रताप बल सुयश सुनाबय॥
राति अग्नि कतय सुनु सुकुमारी। से कहि ओ निज भवन सिधारी॥३॥
राति अग्नि कतय सुनु सुकुमारी। से कहि ओ निज भवन सिधारी॥३॥
भावार्थ : सीताजीक वचन सुनिकय त्रिजटा हुनकर चरण पकड़िकय हुनका बुझेलक आर प्रभुक प्रताप, बल और सुयश सुनेलक। (ओ कहलक -) हे सुकुमारी! सुनू, रात्रि केर समय आगि नहि भेटत। एतेक कहिकय ओ अपन घर चलि गेल॥३॥
कहय सीता विधि भेल प्रतिकूल। भेटय न आगि मिटय नहि सूल॥
देखाय प्रकट आकाश अंगारा। मुदा न आबय एकहु तारा॥४॥
देखाय प्रकट आकाश अंगारा। मुदा न आबय एकहु तारा॥४॥
भावार्थ : सीताजी (मनहि मन) कहय लगलीह – (कि करू) विधाते विपरीत भऽ गेला अछि। नहि आग भेटत, नहि पीड़ा मिटत। आकाश मे अंगार (आगि) प्रकट देखाय दय रहल अछि, धरि पृथ्वी पर एकहु टा तारा नहि अबैत अछि॥४॥
अग्नि समान चन्दो नहि बरसय। मानू मोरा हतभागी बुझय॥
सुनू विनय मोर वृक्ष अशोक। सत्य नाम करु हरु मम शोक॥५॥
भावार्थ : चंद्रमा अग्निमय अछि, मुदा ओहो मानू हमरा हतभागी बुझिकय आगि नहि बरसबैत अछि। हे अशोक वृक्ष! अहाँ हमर विनती सुनू। हमर शोक केँ हरिकय अपन नाम ‘अशोक’ केँ सत्य करू॥५॥
नूतन किसलय अनल समान। दय अगिन नहि करय निदान॥
देखि परम विरहाकुल सीता। से क्षण कपिक कलप सन बिता॥६॥
देखि परम विरहाकुल सीता। से क्षण कपिक कलप सन बिता॥६॥
भावार्थ : अहाँक नव-नव कोमल पत्ता अग्नि केर समान अछि। अग्नि दैत विरह रोग केर अंत नहि कय रहल छी। सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय ओ क्षण हनुमान्जी केँ कल्प केर समान बितल॥६॥