मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित रामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
हनुमान्-विभीषण संवाद
दोहा :
रामायुध अंकित गृह शोभा बरन न जाय।
नव तुलसीक बृंद ओतय देखि हरख कपिराय॥५॥
नव तुलसीक बृंद ओतय देखि हरख कपिराय॥५॥
भावार्थ : ओ महल श्री रामजी केर आयुध (धनुष-बाण) केर चिह्न सँ अंकित छल, ओकर शोभा वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। ओतय नव-नव तुलसी गाछक समूह केँ देखिकय कपिराज श्री हनुमान्जी हर्षित भेलाह॥५॥
चौपाई :
लंका निशिचर निकर निवास। एतय कतय सज्जन केर बास॥
मन मन तर्क करय कपि लगला। ताहि समय विभीषण जगला॥१॥
मन मन तर्क करय कपि लगला। ताहि समय विभीषण जगला॥१॥
भावार्थ : लंका तँ राक्षसक समूह केर निवास स्थान छी। एतय सज्जन (साधु पुरुष) केर निवास कतय? हनुमान्जी मने-मन एहि तरहक तर्क करयल लगलाह। ताहि समय विभीषणजी जगलाह॥१॥
राम राम कहि सुमिरन कयला। हृदय हरखि कपि सज्जन चिन्हला॥
एकरा सँ हठे करब चिन्ह जानि। साधु सँ होइ न कारज हानि॥२॥
एकरा सँ हठे करब चिन्ह जानि। साधु सँ होइ न कारज हानि॥२॥
भावार्थ : ओ (विभीषण) राम नाम केर स्मरण (उच्चारण) कयलनि। हनुमान्जी हुनका सज्जन जानि आरो बेसी हृदय मे हर्षित भेलाह। (हनुमान्जी आब विचार कयलनि जे) हिनका सँ हठ कय केँ (अपना दिश सँ) परिचय करब, कियैक तँ साधु सँ कार्य केर हानि नहि होइत छैक। (प्रत्युत लाभ टा होइत छैक)॥२॥
विप्र रूप धय वचन सुनेला। सुनिकय विभीषन उठि ओतय एला॥
कय प्रणाम पूछलथि कुशलमय। विप्र कहू निज कथा बुझा कय॥3॥
कय प्रणाम पूछलथि कुशलमय। विप्र कहू निज कथा बुझा कय॥3॥
भावार्थ : ब्राह्मण केर रूप धय हनुमान्जी हुनका सँ अपन बात कहलनि (आवाज लगौलनि)। सुनितहि विभीषणजी उठिकय ओतय एलाह। प्रणाम कय केँ कुशल-क्षेम पूछलथि (आर कहलथि) – हे ब्राह्मणदेव! अहाँ अपन सब बात (कथा) बुझाकय कहू॥३॥
कि अहाँ हरि दास सँ कियो। हमर हृदय मे प्रीति अति हो॥
कि अहाँ रामु दीन अनुरागी। एलहुँ मोरा करय बड़भागी॥४॥
कि अहाँ रामु दीन अनुरागी। एलहुँ मोरा करय बड़भागी॥४॥
भावार्थ : कि अहाँ हरिभक्त मे सँ कियो छी की? कियैक तँ अहाँ केँ देखिकय हमर हृदय मे अत्यंत प्रेम उमड़ि रहल अछि। आ कि, अहाँ दीन (दुःखी) सँ प्रेम करनिहार स्वयं श्री रामजी छी जे हमरा बड़भागी बनाबय (घरे-बैसल दर्शन दय कृतार्थ करय) आयल छी? ॥४॥
दोहा :
तखन हनुमान कहलनि राम कथा निज नाम।
सूनि दुइके तन पुलकित सुमिरि मगन गुण गाम॥६॥
भावार्थ : तखन हनुमान्जी द्वारा श्री रामचंद्रजीक सब कथा कहिकय अपन नाम बतेलनि। सुनिते दुनूक शरीर पुलकित भऽ गेलनि आर एना श्री रामजीक गुण समूह केँ स्मरण कय केँ दुनूक मन (प्रेम और आनंद मे) मगन भऽ गेलनि॥६॥
चौपाई :
सुनू पवनसुत रहब हमर ई। जेना दसनन्हि मे जीभ बेचारी॥
तात किमपि मोरा जानि अनाथ। करता कृपा भानुकुल नाथ॥१॥
तात किमपि मोरा जानि अनाथ। करता कृपा भानुकुल नाथ॥१॥
भावार्थ : (विभीषणजी कहलखिन-) हे पवनपुत्र! हमर रहनाय सुनू। हम एतय ओहिना रहैत छी जेना दाँतक बीच मे बेचारी जीभ रहैत अछि। हे तात! हमरा अनाथ जानिकय सूर्यकुल केर नाथ श्री रामचंद्रजी कि कहियो हमरा पर कृपा करता?॥१॥
तामस तन किछु साधन नहि य। प्रीति न पद सरोज मन मे य॥
आब मोरा ई भरोस हनुमंत। बिनु हरिकृपा मिलथि नहि संत॥२॥
आब मोरा ई भरोस हनुमंत। बिनु हरिकृपा मिलथि नहि संत॥२॥
भावार्थ : हमर तामसी (राक्षस) शरीर भेलाक कारण साधन तँ किछु बनैत नहि अछि आर नहिये मोन मे श्री रामचंद्रजी केर चरणकमल मे प्रेमहि अछि, तैयो हे हनुमान्! आब हमरा विश्वास भऽ गेल जे श्री रामजीक हमरा पर कृपा छन्हि, कियैक तँ हरि केर कृपा बिना संत नहि भेटैत छथि॥२॥
जेँ रघुबीर अनुग्रह कयल। तेँ अहाँ मोर दरस हठ देल॥
सुनू विभीषण प्रभु केर रीति। करथि सदा सेवक पर प्रीति॥३॥
सुनू विभीषण प्रभु केर रीति। करथि सदा सेवक पर प्रीति॥३॥
भावार्थ : जखन श्री रघुवीर कृपा कयला अछि तखनहि तऽ अपने हमरा हठ कय केँ (अपनहि दिश सँ) दर्शन देल अछि। (हनुमान्जी कहलखिन-) हे विभीषणजी! सुनू, प्रभु केर यैह रीति छन्हि जे ओ सेवक पर सदैव स्नेह रखैत छथि॥३॥
कहू कोन हम परम कुलीन। कपि चंचल सबटा विधि हीन॥
प्रात लैछ जे नाम हमार। तेहि दिन ओकरा नै भेटय अहार॥४॥
प्रात लैछ जे नाम हमार। तेहि दिन ओकरा नै भेटय अहार॥४॥
भावार्थ : भला कहू, हमहीं कोन बड़का कुलीन छी? (जाति केर) चंचल बानर छी आर सब प्रकार सँ नीच छी, प्रातःकाल जे कियो हमरा सभक (बंदर) केर नाम लय लैत अछि ताहि दिन ओकरा आहारो नहि भेटैछ॥४॥
दोहा :
एहेन अधम हम सखा सुनू हमरहु पर रघुवीर।
कयला कृपा सुमिरि गुण भरल विलोचन नीर॥७॥
भावार्थ : हे सखा! सुनू, हम एहेन अधम छी, तथापि श्री रामचंद्रजी तँ हमरा ऊपर कृपा कयलनि अछि। भगवान् केर गुणक स्मरण कय केँ हनुमान्जी केर दुनू आँखि मे (प्रेमाश्रु केर) जल भरि एलनि॥७॥
चौपाई :
जनितहुँ एहेन स्वामी जे बिसरत। दुःखी रहत जहिं-तहिं से भटकत॥
एहि विधि कहथि राम गुन ग्राम। पाबथि अनिर्बाच्य विश्राम॥१॥
एहि विधि कहथि राम गुन ग्राम। पाबथि अनिर्बाच्य विश्राम॥१॥
भावार्थ : जे जनितो-बुझितो जे एहेन स्वामी (श्री रघुनाथजी) केँ बिसरिकय (विषय केर पाछाँ) भटकैत फिरैत अछि, से दुःखी कियैक नहि हो! एहि तरहें श्री रामजी केर गुण समूह केँ कहैत ओ अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त कयलथि॥१॥
पुनि सब कथा विभीषण कहलथि। जेहि विधि जनकसुता ओतय रहथि॥
तखन हनुमंत कहल सुनु भ्राता। देखय चाहब जानकी माता॥२॥
तखन हनुमंत कहल सुनु भ्राता। देखय चाहब जानकी माता॥२॥
भावार्थ : फेर विभीषणजी द्वारा श्री जानकीजी जाहि ढंग सँ ओतय (लंका मे) रहैत छलीह, से सब बात कहलनि। तखन हनुमान्जी कहलखिन – हे भाइ सुनू, हम जानकी माता केँ देखय चाहैत छी॥२॥