मैथिली सुन्दरकाण्डः लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका मे प्रवेश

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दकाण्डक मैथिली अनुवाद

लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका मे प्रवेश

नाना वृक्ष फल फूल सोहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल विशाल देखि एक आगू। ओहिपर दौड़ि चढल भय त्यागू॥४॥
भावार्थ : अनेकों प्रकारक वृक्ष फल-फूल सँ शोभित अछि। पक्षी आर पशु सभक समूह केँ देखिकय ओ मनहिमन (खूब) प्रसन्न भेलाह। आगू मे एक विशाल पर्वत देखिकय हनुमान्‌जी भय त्यागिकय ओहिपर दौड़िकय जा चढ़लाह॥४॥
उमा नय कनिको कपि के बड़ाइ। प्रभु प्रताप जे कालहि खाइ॥
गिरि पर चढ़ि लंका ओ देखला। कहल न जाइ अति दुर्ग विशेषा॥५॥
भावार्थ : (शिवजी कहैत छथि-) हे उमा! एहि मे वानर हनुमान्‌ केर कोनो बड़ाई नहि छैक। ई प्रभु केर प्रताप थिक जे कालहु केँ खा जाइत अछि। पर्वत पर चढ़िकय ओ लंका देखलथि। अत्यन्त पैघ किला छल जेकर सम्बन्ध मे कहब कठिन अछि॥५॥
अति ऊँचगर जलनिधि चहुँ पास। कनक कोट करे परम प्रकाश॥६॥
भावार्थ : ओ अत्यंत ऊँच अछि, ओकर चारू दिश समुद्र छैक। सोनाक परकोटा (चहारदीवारी) केर परम प्रकाश भऽ रहल अछि॥६॥
छंद :
कनक कोटि विचित्र मणि कृत सौम्य सुन्दर घर घना।
चौक हाट सुबाट गली सब चारू पुर बहु विधि बना॥
हाथी घोड़ा गाधा पैदल रथ समूह केँ के गनय।
बहुरूप निशिचर झूंड अतिबल सैन्य वर्णत नहि बनय॥१॥
भावार्थ : विचित्र मणि सँ जड़ल सोनाक परकोटा अछि, तेकर अंदर बहुते सौम्य-सुंदर घर अछि। चौक-चौराहा, हाट, सुंदर बाट आर गली सब अछि, सुन्दर नगर बहुतो प्रकार सँ सजायल अछि। हाथी, घोड़ा, गदहाक समूह तथा पैदल और रथ केर समूह केँ के गानि सकैता अछि! अनेकों रूप केर राक्षस सभक दल छैक, ओकर अत्यंत बलवती सेना वर्णन करैत नहि बनैत अछि॥१॥
वन बाग बगिया इनार पोखरि झील सब सोभइ य।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहइ य॥
कहुँ मल्ल देह विशाल शैल समान अतिबल गर्जइ य।
नाना अखारा भिड़य बहुविधि एक एक ललकारइ य॥२॥
भावार्थ : वन, बाग, बगीचा, पोखरि, इनार और झील सब सुशोभित अछि। मनुष्य, नाग, देवता और गंधर्वक कन्या सब अपन सौंदर्य सँ मुनियो लोकनिक मन केँ मोहि लैत अछि। कतहु पर्वत केर समान विशाल शरीर वाला बड़ा हि बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरैज रहल अछि। ओ सब अनेकों अखाड़ा मे बहुतो प्रकार सँ भिड़ैत अछि और एक-दोसर केँ ललकारैत अछि॥२॥
कय जतन भट कोटी विकट तन नगर चहुँ दिशि रक्षय अछि।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्षय अछि॥
एहि लेल तुलसीदास एकर कथा किछु जे कहलनि अछि।
रघुवीर सर तीरथ शरीर केँ त्यागि गति पाओत सही॥3॥
भावार्थ : भयंकर शरीर वाला करोड़ों योद्धा यत्नपूर्वक (बड़ी सावधानी सँ) नगर केर चारू दिशा मे (सब दिश सँ) रखवाली करैत अछि। कतहु दुष्ट राक्षस महींस, मनुष्य, गाय, गदहा और बकरा केँ खा रहल अछि। तुलसीदास द्वारा एकर सभक कथा एहि वास्ते मात्र थोड़बे कहल गेल अछि जे ई सब निश्चय टा श्री रामचंद्रजी केर बाणरूपी तीर्थ मे शरीर केँ त्यागिकय परमगति पाओत॥३॥
दोहा :
पुर रखवाला देखि बहुत कपि मन केलनि विचार।
अति लघु रूप धरब रात्रि नगर करब पइसार॥३॥
भावार्थ : नगर केर बहुसंख्यक रखवार केँ देखिकय हनुमान्‌जी मन मे विचार कयलनि जे अत्यंत छोट रूप धरब और रातिक समय नगर मे प्रवेश करब॥३॥
चौपाई :
मसक समान रूप कपि धेला। लंका चलथि नरहरि केँ सुमिरला॥
नाम लंकिनी एक निशाचरि। से कहय जाय कतय बिनु पुछारि॥२॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी मच्छड़ केर समान (छोट सन) रूप धारण कय नर रूप सँ लीला करनिहार भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी केँ स्मरण कय केँ लंका लेल चललाह। (लंका केर द्वारि पर) लंकिनी नाम केर एक राक्षसी रहैत छल। ओ कहलक- हमर पुछारि (बिना हमरा सँ पूछने) कतय चलि जा रहल छेँ?॥१॥
जानें नहि तूँ मर्म सठ मोर। मोर अहार जहाँ केर चोर॥
मुक्का एक महा कपि हनलनि। खून बोकरैत ओकरा ओंघरेलनि॥२॥
भावार्थ : हे मूर्ख! तोरा हमर भेद नहि पता छौक, जतय धरि चोर सब अछि ओ सब हमर आहार थिक। महाकपि हनुमान्‌जी ओकरा एक मुक्का मारलनि, जाहि सँ ओ खूनक उल्टी करैत ओतहि ओंघरा गेल॥२॥
पुनि सम्भारि उठल ओ लंका। जोड़ि हाथ करय विनय सशंका॥
जखन रावण केँ ब्रह्मा वर देला। जाइत काल मोरा नाश बतेला॥३॥
भावार्थ : ओ लंकिनी फेर अपना केँ संभारिकय उठेलक आर डरक मारे हाथ जोड़िकय विनती करय लागल। (ओ बाजल-) रावण केँ जखन ब्रह्माजी वर देने छलाह, तखन जाइत समय हमरा ओ राक्षस केर विनाश केर यैह पहिचान बता देने छलाह जे -॥३॥
बिकल हुएं तूँ कपि केर मारे। तखन जान निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुण्य बहूते। देखेउँ नयन राम केर दूते॥4॥
भावार्थ : जखन तूँ बंदर केर मारला सँ व्याकुल भऽ जाएं, तखन तूँ राक्षस सभक संहार भेल बुझि लिहें। हे तात! हमर बहुते पुण्य अछि जे हम श्री रामचंद्रजी केर दूत (अहाँ) केँ नेत्र सँ देखि पेलहुँ॥४॥
दोहा :
तात स्वर्ग आ मोक्ष सुख धरू तुला एक अंग।
तूल्य न से दुनू मिलि जे सुख क्षण सतसंग॥४॥
भावार्थ : हे तात! स्वर्ग और मोक्ष केर सब सुख केँ तराजू केर एक पलड़ा पर राखल जाय, तैयो ओ दुनू मिलिकय (दोसर पलड़ा पर राखल गेल) ओहि सुख केर बराबर नहि भऽ सकैत छैक जे क्षण मात्र केर सत्संग सँ होइत छैक ॥४॥
चौपाई :
प्रबिसि नगर करू सब काजा। हृदय मे राखू कोसलके राजा॥
गरल सुधा रिपु करत मित्रता। गोखुर सिंधु अग्नि भेटत शितलता॥१॥
भावार्थ : अयोध्यापुरी केर राजा श्री रघुनाथजी केँ हृदय मे राखने नगर मे प्रवेश कय केँ सब काज करू। ओकरा लेल विष अमृत भऽ जाइत छैक, शत्रु मित्रता करय लगैत छैक, समुद्र गायक खुर बराबर भऽ जाइत छैक आर अग्नि मे शीतलता आबि जाइत छैक॥१॥
गरुड़ सुमेरु धूलकण भाँति। राम कृपा कय देखथि जाँहि॥
अति लघु रूप धेलनि हनुमान। पैसल नगर सुमिरि भगवान॥२॥
भावार्थ : और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत ओकरा लेल धूरा समान बनि जाइत छैक, जेकरा श्री रामचंद्रजी एक बेर कृपा कय केँ देखि लैत छथिन। तखन हनुमान्‌जी सेहो बहुते छोट रूप धारण कयलनि आर भगवान्‌ केर स्मरण कय केँ नगर मे प्रवेश कयलनि॥२॥
मंदिर मंदिर प्रति कय सोधल। देखलनि जहँ तहँ अगनित जोधक॥
गेला दसानन मंदिर फेरो। अति विचित्र कहाय न अनेरो॥३॥
भावार्थ : ओ एक-एक (प्रत्येक) महल केर खोज कयलनि। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखलनि। फेर ओ रावण केर महल मे गेलाह। ओ अत्यंत विचित्र छल, जेकर वर्णन अनेरो संभव नहि॥३॥
सयन कयल देखलनि कपि ओकरा। मंदिर मे नहि बैदेही केँ देखला॥
भवन एक फेर देखलनि सुहाओन। हरि मंदिर ओतय अलग बनाओल॥४॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी फेर ओहि (रावण) केँ शयन कयने देखलनि, परंतु महल मे जानकीजी नहि देखाइ देलीह। फेर एक सुंदर महल देखाय देलकनि। ओतय (ओहिठाम) भगवान्‌ केर एक अलग मंदिर बनायल गेल छल॥४॥

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