मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
समुद्र पर श्री रामजी केर क्रोध और समुद्र केर विनती, श्री राम गुणगान केर महिमा
दोहा :
विनय नै मानय जलधि जड़ गेल तीनि दिन बीति।
बजला राम सकोप तखन भय बिनु होय न प्रीति॥५७॥
बजला राम सकोप तखन भय बिनु होय न प्रीति॥५७॥
भावार्थ:- एम्हर तीन दिन बीत गेल, मुदा जड़ समुद्र विनय नहि मानैछ। तखन श्री रामजी क्रोध सहित बजलाह – बिना भय के प्रीति नहि होइछ!॥५७॥
चौपाई :
लछुमन बाण सरासन आनू। सोखी बारिधि विशेष कृसानु॥
शठ सँ विनय कुटिल सँ प्रीति। सहज कृपन सँ सुंदर नीति॥१॥
शठ सँ विनय कुटिल सँ प्रीति। सहज कृपन सँ सुंदर नीति॥१॥
भावार्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण आनू, हम अग्निबाण सँ समुद्र केँ सोखि लैत छी। मूर्ख सँ विनय, कुटिल संग प्रीति, स्वाभाविके कंजूस सँ सुन्दर नीति (उदारताक उपदेश),॥१॥
ममता रत सँ ज्ञान कहानी। अति लोभी सँ विरति बखानी॥
क्रोधी शम कामीहि हरिकथा। ऊसर बिया बाउग फल यथा॥२॥
क्रोधी शम कामीहि हरिकथा। ऊसर बिया बाउग फल यथा॥२॥
भावार्थ:- ममता मे फँसल मनुष्य सँ ज्ञान केर कथा, अत्यंत लोभी सँ वैराग्य केर वर्णन, क्रोधी सँ शम (शांति) केर बात और कामी सँ भगवान् केर कथा, एहि सभक वैह टा फल होइत छैक जेना ऊसर मे बिया बाउग कयलाक होइछ (अर्थात् ऊसर मे बिया रोपबाक भाँति ई सब व्यर्थ जाइत छैक)॥२॥
से कहि रघुपति चाप चढ़ेलनि। ई मत लछुमन केँ मन भावलनि॥
संधानल प्रभु विशेष कराला। उठल उदधि हिय अंतर ज्वाला॥३॥
संधानल प्रभु विशेष कराला। उठल उदधि हिय अंतर ज्वाला॥३॥
भावार्थ:- एना कहिकय श्री रघुनाथजी धनुष चढ़ेलनि। ई मत लक्ष्मणजी केर मन केँ खूब नीक लगलनि। प्रभु द्वारा भयानक (अग्नि) बाण संधान कयलनि, जाहि सँ समुद्रक हृदय केर अंदर अग्नि केर ज्वाला उठल॥३॥
मगर साँप मछरी अकुलायल। जरत जंतु जलनिधि जे जानल॥
कनक थार भरि मणि सब नाना। विप्र रूप एला तजि माना॥४॥
कनक थार भरि मणि सब नाना। विप्र रूप एला तजि माना॥४॥
भावार्थ:- मगर, साँप तथा मछरीक समूह व्याकुल भऽ गेल। जखन समुद्र जीव सभकेँ जरैत जनलक, तखन सोनाक थार मे अनेकों मणि (रत्न) सब भरिकय अभिमान छोड़िकय ओ ब्राह्मण केर रूप मे एला॥४॥
दोहा :
कटले पर केरा फरय कोटि जतन कियो सींच।
विनय न माने खगेश सुनु डाँटहि पर नव नीच॥५८॥
विनय न माने खगेश सुनु डाँटहि पर नव नीच॥५८॥
भावार्थ:- (काकभुशुण्डिजी कहैत छथिन -) हे गरुड़जी! सुनू, चाहे कियो करोड़ों उपाय कय केँ सींचय, मुदा केरा त कटले पर मात्र फरैत अछि। नीच विनय सँ नहि मानैछ, ओ डँटले टा पर झुकैत अछि (रास्ता पर अबैत अछि)॥५८॥
सभय सिंधु गहे पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुण मोरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। एहि केर नाथ सहज जड़ करनी॥१॥
गगन समीर अनल जल धरनी। एहि केर नाथ सहज जड़ करनी॥१॥
भावार्थ:- समुद्र भयभीत भऽ कय प्रभु केर चरण पकड़िकय कहलक – हे नाथ! हमर सब अवगुण (दोष) क्षमा कयल जाउ। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- एहि सभक करनी स्वभावहि सँ जड़ छैक॥१॥
अहीं प्रेरित माया उपजेलक। सृष्टि हेतु सब ग्रंथ जे गेलक॥
प्रभु आज्ञा जे जहिना जिबय। से सैह भाँति सुख अछि पाबय॥२॥
प्रभु आज्ञा जे जहिना जिबय। से सैह भाँति सुख अछि पाबय॥२॥
भावार्थ:- अहाँक प्रेरणा सँ माया एकरा सब केँ सृष्टिक लेल उत्पन्न कयलक अछि, सबटा ग्रंथ यैह गेलक अछि। जेकरा लेल स्वामीक जेहेन आज्ञा अछि, ओ ओहि तरहें रहय मे सुख पबैत अछि॥२॥
प्रभु भल कयल मोरा सिख देलहुँ। मर्यादा सेहो अहीं त बनेलहुँ॥
ढोल गँवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥३॥
ढोल गँवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥३॥
भावार्थ:- प्रभु नीक कयलहुँ जे हमरा शिक्षा (दंड) देलहुँ, किन्तु मर्यादा (जीव केर स्वभाव) सेहो अहींक बनायल छी। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री – ई सब शिक्षा केर अधिकारी छी॥३॥
प्रभु प्रताप हम जाइब सुखाइ। उतरत सेना न मोर बड़ाइ॥
प्रभु आज्ञा अकाट्य श्रुति गाइ। करू से बेगि जे अहाँकेँ सोहाइ॥४॥
प्रभु आज्ञा अकाट्य श्रुति गाइ। करू से बेगि जे अहाँकेँ सोहाइ॥४॥
भावार्थ:- प्रभु के प्रताप सँ हम सूखा जायब और सेना पार उतरि जायत, एहि मे हमर बड़ाई नहि अछि (हमरा मर्यादा नहि रहत)। तथापि प्रभु केर आज्ञा अकाट्य है (अर्थात् अहाँक आज्ञा केर उल्लंघन नहि भऽ सकैछ) एना वेद गबैत अछि। आब अपने केँ जे नीक लागय, हम तुरन्त वैह करी॥४॥
दोहा :
सुनथि विनीत वचन अति कहे कृपालु मुसुकाइ।
जेहि विधि उतरय कपि सेना तात से कहू उपाइ॥५९॥
जेहि विधि उतरय कपि सेना तात से कहू उपाइ॥५९॥
भावार्थ:- समुद्र केर अत्यंत विनीत वचन सुनिकय कृपालु श्री रामजी मुस्कुराकय कहलखिन – हे तात! जाहि प्रकारे बानरक सेना पार उतरि जाय, से उपाय बताउ॥५९॥
चौपाई :
नाथ नील नल कपि दुइ भाइ। बच्चहि मे ऋषि आशीष पाइ॥
हुनक छूबल गेल गिरि भारी। हेलत जलधि प्रताप अपारी॥१॥
हुनक छूबल गेल गिरि भारी। हेलत जलधि प्रताप अपारी॥१॥
भावार्थ:- (समुद्र कहलकैक – )) हे नाथ! नील और नल दुइ बानर भाइ छथि। ओ सब बचपने मे ऋषि सँ आशीर्वाद पेने रहथि। हुनकर स्पर्श मात्र कयला सँ भारी-भारी पहाड़ तक अहाँक अपार प्रताप सँ समुद्र पर हेलय लागत॥२॥
हमहुँ हिय धय प्रभु प्रभुताइ। करबय बल अनुमान सहाइ॥
एहि विधि नाथ पयोधि बन्हबाइ। जाहि सँ सुयश लोक तिनु गाइ॥२॥
एहि विधि नाथ पयोधि बन्हबाइ। जाहि सँ सुयश लोक तिनु गाइ॥२॥
भावार्थ:- हमहुँ प्रभु केर प्रभुता केँ हृदय मे धारण कय अपन बल केर अनुसार (जतय तक हमरा सँ बनि पड़त) सहायता करब। हे नाथ! एहि तरहें समुद्र को बन्हबाउ, जाहि सँ तीनू लोक मे अहाँक सुन्दर यश गायल जाय॥२॥
एहि सर मोरे उत्तर तट वासी। हतू नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीड़ा। तुरतहि हरल राम रणधीरा॥३॥
सुनि कृपाल सागर मन पीड़ा। तुरतहि हरल राम रणधीरा॥३॥
भावार्थ:- एहि बाण सँ हमर उत्तर तट पर रहयवला पाप केर राशि दुष्ट मनुष्य केर वध कयल जाउ। कृपालु और रणधीर श्री रामजी समुद्र केर मनक पीड़ा सुनिकय से तुरन्ते हरि लेलनि (अर्थात् बाण सँ ओहि दुष्ट सभक वध कय देलनि)॥३॥
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भेला सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभु सुनायल। चरण बंदि पाथोधि सिधायल॥४॥
सकल चरित कहि प्रभु सुनायल। चरण बंदि पाथोधि सिधायल॥४॥
भावार्थ:- श्री रामजी केर भारी बल और पौरुष देखिकय समुद्र हर्षित होइत सुखी भऽ गेल। ओ ओहि दुष्ट सभक सारा चरित्र प्रभु केँ कहि सुनेलक। फेर चरण केर वंदना कयकेँ समुद्र चलि गेल॥४॥
छंद :
निज भवन गेला ओ सिंधु श्रीरघुपति केँ से मत भावलनि।
ई चरित कलि मल हर यथामति दास तुलसी गावलनि॥
सुख भवन संशय शमन दमन विषाद रघुपति गुण गना।
तजि सकल आश भरोस गावय सुनत संतन्ह शठ मना॥
ई चरित कलि मल हर यथामति दास तुलसी गावलनि॥
सुख भवन संशय शमन दमन विषाद रघुपति गुण गना।
तजि सकल आश भरोस गावय सुनत संतन्ह शठ मना॥
भावार्थ:- समुद्र अपन घर चलि गेल, श्री रघुनाथजी केँ ई मति (ओकर सलाह) नीक लगलनि। ई चरित्र कलियुग केर पाप सभकेँ हरयवला छथि, एकरा तुलसीदास अपना बुद्धि केर अनुसार गेलनि अछि। श्री रघुनाथजी केर गुण समूह सुख केर धाम, संदेह केँ नाश करयवला और विषाद केँ दमन करयवला अछि। अरे मूर्ख मन! तूँ संसार केर सब आशा-भरोसा त्यागिकय निरंतर ई गाबे और सुने।
दोहा :
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुण गान।
सादर सुनहिं से तरहिं भव सिंधु बिना जलयान॥६०॥
सादर सुनहिं से तरहिं भव सिंधु बिना जलयान॥६०॥
भावार्थ:- श्री रघुनाथजी केर गुणगान संपूर्ण सुन्दर मंगल केँ दयवला अछि। जे एकरा आदर सहित सुनत, ओ बिना कोनो जलयान (जहाज अर्थात् अन्य साधनहि) केँ भवसागर केँ तरि जायत॥६०॥
मासपारायण, चौबीसम विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग केर समस्त पाप केँ नाश करयवला श्री रामचरित मानस केर ई पाँचम सोपान समाप्त भेल।
(सुंदरकाण्ड समाप्त)