मिथिलाक विवाह मे ओठंगर केर आध्यात्मिक आ व्यवहारिक स्वरूप

कन्यादान यज्ञ
 
(लेख-संग्रह निरन्तरता मे)
 
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बन्धुगण, एहि सप्ताह ‘दहेज मुक्त मिथिला’ समूह पर हमरा लोकनि ‘कन्यादान’ समान महायज्ञ ऊपर चर्चा कय रहल छी। भरि सप्ताह वैवाहिक सम्बन्ध केर एहि महत्वपूर्ण केन्द्रीकृत विषय ‘कन्यादान’ पर चर्चाक एकमात्र उद्देश्य यैह अछि जे एकर आध्यात्मिक महत्व केँ हम सब कतेक आत्मसात करैत छी आर कतय संशोधन करैत कतेक लाभ-हानि मे फँसैत छी।

 
आजुक युग मे मिथिलावासी अपन खुट्टा (मूल घर) सँ उपटल बुझाइत छथि। नव घर प्रवास क्षेत्र मे बनल अछि किछु लोकक, लेकिन बहुल्यजन अत्यन्त संघर्षक जीवन बाँचय लेल बाध्य छथि। किछु लोक त सौखिया सेहो गामक बीघा बेचि शहरक धूर मे – बहुमंजिली इमारतक एक छोट फ्लैट मे अपन जीवन केँ स्वयं बान्हय लेल आतुर सेहो देखाइत छथि। मुदा एहि सभक असर मिथिलाक चिर-परिचित जीवनचर्या पर पड़ैत छैक जाहि सँ घर-गृहस्थी आजीवन प्रभावित होइत छैक।
 
एहि सँ पहिने कन्यादानक आध्यात्मिक परिभाषा आ व्यवहारिक स्वरूप पर चर्चा कयल जा चुकल अछि। एखन धरि श्रीमती आशा चौधरी, श्रीमती किरण झा, श्रीमती पीताम्वरी देवी संग श्रीमती नीता झा केर एक लेख एहि मादे आबि चुकल अछि, संग्रहित कय ओकरा मैथिली जिन्दाबाद पर प्रकाशित सेहो कयल जा चुकल अछि। ई विदुषी लोकनि अपन-अपन लेख निरन्तरता मे पठौती।
 
एक बहुत खास आध्यात्मिक विध ‘ओठंगर’
 
आइ विशेष चर्चा करब एक अत्यन्त महत्वपूर्व विध ‘ओठंगर’ पर। ओठंगर केर विधान वर्णन सब अपना-अपना ढंग सँ करता, लेकिन हमर अपन मन-मस्तिष्क मे एहि विधक बहुत गूढ अर्थ लगैत रहल अछि। आउ एक नजरि दियौक एहि विध परः
ओठंगर कुटनाइ
 
सामग्री – उखड़ि-समाँठ, लाल रंग सँ रांगल धान, पियर ताग
 
*आठ (कतहु-कतहु पाँच) विवाहित ब्राह्मण संग वर समाठ पकड़ि उखड़ि मे ललका धान केँ कुटता।
*नौआ हिनका लोकनि केँ पियर ताग (जनेऊ) सँ बान्हि देतनि।
*पंडितजी सहस्रशीर्षा पुरुष अर्थात् भगवान् विष्णु केर मूर्ति विग्रह केँ पुरुष सुक्त मार्फत पाठ करता आ कुल ३ (कतहु-कतहु ७) बेर दोहरबैत सब कियो मंत्रक अन्त भेला पर समाँठ सँ उखड़ि मे चोट दैत ओहि ललका धान केँ कुटता।
*एहि तरहें कुटल धान केँ धोतीक खूट मे बान्हल जायत जाहि सँ वर आ कन्याक गठजोड़ हेतनि।
*नौआ द्वारा प्रयुक्त बन्हनवला डोरी सेहो राखल जायत जे कन्यादान केर समय मे ओहि मे आमक पल्लव बाँधि वर आ कनियाँ दुनू गोटेक हाथ मे बंधन पड़त।
 
गठजोड़
 
*जाहि धोती मे ओठंगर केर कुटल धान बान्हल गेल अछि ओ वरक कान्ह पर राखल जायत, ओकरे बन्हन कन्याक देह पर रहल चुनरी (ओढनी) सँ बान्हल जायत।
 
स्नेहबंधन
 
*ओठंगर केर कुटल धान केँ आमक पल्लवक पात मे पुरिया बनाकय ओठंगर मे उपयोग मे आनल गेल पियर ताग जाहि सँ वर-ब्राह्मण बन्हायल छलाह ताहि सँ बान्हल पुरिया वर आ कन्याक कलाई पर बान्हल जायत।
 
घुँघट
 
तदोपरान्त घुँघट पड़त जाहि मे वरक पिता (अभिभावक) द्वारा कन्या केँ तीन बेर झाँपल जेतनि, वर तीनू बेर झाँपन उघारता आर एहि तरहें वरक पिता अपन पुतोहु केँ द्रव्य-सोहाग आदि सँ आशीर्वाद दय स्वीकारथिन।
 
एतय हम सब पुरुष सुक्त पर सेहो मनन करी –
 
ऋग्वेद  १०।९०।०१ सँ १६ केर श्लोक केँ पुरुष सुक्त कहल जाइत अछि। एहि मे भगवान् विष्णु केर मूर्तिक विग्रह पर आध्यात्मिक चिन्तन कयल जाइछ। विवाह मे जमाय केँ विष्णु भगवान् मानि कन्यादान करबाक मूल आध्यात्मिक स्वरूप पर पहिने चर्चा कयल जा चुकल अछि। आब पुरुषसुक्त केर गायन करैत उखड़ि मे ललका धान केँ कुटब, जमायरूपी विष्णु केँ विष्णुवत् एक सामाजिक शिक्षा देब होइछ जे आब गृहस्थीक धर्म सेहो एहिना श्रमपूर्वक सपत्नीक अहाँ पूर्ण करब। सदिखन अपन लक्ष्मीरूपा पत्नी प्रति जिम्मेदार आ नवजीवनक सारा सिद्धान्त केँ पूर्ण करबाक लेल कृतसंकल्पित रहब।
 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् ॥१॥
 
भावार्थ – पुरुष-सूक्त (पुरुष) पुर मे व्यापक शक्तिवाला राजा केर तुल्य समस्त ब्रह्माण्ड मे व्यापक परम पुरुप परमात्मा (सहस्र-शीर्षः) हजारों शिरवाला छी। (सः) ओ (भूमि) सब जगत् केर उत्पादक, सर्वाश्रय प्रकृति केँ ( विश्वतः धृत्वा ) सब दिश सँ, सब प्रकार सँ धारण कय, व्यापिकय (देश अंगुलम् अति अतिष्ठत् ) दश अंगुल अतिक्रमण कय केँ विराजैत छी। अंगुल एतय इन्द्रिय वा देह केर उपलक्षण थिक, अर्थात् ओ दश इन्द्रिय केर भोग और कर्म केर क्षेत्र सँ बाहर छी। ओ नहिये कर्म-बन्धन मे बद्ध (बान्हल) रहैत छथि और नहिये मन केर विषय मे। समस्त संसार केर शिर हुनक शिर थिक और समस्त संसार केर चक्षु और चरण सेहो हुनकहि चक्षु और चरणवत् अछि। सर्वत्र हुनकहि दर्शन शक्ति और गतिशक्ति कार्य कय रहल अछि।
 
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
 
भावार्थ – (पुरुषः एव इदं सर्वम्) ई सब किछ ओ पुरुष टा छथि। ( यद् भूतं यत् च भव्यम् ) ई जे भूत अर्थात् उत्पन्न और जे भव्य अर्थात् आगू सेहो उत्पन्न होयवला कार्य और कारण अछि। (उत्त) और ओ (अमृतत्वस्य ईशानः) अमृतस्वरूप मोक्ष केर स्वामी छथि, (यत्) जे (अन्नैन) अन्न सँ (अति रोहति) सर्वोपरि छथि। वैह समस्त प्राणी केर अन्न अर्थात् भौग्य कर्मफल केर स्वामी भऽ कय ओहि सब पर वश कयने छथि।
 
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
 
भावार्थ – (अस्य महिमा एतावान्) एहि जगत् केँ महान् साम एतबे अछि मुदा (पूरुषः) ओ सर्वशक्तिमान् एहि जगत् मे व्यापक प्रभु (अतः ज्यायान्) एहि सँ कहीं पैघ छथि। (विश्वा भूतानि) समस्त उत्पन्न पदार्थं हिनकहि (पादः) एक चरणवत् अछि। (अस्य त्रिपाद) एहि केर तीन चरण (‘दिवि) प्रकाशमय स्वरूप मे (अमृतं) अविनाशी अमृत रूप अछि।
 
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पूरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
 
भावार्थ – (त्रिपात् पूरुषः) तीन चरणवाला, जे पूर्व अमृत स्वरूप कहल गेल अछि, वैह (ऊर्ध्वः ) सब सँ ऊपर (उत् ऐव) सर्वोत्तम रूप सँ जानल जाता छथि, (अस्य पादः पुनः इह अभवत्) एकरे व्यक्त स्वरूप-एकचरणवत् एतय जगत रूप सँ प्रकट अछि। (ततः) वैह व्यापक प्रभु टा (विश्वः वि अक्रम) सर्वत्र व्यापैत छथि। (स:अशन-अनशने अभि) जे ‘अशन’ अर्थात् भोजन व्यापार सँ युक्त प्राणिगग, चैतन और अनशन’ अर्थात भोजन नहि करयवला अचेतन, जड़ अथवा व्यापक और अव्यापक पदार्थ सत्र मे वैह विद्यमान छथि।
 
(विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमैक्रॉन स्थितो जगत् ॥ गीता ॥
हमहीं जगत् भरि केँ विशेष रूप सँ थाम्हिकय बैसल छी। हमर एक अंश मे जगत् स्थिर अछि।)
 
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥१७॥
 
भावार्थ – ( तस्मात् ) ओहि सँ (विराट् अजायत) विराटु अर्थात् ब्रह्माण्ड रूप महान् शरीर समस्त शरीरक समष्टि देह विविध पदार्थ सँ प्रकाशित, उत्पन्न भेल, (विराजः अधि पुरुषः) ओहि विराट् ब्रह्माण्डमय देह पर अध्यक्ष रूप सँ ‘पुरुष’ देह मे आत्मा, वा नगर मे राजाक तुल्य, ब्रह्माण्ड मे स्वामीक तुल्य ओ परम पुरुष छथि। ( स जातः) ओ व्यक्त भऽ कय (अति अरिच्यत) सब सँ पैघ होइत छथि। ओ परमेश्वर समस्त प्राणी सँ अतिरिक्त, सब सँ पृथक् रहैत छथि। (पश्चाद् भूमिम्) विराट् केर प्रकट भेला उपरान्त, प्रभु भूमि केँ उत्पन्न कयलनि ( अधो पुरः) ओकर अनन्तर नाना शरीर उत्पन्न कयलनि। ॥इति सप्तदशो वर्गः ॥
 
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥
 
भावार्थ – ( देवाः) विद्वान् मनुष्य (यद् यज्ञ) जाहि यज्ञ केँ (इविपी पुरुषेण) पुरुष रूप साधन सँ ( अतन्चत) प्रकट करैत छथि। (अन्य) ओहि यज्ञ केर (वसन्तः आज्यम् आसीद ) वसन्त घृत केर तुल्य रहल, (ग्रीष्म इध्मः) ग्रीष्म ऋतु इंधन अर्थात् जरैत लकड़ीक तुल्य रहल, और (शरद हावः) शरद् ऋतु हवि केर तुल्य रहल छल। ऋतु सँ ब्रह्माण्ड मे संवत्सर यज्ञ भऽ रहल अछि। जेना घृत सँ अग्नि अधिक दीप्त होइत छैक ताहि प्रकारे वसन्त केर अनन्तर प्रेम अधिक तीव्र भऽ जाइत छैक। शरद फलप्रद होयबाक छैक, हविरूप अछि। सूर्य केर रश्मि ‘दैव’ थिक जे संवत्सर यज्ञ केँ करैत अछि।
 
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥
 
भावार्थ – (तं यज्ञं ) ओहि यज्ञ रूप सर्वपूज्य, (अग्रतः जातम्) सब सँ पहिने प्रकट भेल, (पुरुषं) पुरुष केँ (बहिपि) हृदयान्तरिक्ष मे (प्रौक्षन्) यज्ञ मे दीक्षित पुरुष केर तुल्य टा अभिषिक्त करैत अछि। (देवाः) विद्वान् गण, (साध्याः) साधनावला, आर (ये च ऋषयः) जे ऋषिगण सब छथि ओ सब (तेन ) ओहि पुरुष केर द्वारा (अयजन्त) उपासना करैत छथि।
 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥८॥
 
भावार्थ – (सर्वहुतः) समस्त जगत् केँ अपना भीतर आहुतिवत् लेनिहार, सर्वपूज्य (यज्ञाद) यज्ञरूप (तस्माद्) ओहि परमेश्वर सँ ( पृपत् आज्यं संभृतम्) तृप्तिकारक, सर्वसेचक, वर्धक, प्राणदायक अन्नादि और घृत, मधु, जल, दुग्ध आदि सेहो (सं-भृतम्) उत्पन्न भेल अछि। ( तान् पशून् चक्रे) ओ परमेश्वर टा एहि पशु, प्राणी केँ सेहो बनबैत छथो जे (वायव्यान्) वायु मे उड़यवला पक्षी छी। (आरण्यान्) जंगल मे रहयवला सिंह आदि (ये च ग्राम्याः) और जे पशु ग्राम केर गौ भैंस आदि अछि।
 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥
 
भावार्थ – (तस्मात्) ओहि (यज्ञान), सर्वोपास्य यज्ञस्वरूप (सर्व-हुत) सर्वं जगत्-मय विराट् रूप परम पुरुष केँ अपने मे धारण करयवला परमेश्वर सँ (ऋचः) ऋचा, (सामानि) सामगुण (जज्ञिरे) उत्पन्न भेल। (छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्) ओहि सँ छन्द उत्पन्न भेल। (तस्माद) ओहि सँ ( यजुः अजायत ) यजुर्वेद उत्पन्न भेल। ‘छन्दांसि’-पद सँ अथर्ववेद केर ग्रहण थिक । (दया०)
 
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावोः ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥१०॥१८॥
 
भावार्थ – ( तस्माद् अश्वाः अजायन्त) ओहि सँ अश्व उत्पन्न भेल और ओहि सँ ओ पशु सेहो उत्पन्न भेल (ये के च) जे कियो (उभयदितः) दुनू जबड़ा मे दाँतवला अछि। (तस्मात्) ओहि सँ (गावः ह जज्ञिरे) गौ आदि जन्तु सेहो उत्पन्न भेल, ( तस्मात् अजावयः जाताः) ओहि सँ बकरी और भेड़ आदि छोट पशु सेहो पैदा भेल । इत्यष्टादशो वरः॥
 
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ॥११॥
 
भावार्थ – ( यत्) जे (पुरुष) पुरुष केँ (वि अदधुः) विशेष रूप सँ वर्णन कयलक तँ (कतिधा) कतेको प्रकार सँ (विसअकल्पयन्) ओ विशेष रूप सँ कल्पित कयलक अर्थात् ओहि पुरुष केर कतेको भाग मे विभक्त कयलक ( अस्य मुखम् किम्) ओहि पुरुष केर मुख भाग कि कहायल, (बाहू कौ) दुनू बाहू कि कहायल और (करू) जाँघ कि कहायल और (पादौ की उच्येते) दुनू पैर कि कहायल – एहि समस्त प्रश्नक उत्तर ऐगला ऋचा मे दैत छी –
 
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
 
भावार्थ – ( ब्राह्मणः अस्य मुखम् ) ब्राह्मण एकर मुख ( आसीत् ) थिक। (राजन्यः बाहूकृतः ) राजन्य एकर दुनू बाँहि थिक। ( यद् वैश्यः ) जे वैश्य छी (तत्) ओ ( अस्य ऊरू) हुनक जाँघ और ओ पुरुष (पद्म्यां ) पैरक भाग सँ (शूद्रः अजायत) शूद्र बनल । अर्थात् जाहि तरहें समाज मे ब्राह्मण प्रमुख, क्षत्रिय बलशाली और वैश्य संग्रही और शुद्र मेहनत करयवला होइत अछि ताहि प्रकारे शरीर मे सेहो देहवान् आत्मा केर भिन्न – भिन्न भाग सभक कल्पना विद्वान लोकनि कयलनि अछि। ओहि मे शिर भाग गला तक ब्राह्मण केर तुल्य ज्ञान संग्रह करयवला और दोसर केँ ज्ञान मार्ग सँ जायवला अछि। बाहु और छाती, शत्रु केँ मारय लेल, शरीर केँ बचाबय और वीर कर्म करय लेल अछि और पेट तथा जांघ केर भाग अन्न-भोजन केर संग्रह वैश्य केर समान करैत और शरीर केर अन्य अंग सभ केँ उचित रूप मे पहुँचाबैत अछि, एहि तरहें पैर शरीर केँ अपन ऊपर मज़दूर वा सेवकक समान उठबैत (ढोबैत) और ओकर आज्ञा पालन करैत अछि। एहि व्याख्यान सँ जनसमुदाय और शरीर मे अंग-समुदाय केर तुलना कय केँ चारू वर्ण केँ कर्तव्य सेहो वेद द्वारा कहल गेल अछि।
 
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
 
भावार्थ –  (मनसः) मन अर्थात् मनन करबाक समर्थ्य सँ (चन्द्रमा जातः) चन्द्र भेल । (चक्षोः ) रूप दर्शन केर सामर्थ्य सँ ( सूर्यः अजायते) सूर्य भेल । (मुखाव इन्द्रः च अग्निः च ) और मुख सँ इन्द्र और अग्नि, विद्युत् और आगि अर्थात् तेजस्तव भेल । और (प्राणाद) प्राण सँ (वायुः अजायत) वायु भेल।
 
जाहि प्रकारे पहिने दुइ मन्त्र मे पुरुष, सदेह आत्मा केर तुलना विशाल जन समुदाय केर व्यवस्था सँ कयल गेल अछि तहिना ओकर तुलना विशाल ब्रह्माण्ड सँ सेहो कयल गेल अछि। अर्थात् जाहि प्रकारे जगत् रूप विराट देह मे चन्द्र छथि तहिना शरीर मे मन अछि। जाहि प्रकारे चन्द्र मुख्य सूर्य सँ प्रकाशित भऽ कय शीतल प्रकाश दैत अछि रात्रि केँ अन्धकार मे सेहो ज्योति दैत अछि ओहिना आत्मा केर चैतन्य सँ मन चेतन अछि जे मनोमय-संकल्प विकल्पात्मक ज्योति पार्थिव निश्चेतन देह मे सर्वत्र प्रकाश करैत अछि। जाहि प्रकारे विशाल जगत् मे सूर्य महान् ज्योति थिक और बाह्य जगत् केँ प्रकाशित करैत अछि, ओहि तरहें देह मे चक्षु छैक जे बाह्य स्थूल जगत् कँ प्रकाशित करैछ, ओकर ज्ञान हमरा लोकनि केँ प्रदान करैत अछि। चक्षु सँ सब ज्ञानेन्द्रिय केँ ग्रहण करबाक चाही जे हमरा सब केँ अनेको पदार्थ केर ज्ञान करेबाक अछि। जाहि प्रकारे जगत् मे सूर्य केर अतिरिक्त सेहो अग्नि और विद्युत् ई दुइ तेज विद्यमान अछि ओहिना देह मे सेहो दू ज्योति अछि जे दुनू मुख मे विद्यमान अछि। एक तऽ इन्द्र अर्हतत्व वा ओज, जे मुखड़ा पर कान्ति रूप सँ चेतना रूप सँ रहैत अछि, दोसर अग्नि जे वाणी और पेट केर अग्नि केर रूप मे विद्यमान रहैत अछि। एहि तरहें जेना पञ्चभूतभय विराट् जगत् मे वायु अन्तरिक्ष मे बहैत अछि ओहि तरहें पञ्चभूतमय एहि देह-जगत मे प्राण थिक। ई शरीर केर मध्य भाग छाती, फेफड़ा मे गति सँ और जल, रुधिर केर हित हेतु देह भरि मे व्यापैत अछि। एहि तरहें महान् आत्मा, प्रभु-परमेश्वर केर एहि आत्मा केर तुल्य टा मन, चक्षु, मुख, प्राण आदि शक्ति केर कल्पना कय केँ हुनका सँ विराट् जगत् मे चन्द्र, सूर्य, इन्द्र (विद्युत) अग्नि, वायु आदि महान शक्तिमय तत्व सब केर उत्पत्ति या प्रकट होयबाक व्यवस्था जनबाक चाही।
 
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥१४॥
 
भावार्थ – (नाम्याः अन्तरिक्षम् आसीत् ) नाभि सँ अन्तरिक्ष केँ कल्पित कयल गेल अछि। (शीर्ष्णो) सिर भाग सँ (चौः सम् अवर्तत) विशाल आकाश कल्पित भेल, ( पद्भ्यां भूमिः) पैर सँ भूमि और ( श्रोत्रात्तथा) श्रोत्र अर्थात् कान सँ दिशादिक (तथा लोकान् अकल्पयन्) और एहि तरहें समस्त लोक केर कल्पना कयल गेल अछि।
 
एतय सेहो पूर्व मन्त्र केर समान टा विराट् जगन्मय देह केँ अन्तरिक्ष, घौ, भूमि, दिशा और अन्य लोक सँ तुल्य नाभि, शिर, पैर, श्रोत्र इन्द्रिय तथा अन्यान्य, अंग सभक कल्पना जनबाक चाही। तहिना जगत् केर एहि ३ अंग केँ देखिकय परमेश्वर, महान् आत्मा केर ओ २ अनेक शक्ति वा सामर्थ्य केँ मात्र हुनकर मूल कारण वा आश्रय जनबाक चाही।
 
(सन्दर्भः लोक-संमित पुरुष और पुरुष-सम्मित लोक केर विस्तृत वर्णन देखू – चरकसंहिता–शारीरस्थान शरीरविचयाध्यय० ५)
 
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥१५॥
 
भावार्थ – देवयज्ञ केर वर्णन करैत अछि। (यत्) जे (यज्ञं तन्वानाः) ‘यज्ञ, परस्पर संगति करैत ( देवाः ) दैव, इन्द्रिय वा पञ्चभूतादि, ( पशुम्) द्रष्टा, चैतन (पुरुषं) पुरुष केँ (अबध्नन्) बान्हि लैत छथि। ताहि समय (अय) एहि आत्मा चेतन केर (सप्त परिधयः) सात परिधि; तथा (त्रिः सप्त समिधः कृताः) २१ समिधा बनल अछि।
 
ई अध्यात्म यज्ञ केर स्वरूप थिक, जाहि सँ सूक्ष्म पञ्च तन्मत्रा सभ टा इन्द्रिय रूप देव भऽ कय परस्पर संगति और शक्ति केर आदान-प्रदान लेल यज्ञ रचि रहल छी। एहि तरहें विशाल ब्रह्माण्ड मे सेहो विद्वान लोकनि एक महान यज्ञ केर रचना व कल्पना कयलनि अछि। ओहि मे वैह परम प्रभु सर्वद्रष्टा पुरुष केँ योगी, ध्यानी जानि अन्तःकरण मे ध्यान योग सँ बान्हल जाइत अछि। अथवा पञ्चभूत रूप देव महद अहंकारादि विकृति ई सब ओहि प्रभु व्यापक पुरुष यानि सर्वोपरि द्रष्टा साक्षी रूप सँ बान्हैत, अर्थात् अपना ऊपर सर्वोपरि शासक प्रभुक अध्यक्षता केँ व्यवस्थित करैत – नियमबद्ध मानैत अछि। एहि तरहें यद्यपि परमेश्वर जीव केर समान बद्ध नहि छथि तैयो धर्मात्मा राजा केर तुल्य जगत केँ नियम मे बान्हैत ओ स्वयं सेहो ओहि नियम मे बान्हल रहैत छथि।
 
राजा यदि प्रजावर्ग केँ बान्हैत छथि त प्रकारान्तर सँ प्रजावर्ग राजा केँ सेहो व्यवस्थित करैत छथि। कियैक तँ ई व्यवस्या परस्परापेक्षित होइछ। ओहि दशा मे एहि ब्रह्माण्ड केर सात परिधि छैक। गोल चीज़ केर चारू दिश एक सूत सँ नापिकय जतेक परिमार्ग होइत छैक ओकरा परिधि कहल जाइत छैक से जतेक ब्रह्माण्ड मे लोक अछि, ताहि सब पर ईश्वर द्वारा सात-सात आवरण बनायल गेल अछि। एक समुद्र, दोसर त्रसरेणु, तेसर मेघ मण्डल अर्थात् ओतुका वायु, चाहिरम वृष्टि जल, तेकरा ऊपर पांचम वायु, छठम अत्यन्त सूक्ष्म धनंजय वायु, और सातम सूत्रात्मा वायु जे बहुत सूक्ष्म होइछ। यैह सात आवरण एक दोसरक ऊपर विद्यमान अछि। (दया०)।
 
एहि समस्त ब्रह्माण्ड केर घटक २१ पदार्थ २१ समिधा केर तुल्य अछि। प्रकृति, महान्, बुद्धि आदि अन्तःकरण और जीव, ई एक सामग्री परम सूक्ष्म रूप मे अछि। एकर दश इन्द्रियगण, श्रोत्र,  त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका, वाणी, दुइ चरण, दुइ हस्त, गुदा और उपस्य और पांच तन्मात्रा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और पांच भूत पृथिवी, आपः, तेज, वायु और आकाश । ई सब मिलिकय २१ सामग्री ब्रह्माण्ड महायज्ञ केर २१ समिधा सब थिक। एकर अवयव रूप सँ अनेक तत्व अछि। एहि सब मे दैव केँ, विद्वान्गण परमेश्वर टा केँ सर्वसंचालक, सर्वघटक रूप सँ ध्यान करैत छथि आर हुनकहि बान्हैत अर्थात् ओहि व्यवस्था केँ नियमित करैत छथि।
एकरे अनुकरण मे ई वैदिक यज्ञ सेहो प्रवृत्त होइत छैक — यज्ञ मे सात परिधि होइत छैक, ऐष्टिक आहवनीय केर तीन और उत्तर वेदी केर तीन और सातम आदित्य ‘परिधि’ मानल जाइत छैक। और २१ समिधा, कहि कय बनायल जाइत छैक जे संवत्सर यज्ञ मे १२ मास, ५ ऋतु, ३ लोक और २१म आदित्य एहि केर प्रतिनिधि होइत छथिन। ओ जाहि प्रकारे सर्वद्रष्टा, सूर्य रूप पुरुष केँ व्यवस्थित करैत छथि ताहि प्रकारे अध्यात्म यज्ञ मे आत्मा केँ और यज्ञ मे पशु केँ बान्हल छथि।
 
संवत्सर यज्ञ कोन तरहें वेद द्वारा बतायल गेल अछि – एतद्विषयक यजुर्वेद में ‘यद पुरुषेण०’ आदि मन्त्र विशेष भेटैत अछि।
 
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥१६॥
 
भावार्थ – ( यज्ञेन, यज्ञम् अयजन्त ) यज्ञ सँ यज्ञ केर संगति करैत छी और यज्ञ, आत्मा सँ मात्र यज्ञ, सर्वोपास्य प्रभु केर उपासना करैत छी। कियैक कि (तानि) वैह टा ( धर्माणि ) संसार केँ धारण करयवला अनेक बल (प्रथमानि) सर्वश्रेष्ठ, सब केर मूलकारण रूप सँ (आसन) होइत छथि। (ते ह) और वैह टा निश्चय सँ (महिमानः) महान् सामर्थ्य वला भऽ कय (नाकं सचन्त ) परम सुख, आनन्दमय ओहि प्रभु केँ सेवैत छथि, और प्राप्त करैत छथि (यत्र) जाहि मे (पूर्वे) पूर्व केर, ज्ञान सँ पूर्ण, (साध्याः) साधन सँ सम्पन्न और अनेक साधनवला (देवाः) ज्ञान सँ प्रकाशित, सब केँ ज्ञान दयवला, विद्वान् जन (सन्ति ) रहैत छथि। वैह प्रभु केर उपासक, मुक्त भऽ कय मोक्ष केँ भोगैत छथि। इत्येकोनविंशो वर्गः ॥ इति सप्तमोऽनुवाकः॥
(साभारः भाष्यकार जयदेव शर्माजी, उपदेशक आचार्य धर्मवीरजी – ‘अवत्सार केर इन्टरनेट पर उपलब्ध हिन्दी भाष्य केर अनुवाद प्रवीण नारायण चौधरी)
 
हमर नोटः
पुरुष सुक्त केर अनुवाद केँ एखन बेर-बेर मनन कयलाक बाद बेहतरीन अनुवाद राखि सकबाक अनुभूति भेल अछि। तथापि, एक प्रयास छी। त्रुटि लेल क्षमाप्रार्थी छी।
श्री अखिलानन्द झा ‘रमण’ जी द्वारा पुरुष सुक्त मे शुद्धीकरणक आवश्यकता रहबाक बात कहैत पुस्तकक श्लोक-अन्वय-अर्थ सहितक फोटो पठेलाक बाद एक अन्य लिंक सँ एहि तरहें उतारल अछिः
( शु०यजु० ३१ । १-१६) ॥ पुरुषसूक्त (क) ॥
 
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिᳬसर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥
 
उन परम पुरुष के सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि (पूरे स्थान) — को सब ओर से व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं ॥ १ ॥
 
पुरुष एवेदᳬ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥
 
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं । इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्नसे ( भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर-शासक) हैं ॥ २ ॥
 
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥
 
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है । वे अपने इस विभूति-विस्तार से भी महान् हैं । उन परमेश्वर को एकपाद्विभूति (चतुर्थाश)— में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं ॥ ३ ॥
 
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४ ॥
 
वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ मायाका प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय— उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं ॥ ४ ॥
 
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥
 
उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ । वे परम पुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) — रूप से उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए । बाद में उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये ॥ ५ ॥
 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६ ॥
 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुष से उसी ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये ॥ ६ ॥
 
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाᳬसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७ ॥
 
उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए ॥ ७ ॥
 
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८ ॥
 
उसी से घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ उत्पन्न हुईं । वे दोनों ओर दाँतोंवाले हैं ॥ ८ ॥
 
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९ ॥
 
देवताओं, साध्यों तथा ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञपुरुष को कुशा पर अभिषिक्त किया और उसी से उसका यजन किया ॥ ९ ॥
 
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १० ॥
 
पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं ? उसका मुख क्या था ? उसके बाहु क्या थे ? उसके जंघे क्या थे ? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं ? ॥ १० ॥
 
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या शूद्रो अजायते ॥ ११ ॥
 
ब्राह्मण इसका मुख था (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओं से क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुष की जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरों से शूद्रवर्ण प्रकट हुआ ॥ ११ ॥
 
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायते ॥ १२ ॥
 
इस परम पुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए, कानोंसे वायु और प्राण तथा मुखसे अग्निकी उत्पत्ति हुई ॥ १२ ॥
 
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳬ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः ओत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १३ ॥
 
उन्हीं परम पुरुष की नाभिसे अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं । इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए ॥ १३ ॥
 
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४ ॥
 
जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद् हवि थी ॥ १४ ॥
 
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥
 
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशु को बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे । इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएँ बनीं ॥ १५ ॥
 
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६ ॥
 
( शु०यजु० ३१ । १-१६) देवताओं ने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुष का यजन (आराधन) किया । इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं। (अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतनात्मकरूप विराट् पुरुष को करबद्ध स्तुति करते हैं ।) ॥ १६ ॥
 
॥ पुरुषसूक्त (ख) ॥
 
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥ ॥ १ ॥
 
ॐ पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥
 
यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, यह सब वे परमपुरुष ही हैं । इसके अतिरिक्त वे अमृतत्व (मोक्षपद)-के तथा जो अन्न से (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर–शासक) हैं । ॥ २ ॥
 
ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥
 
यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है । वे अपने इस विभूति-विस्तार से महान् हैं । उन परमेश्वर की एकपाद विभूति (चतुर्थांश) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं। ॥ ३ ॥
 
ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥ ४ ॥
 
वे परमपुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाविभूति में प्रकाशमान हैं । (वहाँ माया का प्रवेश न होने से उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है।) इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है । अर्थात् एक पाद से वे ही विश्वरूप भी हैं । इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं । ॥ ४ ॥
 
ॐ तस्माद् विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥ ५ ॥
 
उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ । वे परमपुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) हुए । वह (हिरण्यगर्भ) उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुआ । बाद में उसीने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये । ॥ ५ ॥
 
ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ ६ ॥
 
देवताओं ने उस पुरुष के शरीर में ही हविष्य की भावना करके यज्ञ सम्पन्न किया । इस यज्ञ में वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु इन्धन और शरदऋतु हविष्य (चरु-पुरोडाशादि विशेष हविष्य) हुए । अर्थात् देवताओं ने इनमें यह भावना की । ॥ ६ ॥
 
ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये* ॥ ७ ॥
 
सबसे प्रथम उत्पन्न उस पुरुष को ही यज्ञ में देवताओं, साध्यों और ऋषियों ने (पशु मानकर) कुश के द्वारा प्रोक्षण करके (मानसिक) यज्ञ सम्पूर्ण किया । ॥ ७ ॥
 
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥ ८ ॥
 
उस ऐसे यज्ञ से जिसमें सब कुछ हवन कर दिया गया था, प्रशस्त घृतादि (दूध, दधि प्रभृति) उत्पन्न हुए । इस उस यज्ञरूप पुरुष ने ही वायु में रहनेवाले, ग्राम में रहनेवाले, वन में रहनेवाले तथा दूसरे पशुओं को उत्पन्न किया । (तात्पर्य यह कि उस यज्ञसे नभ, भूमि एवं जल में रहनेवाले समस्त प्राणियों की उत्पत्ति हुई और उन प्राणियों से देवताओं के योग्य हवनीय प्राप्त हुआ।) ॥ ८ ॥
 
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ॥ ९ ॥
 
जिसमें सब कुछ हवन किया गया था, उस यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद प्रकट हुए । उसीसे गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए । उसीसे यजुर्वेद की भी उत्पत्ति हुई ॥ ९ ॥
 
ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ १० ॥
 
उस यज्ञपुरुष से घोड़े उत्पन्न हुए । इनके अतिरिक्त नीचे-ऊपर दोनों ओर दाँतोंवाले (गर्दभादि) भी उत्पन्न हुए । उसीसे गौएँ उत्पन्न हुईं और उसीसे बकरियाँ और भेड़े भी उत्पन्न हुईं ॥ १० ॥
 
ॐ यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्यते ॥ ११ ॥
 
देवताओं ने जिस यज्ञपुरुष का विधान (संकल्प) किया, उसको कितने प्रकार से (किन अवयवोंके रूपमें) कल्पित किया, इसका मुख क्या था, बाहुएँ क्या थीं, जंघाएँ क्या थीं और पैर कौन थे—यह बताया जाता है ॥ ११ ॥
 
ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ १२ ॥
 
ब्राह्मण इसका मुख था । (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए।) क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बना । (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए।) इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वहीं वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए, और पैरों से शूद्र-वर्ण प्रकट हुआ ॥ १२ ॥
 
ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत ॥ १३ ॥
 
इस यज्ञपुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए । नेत्रों से सूर्य प्रकट हुए । मुख से इन्द्र और अग्नि तथा प्राण से वायु की उत्पत्ति हुई ॥ १३ ॥
 
ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ १४ ॥
 
यज्ञपुरुष की नाभि से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ । मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ । पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ हुईं । इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित हुए ॥ १४ ॥
 
ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५ ॥
 
देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशु का बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे । इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकारसे) समिधा बनी ॥ १५ ॥
 
ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्त मादित्यवर्णं तमसस्तु पारे ।
सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते * ॥ १६ ॥
 
तमस् (अविद्यारूप अन्धकार)-से परे आदित्य के समान प्रकाशस्वरूप उस महान् पुरुष को मैं जानता हूँ । सबकी बुद्धि में रमण करनेवाला वह परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में समस्त रूपों की रचना करके उनके नाम रखता है; और उन्हीं नामों से व्यवहार करता हुआ सर्वत्र विराजमान होता हैं ॥ १६॥
 
* १६ वाँ तथा १७ वाँ–ये दोनों मन्त्र ऋग्वेदकी प्रचलित प्रतियोंके पुरुषसूक्तमें नहीं मिलते, परंतु पुरुषसूक्तके पृथक् प्रकाशित कई संस्करणों में मिलते हैं। मूल उपनिषद् भी इनका संकेत हैं। ये मन्त्र पारमात्मिकोपनिषद्’, ‘महावाक्योपनिषद्’ तथा ‘चित्युपनिषद् में आये हैं । १७ वाँ मन्त्र ‘तैत्तिरीय आरण्यक’ में भी है ।
 
ॐ धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः ।
तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय ॥ १७ ॥
 
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, इन्द्र ने चारों दिशाओं में जिसे (व्याप्त) जाना था, उस परम पुरुष को जो इस प्रकार (सर्वस्वरूप) जानता है, वह यहीं अमृतपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग निज-निवास (स्वस्वरूप या भगवद्धाम)-की प्राप्ति का नहीं है ॥ १७ ॥
 
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १८ ॥
 
[ऋग्वेद, मुद्गलोपनिषद् ] देवताओं ने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया । इस यज्ञ से सर्वप्रथम सब धर्म उत्पन्न हुए । उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोक का सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं ॥ १८ ॥
 
(उपनिषद् इस मन्त्रमें मोक्ष-निरूपणका उपसंहार भी निरूपित-निर्दिष्ट करता है। अत: मोक्ष-निरूपणके लिये श्रुतिका अर्थ इस प्रकार होना चाहिये सम्पूर्ण कर्म, जो भगवदर्पणबुद्धिसे भगवान्के लिये किये जाते हैं, यज्ञ हैं। उस कर्मरूप यज्ञके द्वारा सात्त्विक वृत्तियोंने उन यज्ञस्वरूप भगवान्का युज़न-पूजन किया। इसी भगवदर्पणबुद्धिसे किये गये यज्ञरूप कर्मोंके द्वारा ही सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुएधर्माचरणकी उत्पत्ति भगवदर्पणबुद्धिसे किये गये कर्मोंसे हुई । इस प्रकार भगवदर्पणबुद्धिसे अपने समस्त कर्मोक द्वारा जो भगवान्के यजनरूप कर्मका आचरण करते हैं, वे उस भगवान्के दिव्यधामको जाते हैं, जहाँ उनके साध्य–आराध्य आदिदेव भगवान् विराजमान हैं।)
 
 
हरिः हरः!!