साहित्यः लघुकथा
– चन्दना दत्त
दहेजक कार
आय रानीक मोनमे बिहाड़ि उठि रहल छल । रातिखन सबके खुआ पियाक॔ ओ बरतन बासन मांजि रहल छलै ता खुसुर फुसुर सुनि ओ कनि कान देलक सासुक कोठरी दिस।
“हे, काल्हि तक जं एकर बाप पाय नहि पठाओत त॔ कार कोना लेब?”
“कि करबै मां, कतहु सं जोगार करय छी, ओकर मायबाप के औकाते कते छैक?”
“हे बौआ से सब नहि हैत, हम त’ पहिनहि कहने रही जे कहि दियौन जे बेटीकेँ कार पर विदा करताह। हमरा आन दहेज तहेज नहि चाही, अहांक बुद्धिपर त एकर रूपक चकाचौंधि ध नेने छल, बियाह केनहुं ओहिना मुदा जाधरि कार॔क पाय नहि पठौताह हम किन्नहुं नहि मानब आ से कार पर त’ हुनके बेटी चढ़तनि कि हम ? कुंडली मारि क॔ बैसलछथि पाय पर, बाढनिझट्टा नहितन, हमरे बेटाक भाग मे बथा देलक अपन बेटी केँ।”
आब तऽ रानीक हृदय मे धुकधुकी हुए लागल, पप्पा कतय सँ अनथिन्ह पाय एतेक? अखने मांके बाइपास करबय मे कर्जा कतेक ने भ’ गेल छन्हि।
राति रानीक नोर झड़ैत आंखि पोछि अमर कहलखिन्ह, “अहां चिन्ता जुनि करू, हम जोगारकऽ चुकल छी पायके। माएके कहि देबनि अहांक पप्पा पठा देलनि। कि करबै! बेटाक माए छैक ने। दहेज सँ मोने नहि भरय छैक। हमहुं आब हुनकर जमाय छियन्हि। दुनूक इज्जत अपने सबहक हाथ।”