पंचतंत्र केर खिस्सा – मंदबुद्धि सँ विनाश

अनुवादकः बाल लेखक प्रियशील नारायण चौधरी

मंदबुद्धि सँ विनाश

अनुवादकः बाल लेखक प्रियशील नारायण चौधरी

(पंचतंत्र केर कथा, अनुवादः प्रियशील नारायण चौधरी, कक्षा-८, बीकेवीएम, विराटनगर)

 
एगो जुलाहा अपन करघा के बनबै के लेल लकड़ी लै ल’ जंगल गेल छेलै त ओकरा एगो मोटका गाछ देखेलै ओर अप्पन कुल्हाडी चलेनाइ सुरु कैर देलक। तेखने ओ वृछ पर सँ प्रेत के आवाज एलै – “ए मुर्ख, एकरा नै काट, गाछ पर हमर घर अइछ।’’
 
“तोहर घर छौ त कि करियो हम? आखिर मे हमरो तँ जाकऽ अप्पन करघा बनेनाइ य।’’ जुलाहा कहलकै।
 
“देख भाइ तु हमर घर के नष्ट नै कर। ओकर बदला मे हम तोरा एगो वरदान दै छियो।‘’ प्रेत कहलकै।
 
“वरदान!” जुलाहा के हाथ रुइक गेल।
 
“हँ वरदान”। प्रेत कहलकै – “तु जे चाहे माँगी ले”।
 
“यदि एहेन बात छै त हम घर जा क’ अप्पन भाइ एवं मित्र सँ पुइछ क अबै छि”। किछु सोइच कऽ कहलकै।
 
जुलाहा अप्पन गाउँ वापस एलै। गाउँ मे घुइसते ओकरा नाई भेटलै। जुलाहा ओकरा सब चिज बताकऽ पुछलकै – “आब तुहि बता भाइ कि हम ओ प्रेत स कि मन्गिए”।
 
नाई कहलकै – “भैया, यदि किछो मन्गनाए छै त राजपाट मान्गिलिय, जै स’ तु राजा बैन जेभी आ हम तोहर मंत्री। अहि प्रकारे दुनु मित्र आन्नद स रहब”।
 
जुलाहा के नाई के बात सुनिकऽ बहुत खुशी भेल, लेकिन जुलाहा सोचिलकऽ जे अप्पन पत्नी सँ सेहो पुछि लै छी।
 
लेकिन ओकर मित्र नाई कहलकै- “भाई औरत सबके बुद्धि मोटका होइत छै, ई बात याद रखिय, जत’ स्त्री सल्लाहकार होइत छै, उदंड बालक होइत अइछ, ओ घर अवश्य नष्ट भ जाइत अइछ”।
 
लेकिन जुलाहा अप्पन मित्र के बात नै मानलक। ओ अप्पन कन्या के पुरा बात बतेलक आ पुछलकै जे – “आब अहाँ बताओ जे हम ओकरा सँ कि माँगु? हमर मित्र नाई कहय रहल छै जे ओकरा सँ हम राज्य मन्गिए। हम कि मन्गिए?”
 
“हे स्वामी! अहाँ के पत्ता नै य जे कहियो भी छोट जाति सँ सल्लाह नै लेबाक चाहिँ। तहन हमरा ई राज–पाट के कि ग्यान? अगर हमरा भेट सेहो गेलै त हम सब ओकरा चलेबै केना? तेँ अहाँ ओ प्रेत सँ कहबै जे हमरा दुगो बाहिँ और एकटा शिर द दिय, जैसँ अहाँ दुनु दिस मुहँ कैर कऽ दुगुना कपडा बुनि सकि। इ प्रकारे हमर सबके आम्दानी सेहो दुगुना होइत”।
 
जुलाहा पत्नी के बात सुनिक बहुत खुश भेलै। नाई के बात सुनिक ओ प्रेत लग जाक कहलकै – “हे प्रेतराज! हमरा दुगो बाहिँ और एगो सिर और दँ दिय”।
 
जुलाहा के दुगो सिर और चाइर गो बाहिँ भ गेलै। जुलाहा खुशी खुशी घर वापस आइब रहल छेलै, त रस्ता मे लोग सब ओकरा राक्षस बुझिक ईटाँ और पत्थर लक मार लगलै। अहि प्रकारे जुलाहा रस्ते मे लोक सब के द्वारा मैर गेल।
 
“तैँ त लेखक कहै छेतिन जे यदि अप्पन बुद्धि नै काज करैय त कोनो बुद्धिमान सँ सल्लाह लय मे कोनो हर्ज नहि”।