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सार्थक होली ( लघुकथा )

लघुकथा

– गोपाल मोहन मिश्र

सार्थक होली ( लघुकथा )

पिछला साल के होली दिनक बात छै । करुणा अप्पन घर के पूजा स्थल में विराजित अप्पन कान्हा जी के सुगन्धित पुष्प सं होली खेला रहल छलीह, तखने करुणाक बारह साल के पोती पलक आयल आ कहलक – “दादी माँ, अहाँ एतs बैसल छी आ हम अहाँके सब जगह तकैत छलहुं ।” दादी – “किये, कीs भेलौ ?” पलक – “बाहर आउ ने रंग, गुलाल आ पानि संग होली खेलैत छी।” दादी – “अरे! कहाँ छै एतेक पानि, बर्बाद करबाक लेल”, करुणा कहलखिन । एतबा सुनिते पलक के क्रोध आबि गेलैक । “अहाँ के नहि खेलबाक अछि तs नै खेलू, हमरा तs खेलबाक अछि । प्लीज अहाँ पानि के बर्बादीक वास्ता दs कs हमरा नै रोकू ।” एतबा कहि कs पलक चलि गेल होली खेलबाक लेल ।

करुणा चुपचाप अप्पन कमरा में जा कs बैसि गेलीह आ सोचs लगलीह कि केना एहि बच्ची के पानिक कीमत समझायल जाय । करुणा मने-मन किछु तय कैलीह । करुणा महाराष्ट्र के लातूर में रहैत छलीह । ओतय पानिक बहुत तंगी रहैत छै । पानि के बहुत हिसाब सं खर्च कैल जाईत छै ।

किछु दिन बाद करुणा अप्पन पोती पलक के लातूर के ओहि जगह लै गेलीह, जतय कतेक-कतेक दिन पर पानि भेटैत छै । लातूर के एक गाँव तs एहन छै, जतय तीस-पैतीस दिन बाद पानि भेटैत छै । ओतय के निवासी सभ के पानि स्टोर करि कै राखs पड़इत छनि । करुणा अप्पन एक परिचित के घर पलक के लs कs गेलीह । रास्ता में प्यास लगला पर पलक, करुणा सं बिसलेरी पानिक बोटल खरीदबाक लेल कहलक, तखन करुणा कहलखिन – “एतय पानि एना नहि भेटैत छै” । पलक – “तs केना भेटैत छै ?” ताबत परिचित के घर आबि चुकल छलै । दुनू अन्दर गेलीह । परस्पर अभिवादन के बाद सभ बैसि गेलीह ।

करुणा बात शुरू करैत पलक सं कहलखिन – ” एतय कतेक-कतेक दिन पर पानि भेटैत छै । पीबै के लेल मुश्किल सं पानि भेटैत छै । नहाई लेल तs एतय कोई सोचितो नहि छै । कतेक-कतेक दिन पर एतय के लोक नहा पबैत छै ।”

ई सभ देखि कs पलक बहुत दुःखी भेल । दादी सं होली वला दिन के लेल माफ़ी मंगलक । “हमरा नहि पता छल कि पानि के कतेक वैल्यु छै”, ओ बाजल । दादी कहलखिन – “पानि बिना इंसान जिन्दा नहि रहि सकैत छै, तैं आई सं तूँ आ तोहर दोस्त सभ मिलि कs ई वादा कर कि आगू सं होली पर पानिक बर्बादी नहि करब, केवल पुष्प आ गुलाल सं होली खेलब ।” पलक अप्पन दादीक बात सहर्ष मानि लेलक । करुणा पोती के गला सं लगा लेलनि ।

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