लेख-अनुवाद
सदा समता भाव मे रहले सँ मानव जन्मक सफलता
– पंडित रुद्रधर झा
विश्व विख्यात चारि (धर्म, अर्थ, काम ओ मोक्ष) पुरुषार्थ मे तीन (धर्म, अर्थ तथा काम) अनित्य आ अतिशय अछि, मात्र चारिम (मोक्ष) टा नित्य तथा निरतिशय रहबाक कारण परम पुरुषार्थ कहाइत अछि। अतएव विवेकी व्यक्ति अनादि महाकाल सँ प्रवाहमान जन्म-मरण परम्परात्मक भवसागर सँ उद्धार स्वरूप मोक्ष केँ पाबय लेल मात्र प्रयत्नशील होइत छथि, लेकिन से सदिखन समता मे रहले टा पर संभव अछि। अतः ‘यः समः स च मुच्यते’ (महा. आश्व. अनु. १९/४) – जे प्रिय तथा अप्रिय सब मे हमेशा समान भाव रखैत अछि, वैह मुक्त होइत अछि। ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः’ – (भ.गी. ५/१९) – जेकर मन सदिखन समता मे स्थित रहैत छैक, ओ एहि लोक मे जन्म-मरण परम्परा स्वरूप संसार सागर केँ जीति (पार पाबि) लेलक अछि।
प्रश्नः “प्रतिक्षण परिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्तेः” (आ. वा.) चेतन तत्त्व सँ अतिरिक्त प्रकृति केर विषम सत्त्व या रज या तम गुण सँ बनल सब भाव प्रतिक्षण परिणमनशील अछि, प्रकृति केर उक्त तीनू गुण केर साम्य केँ प्रलय और वैषम्य केँ सृष्टि कहैत अछि। एहेन परिस्थिति मे – जखन आत्मा सँ भिन्न प्रतिक्षण परिणामी सब प्राकृतिक पदार्थ मे कोनो दुइ चीज एहेन नहि अछि जे सर्वथा सम (समान) हो, तखन सम के अछि, जेकर भाव समता मे सदा रहि पेनाय संभव हुअय?
उत्तरः ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (भ. गी. ५/१९) – परतम तत्त्व निरूपाधिक ब्रह्म सम अछि और ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (भ. गी. ९/२९) परतम तत्त्व हम (भगवान्) सब प्राणी मे सम छी। अतः सदा समता मे रहबाक तात्पर्य भेल जे सदा सर्वत्र ब्रह्म केँ या भगवान् केँ देखब। ‘यो यच्चितः स एव सः’ (आ. वा.) जे यदाकार चित्तवृत्ति वला होइत अछि, ओ वैह भऽ जाइत अछि, एकरा अनुसार ब्रह्माकार चित्तवृत्ति वला ब्रह्म और भगवदाकार चित्तवृत्ति वला भगवान् भऽ जायत, तखन ओ उक्त दुनू या ओहि मे सँ कोनो एक प्रकार केर भऽ सम भऽ जेबाक कारण सदा समता मे रहि सकत।
‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥भ. गी. २/१५॥’
पुरुषश्रेष्ठ! दुःख तथा सुख केँ समान रूप सँ भोगयवला जाहि धीर पुरुष केँ ई विषयेन्द्रिय सम्बन्ध व्याकुल नहि करैछ, ओ मोक्ष केर योग्य होइछ।
‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥भ. गी. २/३८॥’
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख केँ समान जानिकय तेकर बाद युद्ध लेल प्रस्तुत भ जाओ, एहि प्रकारे युद्ध कयला सँ अहाँ पाप केँ नहि प्राप्त करब।
‘योगस्थः कुरू कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥भ. गी. २/४८॥
धनञ्जय! अहाँ आसक्ति केँ त्याग करू, सिद्धि व असिद्धि मे सम भऽ कय योग मे स्थित भऽ कर्तव्य कर्म करू। एकरे समत्व योग कहल गेल अछि।
‘विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥भ. गी. ५/१८॥’
विद्या-विनय सम्पन्न व्यक्ति ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता ओ चाण्डाल मे सम (समान रूप सँ ब्रह्म या भगवान् केँ) देखनिहार पण्डित थिक।
‘सुहन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पायेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥भ. गी. ६/९॥
निःस्वार्थ हितकारी, मित्र, वैरी, निष्पक्ष, पक्षद्वयहितैषी, द्वेष्य, बन्धु, धर्मात्मा आर पापी मे सम (समान रूप सँ ब्रह्म या भगवान् केर भाव) बुद्धि रखनिहार व्यक्ति श्रेष्ठतम् अछि।
‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥भ. गी. ६/२९॥’
सब मे सम (ब्रह्म या भगवान्) केँ देखयवला समतामयमना (लोक) सब भूत मे अपना केँ और अपना मे समस्त भूत केँ देखैत अछि।
‘आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥भ. गी. ६/३२॥’
अर्जुन! जे समस्त प्राणी मे भेल सुख या दुःख केँ अपना मे भेल जेकाँ भोगैत अछि, वैह योगी परम श्रेष्ठ मानल गेल अछि। जेना पाड़ा (भैंसा) केर पीठ पर पड़ल बेंतक मारि केर निशान सन्त ज्ञानेश्वर केर पीठ पर उमड़ि गेल छल।
‘समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।भ. गी. १८/५४।’
समस्त प्राणी मे सम (ब्रह्म या भगवान्) रूप सँ रहयवला हमर पराभक्ति केँ पबैत अछि।
‘तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।भ. गी. २/५०।’
हे अर्जुन! अहाँ समता रूप योग मे सदिखन रहबाक लेल यत्नशील भ जाओ, कियैक तँ समत्व रूप योग टा कर्म मे कुशलता (स्वतः सिद्ध बन्धकता केर निवारक) अछि।
‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन’ (भ. गी. ८/२७)
अतः, हे अर्जुन! अहाँ सब समय मे समता रूप योग सँ युक्त रहू।
‘वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥भ. गी. ८/२८॥’
योगी समता रूप योग मे सदा स्थित व्यक्ति एहि समत्व रूप योग केर महत्व केँ जानिकय वेद केँ पढय मे तथा यज्ञ, तप आ दान केँ करय मे जे पुण्य-फल कहल गेल अछि, ओकरा सब केँ पार कय जाइत अछि और प्रथम परम पद केँ प्राप्त करैत अछि।
‘तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुनः॥भ. गी. ६/४६॥’
साम्य रूप योग मे सदा स्थित व्यक्ति तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी लोकनि सँ श्रेष्ठ मानल गेल अछि, अतः अर्जुन! अहाँ सदा समता रूप योग सँ युक्त होउ।
ॐ तत्सत्!! हरिर्हरिः!!
(अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
हरिः हरः!!