पढ रे बौआ पढ – १
सागर केर उपमा सँ धीर-गम्भीर आ शान्त स्वभावक परिचय भेटैत छैक। वैह सागर केर कतेको फीटक लहर सेहो ओतेक हल्ला नहि करैत छैक जतेक थोड़बे पानिक मात्रा संग बहयवाली झरनाक पानि। ताहि सागर सँ सेहो कियो महान भऽ सकैत अछि। के?
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥
भावार्थ :
जाहि सागर केँ हमरा लोकनि एतेक गम्भीर बुझैत छी, प्रलय एलापर ओहो अपन मर्यादा बिसरि जाइत अछि आर किनारा केँ तोड़िकय जल-थल एक कय दैत अछि; मुदा साधु अथवा श्रेठ व्यक्ति संकट केर पहाड़ो टूटि गेला पर श्रेठ मर्यादा केर उल्लंघन नहि करैत अछि। यानि साधु पुरुष सागरहु सँ महान होइत अछि।
हरिः हरः!!