शिवजीक विवाहक रोचक प्रसंग

महादेव-पार्वती पाणिग्रहणक रोचक कथा पढू

स्वाध्याय लेल

– प्रवीण नारायण चौधरी

(श्रीरामचरितमानस केर अनुवाद आधारित)

सरस्वती पूजा आ शिवरात्रि आबिये गेल बुझू। एहेन समय देवाधिदेव महादेव केर लीला आ कथा सब मोन पड़ब स्वाभाविके बुझैत छी। रामचरितमानस मे भगवान् शिव केर विवाहोत्सवक वर्णन हमर अत्यन्त प्रिय पाठ थिक। भगवान् हरि आ हर केर बीच एहि अवसर जे हँसी-चौल सब होइत अछि ओ भीतर हृदय केँ पर्यन्त आह्लादित कय दैत अछि।

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1

शिवजीक गण शिवजीक श्रृंगार करय लगलाह। जटाक मुकुट बनाकय ओहि पर साँपक मौर सजायल गेल। शिवजी साँपहि केर कुंडल और कंकण (कान आ बाँहि केर आभूषण) पहिरलाह। शरीर पर विभूति रमेलनि। वस्त्रक जगह बाघम्बर लपेट लेलनि।

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

शिवजीक सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, माथपर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपक जनेऊ, गला मे विष और छाती पर नरमुण्डक माला छल। एहि तरहें हुनकर वेष अशुभ भेलोपर ओ कल्याण केर धाम और कृपालु छथि।

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

एक हाथ मे त्रिशूल और दोसर मे डमरू सुशोभित छन्हि। शिवजी बसहा (बरद) पर चढ़िकय चलला। बाजा बाजि रहल अछि। शिवजी केँ देखिकय देवांगना लोकनि मुस्की दय रहली अछि (और कहैत छथिन कि) एहि वर केर योग्य दुलहिन संसार मे नहि भेटत।

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥

विष्णु और ब्रह्मा आदि देवतालोकनिक समूह अपन-अपन वाहन (सवारी) पर चढ़िकय बारात मे चललाह। देवता लोकनिक समाज सब प्रकार सँ अनुपम (परम सुंदर) छल, मुदा दूल्हाक योग्य बारात नहि छल।

बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

तखन विष्णु भगवान सब दिक्पाल केँ बजाकय हँसिकय कहलखिन – सब कियो अपन-अपन दल समेत अलग-अलग भऽ कय चलू।

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥

हे भाइ लोकनि! हमरा सभक ई बारात वर केर योग्य नहि अछि। कि पराया नगरी मे जाकय हँसी करायब? विष्णु भगवान केर बात सुनिकय देवता लोकनि मुस्की देलाह आर ओ सब अपन-अपन सेना सहित अलग भऽ गेलाह।

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

महादेवजी (ई देखिकय) मने-मन मुस्कुराइत छथि जे विष्णु भगवान केर व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहि छूटैत छन्हि! अपन प्यारा (विष्णु भगवान) केर एहि अति प्रिय वचन केँ सुनिकय शिवजी सेहो भृंगी केँ पठाकय अपन सब गण केँ बजवा लेलनि।

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

शिवजीक आज्ञा सुनिते सब चलि एलाह आर ओ सब स्वामी केर चरण कमल मे माथ नवौलनि। तरह-तरह केर सवारी आर तरह-तरह केर वेष वाला अपन समाज केँ देखिकय शिवजी हँसि पड़लाह।

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

कियो बिना मुंहक अछि, केकरो बहुते रास मुंह छैक, कियो बिना हाथ-पैरक अछि त केकरो कतेको हाथ-पैर छैक। केकरो बहुत रास आँखि छैक त केकरो एकहु टा आँखि नहि छैक। कियो खूब मोटगर-डटगर अछि त कियो एकदम्मे दुब्बर-पातर।

छंद :
तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

कियो बड दुब्बर, कियो बड मोट, कियो पवित्र, कियो अपवित्र वेष धारण कएने अछि। भयंकर गहना पहिरने हाथ मे कपाल लेने अछि आर सब के सब शरीर मे ताजा खून लपेटने अछि। गधा, कुत्ता, सूअर और सियार केर समान ओकरा सभक मुंह लगैत छैक। गण सभक अनगिनत वेष केँ के गानय? बहुतो प्रकारक प्रेत, पिशाच और योगिनियाँक जमाते छैक। ओकरा सभक वर्णन करैत नहि बनैत अछि।

सोरठा :
नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥

भूत-प्रेत नाचैत और गाबैत अछि, ओ सब बड़ा मौजी अछि। देखय मे बहुते बेढंगा जानि पड़ैत अछि और बड़ा विचित्र ढंग सँ बाजैत अछि।

चौपाई :
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥

जेहेन दूल्हा छथि, आब ओहने बरियातियो बनि गेल अछि। बाट मे चलैत काल भाँति-भाँति केर कौतुक (तमाशा) होइत रहैत अछि। एम्हर हिमाचल द्वारा एहेन विचित्र मण्डप बनायल गेल अछि जेकर वर्णन नहि भऽ सकैछ।

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥

जगत मे जतेक छोटे-पैघ पर्वत छथि, जिनकर वर्णन करब पार नहि लागत तथा जतेक वन, समुद्र, नदी और पोखरि छथि, हिमाचल हुनका सबकेँ नोत पठेलनि।

कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥

ओ सब अपन इच्छानुसार रूप धारण करयवला सुंदर शरीर धारण कय सुंदरी स्त्रिगण और समाजक संग हिमाचलक घर गेलाह। सब कियो स्नेह सहित मंगल गीत गबैत छथि।

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥

हिमाचल पहिनहि सँ बहुते रास घर सजबा रखने छलाह। यथायोग्य ताहि-ताहि स्थान पर सब कियो उतरलाह। नगर की सुंदर शोभा देखिकय ब्रह्मा केर रचना चातुरी सेहो तुच्छ लगैत छल।

छन्द :
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

नगरक शोभा देखिकय ब्रह्माक निपुणता सचमुच तुच्छ लगैत अछि। वन, बाग, इनार, पोखरि, नदी आदि सब सुंदर अछि, ओकर वर्णन के कय सकैत अछि? घर-घर बहुत रास मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताका सुशोभित भऽ रहल छैक। ओतुका सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुष सभक छवि देखिकय मुनी लोकनिक मोन मोहित भऽ जाइत छन्हि।

दोहा :
जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥

जाहि नगर मे स्वयं जगदम्बा अवतार लेलनि, कि ओकर वर्णन भऽ सकैत अछि? ओतय ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नव बढ़ैत जाइत अछि।

बरियाती आब हिमाचल केर नगरी – जगदम्बाक नैहर मिथिला मे प्रवेश कय रहल अछि। गौर करबाक छैक जे एकटा छोटका सिपाहियो देखिकय डरायवला मिथिलाक जनसाधारण शिवजीक खतरनाक भूत-प्रेत-पिशाच-बैतालक गण केँ कोना सामना करैत अछि। बड़ा रोचक दृश्य छैक। सब कियो अपन-अपन आत्मा केँ साक्षी मानिकय ई दृश्य स्वयं देखैत शिवजीक विवाहोत्सवक एहि लेख केर आनन्द अनुभव करब।

महाकवि तुलसीदास केर विलक्षण आ सुन्दर-सहज लेखनी केँ प्रणाम करैत पुनः हुनकहि रामचरितमानस केर ई सुन्दर पाठ हम निरन्तरता मे राखि रहल छी।

चौपाई :
नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥

बारात केर नगरक निकट एबाक बात सुनिकय नगर मे चहल-पहल मचि गेल, जाहि सँ नगरक शोभा स्वाभाविके बढि गेल। बरियाती केँ अगवानी करयवला लोक सब खूब सजि-धजिकय अपन-अपन सवारी केँ सजाकय बरियाती केँ लय लेल चललाह।

हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥

देवता लोकनिक समाज केँ देखिकय सब मनहि-मन खूब प्रसन्न भेलथि और विष्णु भगवान केँ देखिकय तऽ बहुते सुखी भेलाह। मुदा जखन शिवजीक दल केँ देखय लगलाह तऽ हुनका सभक वाहनक हाथी, घोड़ा, बरद आदि भरैककय भागब आरम्भ कय देलक।

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥

किछु बड़-बुजुर्ग आ समझदार लोक त कोहुना धीरज धय ओतय डटल रहलाह, छौंड़ा (लड़का) सब त अपन प्राण बचाकय भागल ओतय सँ। घर पहुँचलापर जखन माय-बाबू पूछैत छैक, तखन ओ सब भय सँ काँपैत शरीर सँ एहेन वचन कहैत छैक।

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥

कि कहू, कोनो बात कहल नहि जाइत अछि। ई बरियाती छी आ कि यमराजक सेना? दूल्हा बताह अछि आ बरद पर सवार अछि। साँप, कपाल और छाउरे ओकर गहना छैक।

छन्द :
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥

दूल्हाक शरीर पर छाउर लागल अछि, साँप और कपाल केर गहना छैक, ओ नंगा, जटाधारी और भयंकर अछि। ओकरा संग भयानक मुंहवला भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस छैक, जे बरियाती केँ देखिकय जिबैत बचि गेल ओ सचमुच बड़ पुण्य केने होयत और वैह टा पार्वतीक विवाहो देखि सकत। लड़का सभ घरे-घर यैह बात कहलक।

दोहा :
समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥

महेश्वर (शिवजी) केर समाज बुझि सब लड़काक माता-पिता मुस्कुराइत छथि। ओ लोकनि बहुतो प्रकार सँ लड़का सब केँ बुझबैत कहैत छथि जे निडर बनि जाउ, डरक कोनो बात नहि छैक।

चौपाई :
लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥

अगवान लोकनि बारात केँ लय केँ आबि गेलाह। ओ लोकनि सब केँ सुंदर जनवासा मे ठहरा देलनि। मैना (पार्वतीजीक माताजी) शुभ आरती सजौलीह आर हुनका संग स्त्रिगण समाज उत्तम मंगलगीत गाबय लगलीह।

कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

सुंदर हाथ मे सोनाक थाल शोभित अछि, एहि प्रकारें मैना हर्षक संग शिवजी केँ परिछन करय चललीह। जखन महादेवजीक भयानक वेष मे देखलीह तखन त स्त्रिगण सभकेँ मन मे बड़ा भारी भय उत्पन्न भऽ गेलनि।

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥

भारी डरक मारे भागिकय ओ सब घर मे घुसि गेलीह आर शिवजी वापस जनवासा दिश चलि गेलाह। मैनाक हृदय मे बड़ा दुःख भेलनि, ओ पार्वतीजी केँ अपना पास बजा लेलीह।

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥

और अत्यन्त स्नेह सँ कोरा मे बैसाकय अपन नीलकमल केर समान नेत्र मे नोर भरिकय कहलीह – जे विधाता तोरा एहेन सुन्दर रूप देलखुन, ओ मूर्ख तोहर दूल्हा केँ बताह केना बना देलखुन?

छन्द :
कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

जे विधाता तोरा सुंदरता देलनि, ओ तोरा लेल वर कोना बताह बनेलनि? जे फल कल्पवृक्ष मे लगबाक चाही, ओ जबर्दस्ती बबूल मे लागि रहल अछि। हम तोरा लय केँ पहाड़ सँ कूदि जायब, आगि मे जरि जायब या समुद्र मे कूदि पड़ब… चाहे घर उजड़ि जाय आ संसार भरि मे अपकीर्ति पसैर जाय, मुदा जिबैत जी हम एहि बावला घरवला संग तोहर विवाह नहि करब।

दोहा :
भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।

हिमाचल केर स्त्री (मैना) केँ दुःखी देखिकय सारा स्त्रिगण समाज व्याकुल भऽ गेलीह। मैना अपन कन्या प्रति स्नेह केँ याद कय केँ विलाप करैत छथि, कनैत और बजैत छथिन –

चौपाई :
नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥

हम नारदक कि बिगाड़ने रहियनि, जे हमर बसैत घर केँ उजाड़ि देलनि आर जे पार्वती केँ एहेन उपदेश देलनि जाहि सँ ओ एहि बावला वर लेल तपस्या केलक।

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥

सचमुच हुनका न केकरो सँ मोह छन्हि, न माया, न हुनका धन छन्हि, न घर छन्हि आर नहिये स्त्री छन्हि, ओ सब सँ उदासीन छथि। ताहि कारण ओ दोसराक घर उजाड़यवला छथि। हुनका न केकरो लाज छन्हि आ नहि डरे। भले बाँझ स्त्री प्रसवक पीड़ा कि जानय गेल!

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥

माता केँ विकल देखिकय पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बजलीह – हे माता! जे विधाता रचि दैत छथिन, ओ टरैत नहि छैक, से विचार कय केँ अहाँ सोच नहि करू।

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥

जँ हमर भाग्य मे बावले पति लिखल अछि, त केकरो कियैक दोख लगायल जाय? हे माता! कि विधाताक अंक अहाँ सँ मेटा सकैत अछि? अनेरहु कलंकक टीका नहि लिअ।

छन्द :
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

हे माता! कलंक नहि लिअ, कानब छोड़ू, ई अवसर विषाद करबाक नहि थिक। हमर भाग्य मे जे दुःख-सुख लिखल अछि, से हम जतहि जायब ओतहि पायब। पार्वतीजीक एहि विनय भरल कोमल वचन सुनिकय सब स्त्रिगण समाज सोचय लगलीह आर भाँति-भाँति सँ विधाता केँ दोष दय केँ आँखि सँ नोर बहाबय लगलीह।

दोहा :
तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

ई समाचार केँ सुनिते देरी हिमाचल ताहि समय नारदजी और सप्त ऋषि लोकनि केँ संग लय अपन घर गेलाह।

चौपाई :
तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥

तखन नारदजी पूर्वजन्मक कथा सुनाकय सबकेँ बुझेलनि (और कहलनि) कि हे मैना! अहाँ हमर असल बात सुनू, अहाँक ई बेटी साक्षात जगज्जननी भवानी थिकीह।

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥

ई अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति थिकीह। सदा शिवजी केर अर्द्धांग मे रहैत छथि। ई जगत केर उत्पत्ति, पालन और संहार करयवाली छथि और अपना इच्छा सँ मात्र लीला शरीर धारण करैत छथि।

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥

पहिले ई दक्ष केर घर जाकय जन्मल छलीह, तखन हिनकर सती नाम छलन्हि, बहुत सुंदर शरीर पेने छलीह। ओतहु ई सती शंकरजी सँ ब्याहल गेल छलीह। ई सब कथा सौंसे जग मे प्रसिद्ध अछि।

एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥

एक बेर ई शिवजीक संग अबैत समय (बाट मे) रघुकुल रूपी कमल केर सूर्य श्री रामचन्द्रजी केँ देखलनि, तखन हिनका मोह भऽ गेलनि आर ई शिवजीक कहब नहि मानिकय भ्रमवश सीताजी केर वेष धारण कय लेलनि।

छन्द :
सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥

सतीजी जे सीताक वेष धारण कयलीह, ताहि अपराध केर कारण शंकरजी हुनकर त्याग कय देलनि। फेर शिवजीक वियोग मे ओ अपन पिताक यज्ञ मे जाकय ओतहि योगाग्नि सँ भस्म भऽ गेलीह। आब ओ अहाँक घर जन्म लय केँ अपन पतिक लेल कठिन तप कयलनि अछि – एना बुझिकय संदेह छोड़ू, पार्वतीजी तँ सदैव शिवजीक प्रिया (अर्द्धांगिनी) छथिन।

दोहा :
सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥

तखन नारद केर वचन सुनिकय सभक विषाद मेटा गेलनि आर कनियेकाल मे ई समाचार सौंसे नगर मे घरे-घर पसैर गेल।

चौपाई :
तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

तखन मैना और हिमवान आनंद मे मग्न भऽ गेलाह और ओ लोकनि बेर-बेर पार्वतीक चरणक वंदना कयलनि। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर केर सब लोक खूब प्रसन्न भेलाह।

लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

नगर मे मंगल गीत गायल जाय लागल आर सब कियो भाँति-भाँति केर सुवर्णक कलश सजौलनि। पाक शास्त्र मे जेहेन रीति अछि, ताहि अनुसार अनेकों भाँतिक ज्योनार (भोज्य परिकार) बनायल गेल।

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥

जाहि घर मे स्वयं माता भवानी रहैत होथि, ओतुका ज्योनार (भोजन सामग्री) केर वर्णन केना कयल जा सकैछ? हिमाचल द्वारा आदरपूर्वक सब बाराती लोकनि, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति केर देवता लोकनि केँ बजौलनि।

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

भोजन (करनिहार) केर बहुतो पाँति लागल। चतुर-चुस्त बारिक भोजन परोसय लगलाह। स्त्रिगणक मंडली देवता लोकनि केँ भोजनक समय बुझि कोमल वाणी सँ डहकन गाबि गारि देनाय शुरू कय देलीह।

छन्द :
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

भावार्थ:-सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

दोहा :
बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

फेर मुनिगण आबिकय हिमवान्‌ केँ लगन (लग्न पत्रिका) सुनौलनि आर विवाहक समय देखिकय देवता लोकनि केँ बोलाहट पठौलनि।

चौपाई :
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥

सब देवता लोकनि केँ आदर सहित बजबा लेलनि आर सभ केँ यथायोग्य आसन देलनि। वेद केर रीति सँ वेदी सजायल गेल आर स्त्रिगण सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाबय लगलीह।

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

वेदिका पर एक गोट अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन छल, जेकर सुंदरताक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि, कियैत तऽ ओ स्वयं ब्रह्माजी द्वारा बनायल गेल छल। ब्राह्मण लोकनि केँ माथ नमा हृदय मे अपन स्वामी श्री रघुनाथजीक स्मरण कय केँ शिवजी ओहि सिंहासन पर बैसि गेलाह।

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

फेर मुनीश्वर लोकनि पार्वतीजी केँ बजौलनि। सखी सब श्रृंगार कय केँ हुनका लऽ एलीह। पार्वतीजी केर रूप केँ देखिते सब देवता मोहित भऽ गेलाह। संसार मे एहेन कवि के अछि जे ओहि सुंदरताक वर्णन कय सकय?

जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

पार्वतीजी केँ जगदम्बा और शिवजीक पत्नी बुझिकय देवता लोकनि मनहि-मन प्रणाम कयलनि। भवानीजी सुंदरताक सीमा छथि। करोड़ों मुख सँ पर्यन्त हुनकर शोभा नहि कहल जा सकैत अछि।

छन्द :
कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

जगज्जननी पार्वतीजी केर महान शोभाक वर्णन करोड़ों मुख सँ सेहो करब नहि बनैत अछि। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक ओ कहैत लजा जाइत छथि, तखन मंदबुद्धि तुलसी कोन गिनती मे अछि? सुंदरता और शोभा केर खान माता भवानी मंडपक बीच मे, जतय शिवजी छलाह, ओतय गेलीह। ओ लाजक मारे पति (शिवजी) केर चरणकमल को देखियो नहि सकैत छलीह, मुदा हुनकर मनरूपी भौंरा त चरणकमलहि केर रसपान कय रहल छल।

आर, एतय एहि आनन्ददायी अनुवादित लेख केँ मूल चौपाई-दोहा सहित विराम दैत एतबे कहय चाहब जे मनुष्यरूप मे जखन-जखन समय भेटय, अपन ईष्टदेवक एहि सुन्दर लीला-चरित्र केँ बेर-बेर पढू आ जीवन सफल करू।

हरिः हरः!!