आइ जे दुइ गोट श्लोक ‘सुभाषितानि’ सँ अपने सभक बीच रखबाक मोन भेल अछि ताहि दुनू मे हमरा सब केँ पुनः अपना-अपना वास्ते एकटा नीक कर्तव्यबोध भेटैत अछि। देखू –
यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥
भावार्थ :
जे पढ़ैत अछि, लिखैत अछि, देखैत अछि, प्रश्न पूछैत अछि, बुद्धिमान लोकनिक आश्रय लैत अछि, ओकर बुद्धि ओहि तरहें बढ़ैत छैक जेना कि सूर्य किरण सँ कमल केर पंखुड़ि सब।
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म शीलं सर्वत्र वै धनम्॥
भावार्थ :
विदेश मे विद्या धन थिक, संकट मे बुद्धि धन थिक, परलोक मे धर्म धन थिक और शील सर्वत्रे धन थिक।
आइ वर्गीय अन्तर केँ दूर करबाक लेल बड़का-बड़का बात कयल जाइत अछि, गरीबी अन्त करबाक लेल एक सँ बढिकय एक अनुदान-योगदान देबाक दावी कयल जाइत अछि… मुदा शिक्षा मे सब केँ एकसमान रूप सँ आगू बढेबाक आ सब केँ विद्याधन – पढनाय-लिखनाय, देखनाय, प्रश्न पूछनाय, बुद्धिमान संग संगत केनाय – ई सब केना बेसी होयत ताहि मे बड बेसी ध्यान नहि छैक। बस खाली जग केँ जुग परतारि रहल अछि…. अपन अपन सुतारि रहल अछि… एकटा कोन कहबी छैक न मिथिला मे…. किछु तहिना मंगनिये मे सब पैघत्व हासिल करय चाहि रहल अछि। एना होयब संभव नहि छैक। कर्म, कर्तव्य, धर्म, दान, तप, श्रम – नैष्कर्म्य कर्मक संग ई सब बात भेले उत्तर मानव समुदायक प्रगति संभव छैक।
हरिः हरः!!