ब्राह्मण आ विधाताक खिस्सा – ईशनाथ झाक टटका आ मजेदार मैथिली खिस्सा

खिस्सा

– ईशनाथ झा

एकटा निरक्षर दरिद्र ब्राह्मण छलाह। जन्मक बाद जे विधाता भाग्य लिखै छथि से ओहि ब्राह्मणकें दण्डित करबाक लेल एक विचित्र बात लिखि देलखिन कि ओ कहियो भरिपेट भोजन नहि कए सकत। आधा पेट भोजन सँ बेसी एकरा कहियौ नै भेटि सकत। ब्राह्मण भाग्यक अमिट लेख स्वीकारि कहुना जीवन खेपि रहल छल।

एक दिन ब्राह्मणकें स्थानीय राजमहल सँ निमंत्रण भेटल। ओकर हृदयक पोर-पोर खिलि उठल। अति प्रसन्न होइत ओ पत्नी सँ कहलक, ” एह, की कहू ? भरिपेट अफरिकें खयबाक आनंद की होइत छैक से तँ हम आइ धरि जनबे नै केलहुँ। आइ सौभाग्यवश राजाक घर सँ नोत आयल अछि। परंतु हम जाएब कोना ? हमरा ने ढंगक कोनो कपड़ा अछि ने पनही ! जे अछि से फाटल आ मैल ! यदि एहन वस्त्र मे जैब तँ दुआरहि पर सँ भगा देत प्रहरी सब !”

पत्नी आश्वस्त करैत बजलीह, ” कोनो चिंता नहि करू, हम कपड़ाक मरम्मति आ सफाई कए दैत छी।” एतावता कहुना ब्राह्मणक लेल वस्त्रक व्यवस्था भेल।

ब्राह्मण विलंब सँ राजमहल पहुँचल, दिन बीतै बला भ’ गेल छलैक मुदा ओतय ओकर राजसी स्वागत भेलैक। भाँति-भाँतिक व्यंजन आ पूड़ी-पकवान देखि वृद्ध ब्राह्मणक आँखिमे चमक आबि गेलै। सोचलक, “जे हेतै से हेतै, आइ तँ भरिपेट ठूसि-ठूसिके खायब।” ओ आसन ग्रहण कयलक आ भोजन प्रारंभ कयलक। आब भेलै ई जे जामे ओ अधो पेट खइतै तामे छत पर घुमैत एकटा गिरगिटक बच्चा ओकर थारिएमे खसि पड़लै। ओ हाथ बारि देलक आ आचमन कए उठि गेल। हाथ-मुंह धोलाक बाद राज दरबार पहुँचल। राजा जिज्ञासा केलनि जे भोजन केहन बनल छल। ब्राह्मण अपन व्यथा सुना देलक जे ओकर भाग्येमे नहि लिखल छै भरिपेट भोजन। पूरा वृतांत सुनलाक बाद राजा अपन अनुचर सबकें बड्ड बिगड़लनि आ ब्राह्मण सँ कहलनि, ” हे पंडितजी, आइ राति अहाँ एतहि विश्राम करू आ काल्हि हम स्वयं अहाँकें भरिपेट भोजन कराएब !” फलस्वरूप ब्राह्मण रुकि गेल।

भोरे राजा अपन देखरेख मे भोजन तैयार करौलनि। किछु पकवान तs ओ स्वयं बनौलनि आ ब्राह्मणक पात पर स्वयं परसलनि। विशाल भोजनशाला मे सब किछुक निगरानी कएलनि जे ब्राह्मणक भोजन खराप नहि होनि। ब्राह्मण स्वयं चारूकात अवलोकन कए निश्चिंत सँ भोजन पर बैसल एवं राजाक आतिथ्यभाव सँ प्रसन्न भए हुनका आशीर्वाद देलक। लेकिन जखन आधा पेट भरि गेल ब्राह्मणक तखन विधाता चिंतित भ’ गेलाह जे हुनकर रेख आइ मिटा रहल छल। ओ हरबड़ीमे एक छोटकी बेंगक रूप धेलनि आ फुदकैत ब्राह्मणक पात लग पहुँचि गेलाह आ भातमे कूदि गेलाह।

ब्राह्मण खएबामे एतेक निमग्न छल जे ओ भातक संग-संग बेंगकें सेहो खा गेल आ अंततः तृप्तिसूचक ढेकार मारैत राजाकें कहलक, “आइ धरि हमरा एहन तृप्ति कहियो नहि भेल छल !” दान-दक्षिणा प्राप्त कए ब्राह्मण घर जेबाक आज्ञा लेलक आ विदा भेल।

आब लागल असली रंगताल ! ब्राह्मणक पेटमे पहुँचि गेल विधाता तs फाँसमे पड़ि गेलाह। अंततः ओ चिचियेला, “हौ ब्राह्मण, हौ ब्राह्मण !” ब्राह्मण आवाज सुनि इम्हर तकलक, उम्हर तकलक मुदा चारू दिस कतहु कियो नहि देखाएल। विधाता पुन: किलोल केलनि। ब्राह्मण साकांक्ष होइत पुछलक, “हौ बाबू, के छियह आ कतय सँ बजैत छह ?”

विधाता एकदम नरम स्वरमे पुचकारैत नेहोरा केलनि, “यौ ब्राह्मण, हम विधाता छी आ दुर्योगसँ अहाँक पेटमे बंद छी। हमरा निकालू यौ ब्राह्मण देवता !” ब्राह्मण कहलक जे ई असंभव अछि, हमर पेटमे तs आइ जीवनमे सर्वाधिक स्वादिष्ट आ भरि मन भोजन पहुँचल अछि, अहाँ केना चल गेलौं ?

विधाता अपन व्यथा कहलनि, ” औ बाबू, हम छोटकी बेंग बनिके अहाँक भोजन मे खसल रही अपन भाग्यलेखकें सत्य करबाक कारणें, मुदा हमरा तँ अहांँ समूचा गीड़ि गेलहु। आबो निकालू मुखमार्ग सँ !”

ब्राह्मण बाजल, “एह, आनंद आबि गेल, अहि सँ बढ़िया तs किछु भइए नहि सकैत अछि। भरि जन्म हमरा सँ दुष्टता केलौं अहाँ, दुखे-दुख दैत रहलौं, भरिपेट भोजन तक नहि करए देलौं, तँ आब भोगू ! हम नहि निकलए देब आब !” ई कहैत ब्राह्मण अपन मुँह निमुन्न क’ लेलक जे कोनो चुट्टियो-फतिंगा मुँह सँ नहि निकलि सकए !

विधाता आग्रह करैत रहलाह, मिनती करैत रहलाह, रंग-बिरंगक प्रलोभन दैत रहलाह परंतु ब्राह्मण कोनो काने-बात नहि देलक।

गाम पर पहुँचलाक बाद ब्राह्मण अपन पत्नीकें बजौलक आ आदेश देलक जे हुक्का तैयार करए आ एकटा मोटगर सोंटा निकालिकें ओकरा लग राखए। आज्ञाकारिणी पत्नी झटपट हुक्काक नाली ब्राह्मणक समक्ष रखलनि आ सोंटा सेहो बगलमे राखि देलनि। आब ब्राह्मण निश्चिंत सँ हुक्काक सोंट खीचय लागल आ पेटमे धुआँ खेला सँ विधाताक जान जाए लागल। लाख गोहारि कएलाक बावजूदो ब्राह्यण मानए नहि।

तीनू लोकमे अफ़रा-तफ़री मचि गेल। विधाताक बिना ब्रह्माण्डकें नियंत्रित के करत ? अखिल ब्रह्माण्डक नष्ट हेबाक आशंका उत्पन्न भ’ गेल। देवता लोकनिक आपात् बैसक आयोजित भेल। सर्वसम्मति सँ निर्णय लेल गेल जे कियो ब्राह्मण लग जाय ओकरा सँ आग्रह करथि। सामूहिक मंतव्य ई भेल जे देवी लक्ष्मीक गेनाइ उचित हएत। लक्ष्मी कहलखिन, “ओनाहिए संसारक कोनो ब्राह्मण हमरा एको रत्ती नै सोहाइए ! एकटा ब्राह्मण एकबेर उठल आ हमर स्वामीकें लतिया देलक, दोसर भोरे उठिकें हमर वासस्थान बेलक गाछक पात खोंटिके ओकरा ठुट्ठ करै पर विर्त अछि सभ ब्राह्मण ! हमरा छोड़िये दियs !” बहुत नेहोरा-पाती केलाक बाद कुमने सँ लक्ष्मी ब्राह्मणक दरबज्जा पर पहुँचलीह।

जखन ब्राह्मणकें ई ज्ञात भेलैक जे धनप्रदात्री भगवती लक्ष्मी ओकर घर एलीह अछि तs ओ सम्मान देबाक लेल देह पर द्वितीय वस्त्र (उत्तरीय) लपेटलक आ लक्ष्मीजीकें बैसबाक आसन देलकनि। आ पुछलक जे ओकरा सन दरिद्र-छिम्मड़ि सँ कोन कारणें भेंट करय एलीह साक्षात् धनदा लक्ष्मी ? लक्ष्मी विनम्रतापूर्वक कहलनि, ” यौ ब्राह्मण, अहाँ विधाता कें बंदी बना लेने छियनि। हुनका मुक्त कs दियौन नै तँ सकल संसारक सृष्टि नष्ट भ’ जेतै !”

ब्राह्मण अपन पत्नीकें संबोधित करैत कहलक, “है, लाऊ तs लाठी हमर आ हम देखबै छी जे एहि सौभाग्यक देवीके हम कोन दुर्गति करैत छी ? हमर जन्म सँ आइ धरि ई इम्हर एबाक कोन कथा, नजरि तक उठाकें नहि तकलनि। कपारमे दरिद्रा छोड़ि किछु नहि जोड़ल भेलनि हिनका आ आइ एलीहे नेहोरा करय लेल ! लाऊ, लाठी लाऊ, आइ फरिछाइए लै छी !”

ई सुनिते लक्ष्मी भयातुर भ’ गेलीह छनहिमे अदृश्य भ’ गेलीह। युग-युगान्तर सँ आइ धरि एहन वचन नहि सुनने छलीह विष्णुप्रिया ! घूरिकें जखन देवतागणक समक्ष पहुँचलीह तँ हरबड़ीमे निर्णय भेल जे एहि बेर विद्याक देवी सरस्वती कें पठाओल जाए। प्रस्ताव पर चर्चा करैत देवि सरस्वती बजलीह, “ओना ब्राह्मणजन सँ हम सदैव प्रेम करैत रहलहु अछि मुदा ई ब्राह्मण तँ निरक्षर अछि, हमर गप मानत कि नै से संदेहास्पद अछि। तथापि हम कोशिश करैत छी !”

सरस्वती ब्राह्मणक दुआरि पर जाकें जोर-जोर सँ हाक देलनि, “यौ ब्राह्मण देवता, यौ ब्राह्मण देवता ! गाम पर छी यौ ?” घर सँ बहार भेल ब्राह्मण आ वाग्देवीकें देखि साष्टांग प्रणाम केलक आ बाजल, ” माता, एहि निर्धन ब्राह्मण सँ की अपेक्षा करैत छी, हम तs ठीक सँ स्वागतो करबाक जोग नहि छी !”

भगवति भारती बजलीह, “हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड खंड-खंड होइक कगार पर अछि। विधाताकें छोड़ि दियनु !”

ई सुनितहि ब्राह्मण अग्निश्च-वायुश्च’ भ’ गेल। क्रोधे थर-थर काँपय लागल। ब्राह्मणीकें सोर पारैत कहलक, “जल्दी लाबह हमर लाठी, आइ विद्याक देवीकें किछु पाठ पढ़ेबाक अछि। ई देवी हमरा ‘अ-आ’ सँ ‘य-र-ल-व’ तकके ज्ञान नहि होमय देलक। आइ ई हमर दरबज्जा पर एलीहें जखन हम बूढ़ भेल जा रहल छी।”

वाग्देवी तs झमाकs खसलीह आ यैह-ले-वैह-ले लंक लs कs पड़ेलीह।

अंततः देवता लोकनिक अनुनय-विनयक पश्चात् देवाधिदेव महादेव लगाम अपन हाथ मे लेलनि। ब्राह्मण शैव छल। सुच्चा शिव भक्त। महादेवक पूजाक बिना ओ जलो ग्रहण नहि करैत छल कहियो ! नटनागर शिव जखन ब्राह्मणक घर पर पहुँचलाह तs ब्राह्मण दुन्नू प्राणी जल सँ हुनक चरण पखारलक, फूल-अक्षत-बेलपात लए विधिपूर्वक पूजा-अर्चना केलक। पूजाक पश्चात् शिव आसन ग्रहण केलनि आ बजलाह, “ई बलधिंग कियै रोपने छह ? छोड़ि दहुन विधाताकें !”

ब्राह्मण बाजल, “हे औढरदानी ! जखन अहाँ स्वयं आबि गेलहुँ तखन हमरा तs छोड़हि पड़त, लेकिन भारी दुष्ट छथि ई विधाता ! जन्म सँ आइ धरि हम दुखक समुद्रमे गुड़कुनिया काटि रहल छी मुदा हिनका लेल धनि सन ! कहूं तs, हम ककर की अपकार केलियैए आइ धरि जे हमर कपार मे अधपेटे भोजन लिखला ई ?”

भोलानाथ सांत्वना दैत बजलाह, “चिन्ता जुनि करह, हम छी ने ! हम तोरा सशरीर स्वर्ग लs जेबह। हमर आशीर्वाद सँ आब तोहर पेट कहियो खाली नहि रहतह। सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करह आ हँ, हमरा बिसरि नहि जइअह ऐश्वर्यक उन्मादमे !”

ई भरोस सुनिकें ब्राह्मण अपन गराक बन्हन ढील कएलक आ विधाता छड़पिकें बाहर भ’ गेलाह। आ ब्राह्मण कें गोर लगैत धन्यवाद देलखिन !