संस्मरण
– सविता झा
आइ दुर्गापूजा देखय जा रहल छलहुँ त मेला देखकय अपन बाबूजीक याद आबि गेल। बात ओहि समयक अछि जखन हम बड़ छोट रही। साँझ में बाबूजी आबैथ त हम सब तैयार भ क बैसल रहैत छलहुँ जे मेला घुमअ जायब। ओही ठाम अन्तिम चारि दिन धूमधाम स पूजा होइत छलैक। दुर्गापूजा केर बेसब्री स इन्तजार रहैत छलय जे नव नव कपड़ा किनायत और तैयार भ क मेला देखय जायब, खुब खाएब पीब, खिलौना सब किनब। पहिले मनोरंजन केर यैह सब साधन रहैत छलैक। बाबूजी हमरा सबकेँ संग लय लैत मेला देखाबय जाइत रहथि। कमी रहितो कहियो कोनो बातक कमी हम सब भाइ-बहीन केँ कनिकबो महसूस नै होव’ देलथि। गाड़ी कय क हमरा सबकेँ जगह जगह केर दुर्गापूजा देखबैत छलथि। बिसरि नहि सकैत छी ओ दिन सब। दुनियादारी केर कोनो चिन्ता नहि, अपना धून में बचपन बितल छल। घर में सब स छोट होव’ के कारण मान-दान बेसी हुअय। आइ के दिन आर ओ दिन में बहुत अन्तर अछि। आइ स्वयं माँ बनलाक बाद बुझाइत अछि माँ और बाबूजी हमरा सब लेल कत्तेक करैत छलाह। दुर्गापूजा केर मेला देख कय बिसरल दिन याद आबि गेल, संगहि माँ बाबूजी जे आब एहि दुनिया में नहि छथि ओहो सब मोन पड़ि गेलाह अछि। एहसास होइय’ जे दुनिया में माँ बाप सन आब कियो नै होइत छैक। आँखि भरि गेल लिखैत-लिखैत। ओहि समय में हम रांची के भुर्कुन्डा नामक जगह पर रहैत छलहुँ। आब हम अपन मिथिलाक हृदयस्थली मधुबनी में रहैत छी। अहू जगह पर पूजा में भव्य आयोजन होइत छैक। हम एखनहुँ रोज साँझ में भगवती केँ साँझ देखाबय जाइत छी। लेकिन आब ओ बात कहाँ।