खिस्सा गंगेश बाबूक बेटी प्रति भेद करयवला… आ परिणाम कि भेटलनि… रूबी झाक टटका लघुकथा

लघुकथा 

– रूबी झा

जेकरे लेल अरजलथि वैह बुढ़ापा मे कय देलकनि परित्याग – कथा गंगेश बाबूक विभेदपूर्ण व्यवहारक

बेटा के पेट, आ बेटी के पीठ बहुत लोक बुझैत छथि, ताहि बहुत लोक में सँ एक गोटे के कहानी आइ अपन पाठक वर्गक सोझाँ राखि रहल छी। एकटा छलथि गंगेश बाबू, नाम गंगेश आ क्रिया छूतहरेश। तीनटा बेटी, आ दूटा बेटा रहैन। नौकरी सरकारी रहैन, रहैन तँ फोर्थेग्रेड में, लेकिन रहैन तऽ। कहैय छै नौकरी करी तँ सरकारी आ खाय तँ तरकारी। खैर.. सरकारी नौकरी में तँ जीवनक साथ भी आ जीवनक बाद भी। तैइयो हुनक (गंगेश बाबूक) किरदानी एहेन घिनौना जे कि कहू। बेटी सभक विवाह बहुत दलिद्र-भंजन घर में केलाह, आ बेटा सब लेल खेत-पथार खूब खरीदलाह, पक्का मकान चौहन्ना बन्हलाह। बेटी सबके वर ताकय जखन विदाह होइत छलथि तऽ संगे जे रहैत छलखिन्ह ओ पूछैय छलखिन्ह जे केहेन करबैक, कतेक गनबैक? ताहि पर ओ कहैत छलखिन्ह जे परोरक भावे ताकब से ओरियान अछि, झूमनी भावे तकबैक। बात ई ओहि समयक अछि जखन परोर दस टके आ झूमनी दू टके बिकाय छलैक, आय-काल्हि तँ दुनू एके रंग। कतेक टोल-समाजक बुद्धिजीवी लोकसब कहबो केलथिन, यौ बाबू! दू पायक माटिक बर्तन लैत यऽ लोक तकरा तँ दस बेर ठोकैत यऽ, जे कतहु चनकल नहि होइ, आर अहाँ अपन बेटीक एनाही कतहु दहा-भसिया देबैक? आखिर ओकरा लोकनिक जिनगीक सवाल छैक। फेर ओ सब जँ आनंद में रहत तँ अहूँ आनंदित रहब। एक दिन पानक दोकान पर कहलखिन्ह लाल मिश्र, देखियौन्ह बिंदेश्वर ठाकुर केँ जे गानि-गुथि कय बेटी सबकेँ केलथि नीक घर में, आइ बुढापाक लाठी बेटीये सब तँ छन्हि। और अहाँ महराज! केहेन सोच लय कऽ चलैत छी? धूर जी! जखन बेटी अपने सुखी रहत तहन ने मायो-बाप केँ देखत। आ नहियो देखत तँ ओकरा दरबज्जा पर जायब तँ प्रसन्नचित्त भय लौटब तऽ। ई सूनि मुँह तँ कय लेलाह गंगेश बाबू चोकर सनक लेकिन बजलाह किछु नहि, कियैक तँ कहल गेल छैक पतीत लोक के अगर अहाँ कथो दू टा कहि देबैन्ह तँ ओ बजता किछु नहि। कियैक तँ मुँहे नहि रहैत छैक ओहेन लोकक त बाजत की। लोको केँ बेसी कोन मतलब रहैक, बेटी हुनकर ओ जेहेन घर-वर करथि। कहल गेल छैक कि अपन महींस केँ कुरहरिये सँ नाथब तइ सँ केकरो मतलब की? बातो ठीके छैक। जहि बेटा सब लेल भरि जनम अरजलाह ओ बेटा सब अपना लग दूनू प्राणी केँ बूढ़ारी में राखय तक लेल नहि तैयार भेलैन्ह। अपने जेहने रहथि तेहने अर्धांगिनी सेहो रहथिन्ह। गंगेश बाबू सँ कनेकबो नहि उनैस! आर दुनू पुतोहु केहेन जे ई दुनू प्राणी अपन बेटी केँ तँ संताने नहि बूझलथि तऽ पुतोहु केँ कि बुझथिन्ह। तहि द्वारे पाठक सब सँ कहय चाहब जे बेटा-बेटी दुनू संतान केँ एक रंग बुझू। सब किछु में – खेनाय, पहिरनाय आ सम्पत्ति में सेहो एकसमान व्यवहार करू। नहि तँ जेकरे लेल अरजब वैह एक दिन उलहन देत।