सांझक भाभट

देखितहि, कहय लागलि नदी
बहुत दिन बाद अयलहुँ अहाँ;
बाट तकैत, बड्ड उदास फिरैत छल सूरज;
चन्द्रमा गूम्मी लदने अबैत छल, गाछीक ओहि पार सँ;
मद्धिम भेल जाइत रंग, संध्याक;
शीघ्र मौलाइत छलैक रौदक आभा;
थाकल-ठेहिआयल हवा बहैत छल, द्रुत-विलम्बित –
बड्ड उदास रहैत छल, सांझ
अपन चित-चोरक उत्कंठा मे!
 
पूछियौक ओहि पथरायल टीला सँऽ
जाहि पर, आसन जमैत छल, अहाँक!
एतबा दिन बड्ड अन्यमनस्क रहैत छल ओ,
मंदिरक घंटीक ध्वनि आबय धरि
सब देखैत छल, अहींक बाट!
 
हमर हाल! पूछू जुनि,
हम तऽ छी अभ्यस्त –
जेठ मे अघायल, आ’ भादो मे
उधियौनी
एखनहि विपन्न, एखनहि संपन्न –
कखनहु सुखायल, कखनहु तोड़ैत बांध!
 
आय देखू ने
कोना इतराइत अछि सांझ –
आयल छी, एतेक दिन बाद –
तखन, करबे करत भाभट
देखेबे करत नखरा!
 
– अग्निमित्र – १७.०५.२०१५.