कतय जा रहल अछि मानव

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

आदरणीय माय!
 
अहाँक ई कविता मानव संसारक अधुनातन अवस्था मे पुरान संस्कृति केँ जियल लोकक वितृष्णा केँ जहिनाक तहिना राखि रहल अछि। एक बेर हमरो पाठक लेल डा. शेफालिका वर्माक ई कविता केँ पढबाक लेल कौपी कय केँ अपन विचारक संग सम्प्रेषित कय रहल छी –
 
नहि जानि के ई
अपार्टमेंटी कल्चर बनौलक
कत गेल ओ घर
फूलक बाड़ी
नेनाक किलकारी
माधवी लता सँ घेरल कंपाउंड
केतकी गुलाब चंपा बेलीक
रसभीजल मह मह करेत सुरभि
रजनीगंधा के मदमातल सुगन्धि
कहियो सोचने नय छलौं
मनुख बन्द भ जायत देवारक बीच
नेना सब हेरा जायत
टीवी लैपटॉप मोबाइल के बांहि में
बाट पर भगैत रहत जिनगी जिनगी लेल
तरसैत रहत मनुख बालकोनी में
मुट्ठी भरि जिनगी लेल
मुदा
कोन जिनगी
कतय बाँचल जिनगी…..
 
४-५ दिन पूर्व हमर एक आध्यात्मिक गुरुदेव श्री परविन्दर कुमार लाम्बा एकटा बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट सोझाँ अनने छलाह। ओहो किनको लिखल पोस्ट केँ मात्र अपन वाल सँ शेयर करैत ओकर गूढ तत्व केँ आत्मसात करबाक लेल कहने रहथि। ओकर सार मात्र कहय चाहब जे एक गोट कर्नल साहब जे अपन २ गोट बेटा केँ खूब उच्च शिक्षा-दीक्षा दय केँ अमेरिका मे हाई क्लास जौब करबाक धरि सपोर्ट कयलखिन तिनका बाद मे पत्नीक मृत्यु भेला आ दुनू बेटा केँ अन्तिम संस्कार लेल भारतक लखनऊ आबि उचित पुत्रधर्म निर्वाह लेल कहलखिन त दोसर दिन भेने छोटका बेटा एलनि। ओकरा सँ पुछलखिन जे बड़का नहि एलौक, त ओ बड़ा जिद्द केला पर सत्य बात कहि देलकनि जे ‘पिताजी, बड़का भैया कहला जे माय बेर मे तूँ चलि जो, बाप बेर मे हम चलि जायब।’ पिता ई बात सुनिते चुपचाप अपन कोठली मे गेला आ २ पाँतिक चिट्ठी लिखिकय राखि देलखिन जेकर सारांश जेठ पुत्र केँ संबोधन करैत ई छल कि तोरा सब केँ हम सब एखनहुँ वैह बच्चे जेकाँ बुझैत छलहुँ, माय मरबाक समय बेर-बेर अहुंरिया कटैत रहलखुन आ एक्के रट्ट लगेने रहथि जे दुनू बेटा आबि जइतय, देखि लीतहुँ आ एक बेर दुनू केँ छाती सँ सटा लीतहुँ त सन्तोष भऽ जइतय…ओ बेचारी एना अहुरिया काटिकय गेलीह आ तेकर बाद हम तोरा सभक इन्तजार मे तोहर मायक लहास केँ ओगरिकय केना समय बीतेलहुँ तेकर एहसास स्वयं टा केँ बुझय मे आयल… जखन छोटका बेटा तोरा बारे मे कहलक जे तोहर विचार हमर अन्तिम संस्कार करय बेर मे एबाक छौक त एना बुझायल जे माय केँ देखनिहार त अन्तिम घड़ी तक तोहर बाप रहथुन, हमरा देखनिहार के रहत… अतः छोटके हाथ सँ एक्के बेर माय केर संस्कार संग हमरहु संस्कार भऽ जाय से चाहैत हम अपन जीवनक अन्त कय रहल छी। – एतेक लिखिकय कर्नल साहब अपना केँ गोली मारि लेलनि। हुनकर कमरा सँ ‘ठाँय’ केर आवाज होइत देरी सब दौड़िकय गेल त देखलक जे कर्नल साहब अपन जीवनक अन्त कय लेने रहथि।
 
माय! ई संसार मे मानवता आगू बढि रहल अछि या पाछू ताहि विन्दु पर अहाँक ई कविता आ बहुत रास मार्मिक घटनाक्रम, बदलैत जीवनशैली आ पूर्वजक शिक्षा – एहि सब सँ हमहुँ बहुत किछु मनन करय लेल बाध्य भेलहुँ। हम सब उच्च शिक्षा आ खूब मालदार नौकरीक चक्कर मे जानि कतय जा रहल छी?
 
हरिः हरः!!