हमर जीवनक उद्देश्य की?

अहाँ अपन पुरुखा सँ किछु सीखू
 
मानव जीवन मे माता-पिता संग कुल-परिवार केर महत्व सेहो काफी उच्च कहल गेल अछि। अहाँक जन्म कोनो कुलीन परिवार मे तखनहि संभव होइत अछि जखन ओहि तरहक कर्मठता अहाँ अपन पूर्व-जन्म मे संचित कयलहुँ। एकर वैज्ञानिक कारण श्रीमद्भगवद्गीता मे श्री अर्जुन द्वारा पुछल गेल एकटा गम्भीर आ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्नक उत्तर मे अध्याय छठम् मे भगवान् कृष्ण देलनि अछि। गीताक सम्पूर्ण पाठ महत्वपूर्ण अछि, लेकिन छठम् अध्याय केँ ‘ब्रह्मविद्या’ मानल गेल अछि। स्वाध्यायी मनुष्यक रूप मे सब सँ पहिने ओहि पर चर्चा करय चाहबः
 
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ (३७)
 
भावार्थ : अर्जुन पुछलनि – हे कृष्ण! प्रारम्भ मे श्रद्धा-पूर्वक योग मे स्थिर रहयवला मुदा बाद मे योग सँ विचलित मनवला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि केँ नहि प्राप्त कयकेँ कोन लक्ष्य केँ प्राप्त करैत अछि? (३७)
 
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ (३८)
 
भावार्थ : हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा केर प्राप्तिक मार्ग सँ विचलित भेल जे नहिये त सांसारिक भोगहि केँ भोगि पेलक आर नहिये अहाँ केँ प्राप्त कय सकल, एहेन मोह सँ ग्रसित मनुष्य कि छिन्न-भिन्न बादल जेकाँ दुनू दिश सँ नष्ट तऽ नहि भऽ जाइत अछि? (३८)
 
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ (३९)
 
भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! हम अहाँ सँ प्रार्थना करैत छी जे हमर एहि संशय केँ सम्पूर्ण रूप सँ केवल अहीं टा दूर कय सकैत छी कियैक तँ अहाँक अलावे आर कियो एहि संशय केँ दूर करयवला भेटब संभव नहि अछि। (३९)
 
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ (४०)
 
भावार्थ : श्री भगवान बजलाह – हे पृथापुत्र! ओहि असफ़ल योगी केर नहि तऽ एहि जन्म मे आर नहिये ऐगला जन्म मे कहियो विनाश होइत छैक, कियैक तँ हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करयवला कहियो दुर्गति केँ प्राप्त नहि होइत अछि। (४०)
 
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ (४१)
 
भावार्थ : योग मे असफ़ल भेल मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोक केँ प्राप्त करैत ओहि मे अनेकों वर्ष धरि जाहि-जाहि इच्छा आदिक कारण योग-भ्रष्ट भेल छल, ताहि सब केँ भोगैत फेर सम्पन्न सदाचारी मनुष्य केर परिवार मे जन्म लैत अछि। (४१)
 
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ (४२)
 
भावार्थ : अथवा उत्तम लोक मे नहि जाकय स्थिर बुद्धिवला विद्वान योगीक परिवार मे जन्म लैत अछि, मुदा एहि संसार मे एहि तरहक जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ अछि। (४२)
 
निष्कर्षः
 
उपरोक्त सन्दर्भ एहि लेल देल जे आब हम सब अपन स्थिति पर विचार करी, संगहि ई विचार करी जे हमर जन्म कोन परिवार मे, हमर माता-पिता आ परिजन तथा कुल-खानदान केहेन अछि, हमर पारिवारिक पृष्ठभूमि केहेन रहल आर भगवान् हमरा पर हमरहि कर्मगतिक केहेन परिणाम (भोग) हमरा देलनि। स्थिति स्पष्ट भऽ जायत जे संचित आ प्रारब्ध केर वासलात केहेन अछि, तदनुरूप अपन जीवन केँ पुनः कर्मयोगी बनिकय आगाँ लेल संचित करय मे लागि जाउ।
 
अन्त मे, कीर्ति यात्रा थिकैक ई जीवन। जँ कय सकी त लोककल्याण आ पर्यावरण ओ प्रकृति हित लेल अपन जीवन केँ समर्पित करू।
 
हरिः हरः!!