लघुकथा
– रूबी झा
फूल दाय केर पाँचटा बेटा छलन्हि। चारिटा शहर में आ एकटा गाम में रहैत छलन्हि। बाहर में जे बेटा सब रहैत छलखिन्ह ओ सब कहैत छलखिन्ह, “माँ तों हमरे सब लग रह, गाम पावैने-तिहारे जायल कर। आब तँ बाबूजी सेहो नैह रहलथि, एतेक दिन तों बाबूजी केर बहाना लगा चलि जाइत छलें। आ बातो ठीक छल। कि तोरा हमरा सब लग नीक नहि लगैत छौक?” फूल दाय कहथिन, “हर साल आबि त जाइते छी, किछु दिन कय सब जगह रहियो जाइत छी, नीक कियै न लागत, हमरा सब जगह नीक लगैत अछि। सब त हमरे अछि ने, आ सब मनितो अछि। लेकिन गाम जेनाय जरुरी अछि ने। और हुनकर प्राण गामें में रहैत छलन्हि।” एहि तरहें फूल दाय जहन गाम जाइत छलीह त दुबराकय हड्डी-हड्डी देखाय लगैत छलन्हि, आ रंग सँ झामैर-झामैर भऽ जाइत छलन्हि देह खटैत-खटैत। कियैक त सब पुतोहु छलखिन्ह बौआसिन आ गाम वाली पुतोहु छलखिन्ह बौआ। हुनकर पति हुनका बौआ कहैय छलखिन्ह। एक दिन एकटा पड़ोसी कहबो केलकैन, “मर तोरी के! कनियाँ केँ बौआ कहैत छियन्हि? तखन बेटा-बेटी केँ कि कहैत छियन्हि, आर ओहु सँ बड़का लफड़ा त तखन होयत जखन पोलियो ड्रप पियाबैवाली अँगना चलि आओत आ अहाँ बौआ कहिकय सोर करबनि त कनियाँ दौड़ल एती।” मुदा ताहि सब बात केँ फूल दायक गामवला बेटा हँसी-चौल मे उड़ा देथि, किछु नहि बाजथि। बौआ (फूल दाय केर गामवाली पुतोहु) एकोटा काज नहि करैत छलखिन्ह। भरि दिन फूल दाय खटैत रहैत छलीह। एक समय रहैन फूल दाय थारिये में हाथ धोइत रहैथि, ततेक खबासनी केर सुख रहनि, आब ओ दिन कहाँ! जखन बीमार पड़ि जाइथ त फेरो बाहर (शहर) आबथि, बेटा सब इलाज करा देथिन। बौआसीन (फूल दाय केर बाहर रहनिहाइर पुतोहु) सब खूब सेवा करथिन्ह। कियेक तँ बेटा सब रहैय छलखिन्ह तत्पर – “माँ भोजन केलक? माँ जलखैय केलक? माँ केँ दूध देलियैक? जखन स्वास्थ्य ठीक भ’ जाइन तंदरुस्त भ जाइथ त फेर गाम चलि जाइथ। गाम में बेटा रहथिन्ह ओ अपन (कनियाँ) बौआ केँ एकटा टहल नहि करय देथिन, कियैक तँ ओ बौआ छलखिन्ह। एक दिन एकटा पाहुन घर पर चलि आयल रहथिन्ह, ओहि समय आंगन में खबासनी नहि रहैय त बौआ ऐँठार पर दुइ-चारिटा कटोरी-बाटी पखारय लगलीह। ओम्हर सँ हुनकर पति एलखिन्ह। कनियाँ (बौआ) केँ काज करैत देखि ओ माँ केँ डाँटय लगलखिन्ह, और बीच आंगन में ठाढ भय जोर-जोर सँ कहय लगलखिन्ह, “माँ! तों कतय छिहीन? देख नहि रहल छिहीन जे बौआ पानि छुबि रहल छथुन?” भरि आँखि नोर भरने फूल दाय ऐँठार पर जाय बौआ केँ हँटा अपने सँ बर्तन पखारय लगलीह। कतहु सुनने रही आ बिल्कुल सत्य सुनने रही, बुढ बाप ककरो नहि चाही, लेकिन बुढ माय सब केँ चाही कियेक तँ माय नौकर जेकाँ खटत आ बाप कि करत। पाठक सब स्वयं बहुत समझदार छथि जे ई सोचता कि फूल दाय केँ भाग्य आ गाम मे रहबाक सख एहेन बेटा रहने कतेक उचित, कतेक अनुचित। हमर राय राखब त पक्षपात संभव अछि।