स्वाध्याय
माधव-विरहिणी राधाक उद्गार
– श्रीजसवंतजी रघुवंशी (भावानुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

१.
बिछुड़कर माधव से हो गयी
मनसुखा बीरन! दशा बिचित्र।
बदलते रहते पल-छिन हाय!
हृदय-पटपर भावोंके चित्र॥
कभी लगता है – जैसे देख
मुझे हँसती है सारी सृष्टि।
और फिर ऐसा लगता कभी,
कर रही है आँसूकी वृष्टि॥
हँसाते कभी, रुलाते कभी,
विहँसते मुरझाते-से फूल।
विकल करती है जिनकी चुभन,
कभी प्यारे लगते वे शूल॥
कभी लगती है इतनी मधुर
विरहकी दहकी-दहकी आग।
कि जिसमें डूबी-डूबी साँस
बढाया करती है अनुराग॥
और फिर कभी जहर-से लगें
उसीके लाल-लाल अङ्गार।
सजाते जब श्वासोंको पुलक,
मिलनके स्वप्न, बने शृंङ्गार॥
कृष्णक विरह मे डूबल हे विरहन मनसुख! माधव सँ बिछुड़िकय बड विचित्र दशा भऽ गेल अछि। ई हरेक पल आ हरेक क्षण मे हृदयक पटपर अलग-अलग भावक चित्र जेकाँ बदलैत रहैत अछि। कखनहुँ लगैत अछि – जेना हमरा देखिकय हँसि रहल अछि ई सारा सृष्टि, आर फेर कखनहुँ लगैत अछि जे ओ सब नोरक बरखा कय रहल अछि। ई फूलाइत विहुँसैत आ मुरझाइत फूल मानू जे हँसबैत अछि कखनहुँ आ कनबैत अछि कखनहुँ। ई विरहरूपी शूल (काँटा) केर गरब कखनहुँ विकल (दुःखी) कय दैत अछि मुदा कखनहुँ बड़ा सुन्दर सेहो लगैत अछि। कखनहुँ एतेक मधुर लगैत अछि एहि विरहक दहकैत आगि कि ओहि मे डूबैत साँस सेहो श्रीकृष्ण सँ अनुराग (प्रेम) केँ आरो बढबैत जेकाँ लगैत अछि। आर फेर कखनहुँ जहर समान लगैत अछि ओहि आगिक दहक – लाल-लाल लपट जे मिलन स्वप्न देखबैत हरेक साँस संग रोम-रोम सिहरेबाक शृंगार बनैत अछि।
२.
झूमता है मेरा हर रोम,
कभी जब बनता ऐसा चित्र।
कि जैसे घूम रहा है संग,
मनसुखा भैया! तेरा मित्रा॥
और फिर हाय! नहीं जब पास
दीखता है यह जीवनमूर।
भटकते रहते व्याकुल नैन
क्षितिज-सीमाओंमें अति दूर॥
कभी काटा करती है कुञ्ज,
कभी मिलता उनमें आवास।
कभी भरती उरमें उन्माद,
कभी तड़पाती है बरसात॥
कभी ये काले-काले मेघ
मिलनके सुखका देते स्वाद।
कभी भरते प्राणोंमें व्यथित
विरहकी पीड़ाका अवसाद॥
हाय! यह आँखमिचौनी नहीं
कभी क्या हो पायेगी बन्द।
सतायेंगे कबतक यों, अरे!
बिछड़ने-मिलनेके ये छन्द॥
हे मनसुख भैया! अहाँक मित्र (श्रीकृष्ण) जेना हमर संगहि घुमि रहल अछि – आर जखन-जखन एहेन चित्र बनैत अछि तखन-तखन हमर रोम-रोम झूमैत अछि। आर फेरो – ओह! जखन ओ जीवनमूर (श्रीकृष्ण) कतहु आसपास नहि देखाय दैत अछि तखन त ई व्याकुल नयन (आँखि) ओकरा तकैत सब क्षितिज (धरातल) केर सीमा सँ सेहो अति दूर धरि भटकैत रहैत अछि। ई गाछ-वृक्ष सँ भरल उपवन सेहो काटय लगैत अछि, फेर कखनहुँ ओहि मे आवास (कृष्णक संग केर आश्रय) सेहो भेटि जाइत अछि। कखनहुँ हृदय मे उन्माद (प्रेमरस सँ भरल स्मृतिक आनन्द) भरि जाइत अछि त कखनहुँ बिछुड़नरूपी बरसातक पीड़ा सँ तड़प भेटैत अछि। कखनहुँ ई कारी-कारी मेघ मिलनक सुख केर स्वाद दैत अछि, त कखनहुँ व्यथित विरहक पीड़ाक अवसाद (दर्द) प्राण मे भरैत अनुभव होइत अछि। ओह, ई आँखि खुजबाक-बन्द होबाक अवस्था त नहि थिक? कि ई कखनहुँ बन्द भऽ सकत? ई बिछुड़न-मिलनक छन्द कखन धरि एहिना सतबैत रहत?
कविक भाव बहुत उच्च अछि। प्रवीणक शब्द भंडार अत्यल्प अछि। एहि उच्च भावक सोझाँ शब्द सँ भक्त पाठकक भावना केँ हम छुबि सकब, ई एको रत्ती विश्वास नहि भऽ रहल अछि। तथापि, ई दुइ सुन्दरतम् रचना अपन स्वाध्यायक भंडार सँ बस अपने लोकनिक समक्ष राखि देल अछि। एकरा अपन-अपन उच्च भावना आ गहींर दृष्टि सँ ग्रहण करब।
राधाजी केर वार्ता मे कृष्ण प्रति ओ अटूट स्नेह जे हुनक भौतिक उपस्थिति सँ इतर आध्यात्मिक उपस्थिति सँ आनन्दक प्राप्तिक चित्रांकन हमरा मोन केँ बहुत बेसी गहराई मे स्पर्श केलक। संगहि, यैह ‘राधाभाव’ थिक, यैह राधाक असल प्रेम थिक जे हुनका कृष्णक अनुचरी बनौलक, ई आत्मज्ञान भेटल। अस्तु! फेर भेटब नव उपहारक संग काल्हि।
हरिः हरः!!