लघुकथा
– रूबी झा
“बाबू यौ फ्रीज खरीद लिय ने, ओहि में सँ ठंडा-ठंडा पैन पिब आ दूध कहियो फटबो नहि करत, दही सेहो नहि खट्टा होयत” ईन्दू अपन पिता सँ बारम्बार आग्रह क रहल छलखिन्ह। पिता बात केँ हमेशा टाइर दैत छलखिन्ह। एक दिन ईन्दू अपन जिद्द पर अड़ि गेली। पिता रिटायर्ड शिक्षक रहथिन्ह, ओ पेंशन उठाबय मधुबनी जाइत रहथिन्ह। ईन्दू केँ पिताजी कहलखिन्ह एक त गाम-घर के बिजली केर कोनो ठेकान नहि, कुन बाटे आबैय छैक आ कुन बाटे चैल जाय छैक, ताहि पर सँ वॉल्टेज सेहो नैह रहैय छैक। डिबिया जेकाँ बल्ब आ पंखी गिनाइत पंखा चलैत रहैय छैक। आ तोँ फ्रीज लेल जिद्द केने छेँ, हम नहि कीनब कहियो फ्रीज। गेल रही दिल्ली सुटन ओतय, रातिक तीमन-तरकारी दिन में आ दिनका तीमन -तरकारी राति में खाय जाइत अछि। ज्यादातर तँ ओकर कनियाँ दिने में बना तरकारी फ्रीज में राखि राति में सबकेँ खुआ दैत छैक। बाइस-खोइस केर कुनू ठेकाने नहि। तहुँ दुनू मायधी इहे करमें, हमरा दिनके राइत में खुएमें। हम नहि फ्रीज आनब। ई बजिते साईकिल पर चढि मधुबनी दिश चैल देला।