कहियो भोर नहि भेलैक, हिरियाक रातिक

सांझ बड़ डराओन
रंगीन होयत क्षितिज एकरा लेल, रंगीला नहि कहियो;
ढलैत दिन, उतरति राति – भयावह बहुत
डरबैछ, पैघ होयत छाया;
खोपड़ि मे बैसल टकटकी लगौने
मुनियां-सोनी-रधिया, भयातुर;
बड़ खतरनाक, नशा मे धुत्त, हरिया,
नढिया सभक कोरस, पड़ोसक लकड़बग्धा,
गहराइत राति,
डरबय बासि-पुरान, अंदेसा सभक दुहराव,
बेर-बेर धड़धड़ करैत छाती!

काज संऽ घुरैत हिरिया लगबैछ अंदाज
आय पहिने गारि दैत वा मोचाड़त बांहि,
मारत लात वा उठाओत चैला,
– ढलकैत सूरज द’ जाइछ अन्हार,
घर मे, मोन मे, दसो दिशा मे!
ई सांझ, ककरो सुनबैत हेतैक तराना सुहाना
मुदा, हरिया लेल सभ दिनक अंत, सांझ मे,
सब सांझ उतरय, सांझ लऽ कय,
राति आनय रोज अंधकार घटाटोप
एहि झोपड़ीक प्रत्येक राति, लम्बा, खूब पैघ
– हिरियाक जिनगी सन लम्बा –
पार लागब मुसकिल!
कहियो भोर नहि भेलैक, हिरियाक राति के
बाट नहि देखल ओ
गोसांय के कहियो!

– अग्निमित्र
१६.०५.२०१५.