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गुरु एवं शिष्य बीचक अन्तर्सम्बन्ध – गुरु सम्मानक मूल कारण ज्ञानक प्राप्ति

गुरु आ शिष्य
– प्रवीण नारायण चौधरी
 
सच छैक जे जाहि कोनो गुरु सँ शिष्य केँ अन्तर्ज्ञान प्राप्त होइत अछि, आर ओ शिष्य ताहि ज्ञानक स्रोत गुरु केर महत्व केँ बेर-बेर अन्तर्मन सँ आत्मसात करैत अछि, से शिष्य सदैव अपन गुरु केर चरण मे शीश नवौने रहत। ई बात आइ विशेष रूप सँ मोन पड़ि गेल कारण जनकपुर केर एक गुरुदेव (विजय दत्त मणि) अपन शिष्य (सुदिष्ट साह) द्वारा कतेको वर्षक बाद केर भेंट मे देल सम्मानक विशेष जिकिर कयलनि। शिक्षक सदैव अपन सर्वोत्तम सीख अपन शिष्य केँ दैत छैक। सब शिष्य ई सीख एकसमान रूप मे ग्रहण नहि कय पबैत अछि, कारण ग्राह्यता शिष्यक भिन्न-भिन्न प्रकृति आ मस्तिष्क-स्मृति संग रुचि आ रखबाक सामर्थ्य अलग-अलग होइत छैक। जेना एक कक्षा मे ४० छात्र-छात्राक बीच एक शिक्षक एक्कहि अन्दाज मे कोनो एक पाठ पढबैत छथिन, तथापि परीक्षा मे मात्र ४-५ गो छात्र-छात्रा सही ढंग सँ ओहि बात केँ बुझैत-गमैत आ तदनुरूप सिखैत छथि। शिष्य जे गुरु केर सम्मान देनाय सीखि गेल, ओ निश्चित ओहि ४-५ विशिष्ट छात्र-छात्रा मध्य केर १ होइत अछि। अन्य लेल गुरुक महत्व धैन सन!
 
रामचरितमानस मे तुलसीदास जी गुरु आ शिष्य केर बीच बहुत नीक तादात्म्य बैसेने छथि, से कतेको स्थान पर। मंगलाचरण मे आ कलियुग वर्णन करैत उत्तरकाण्ड मे – गुरु-शिष्यक एक सुन्दर आख्यान सेहो काकभुशुन्डिजी एवं हुनक गुरु लोमश ऋषि (संभवतः) बीच महादेव मन्दिर केर! एहि आख्यान मे शिष्यक गुमान एतबा बढि गेल रहैत छन्हि जे गुरुक देल शिक्षा सँ बहुत ऊपर ओ अपन ज्ञान केर भान मे आकन्ठ डूबि जाइत छथि। आब ओ अपन ज्ञानक प्रकाश सँ ओत-प्रोत शिव केर सेवा आ चिन्तन मे एहि मन्दिर मे रहि रहला अछि, जतय एक दिन गुरुजी आबि जाइत छथिन। गुरु केँ देखलाक बादो शिष्य मे गुरु प्रति आदर नहि देखेलाक बाद महादेव केँ क्रोध अबैत छन्हि आर ओ भयंकर शाप दैत अपनहि भक्त केँ गुरुद्रोही हेबाक कारण अपना सँ दूर कय दैत छथिन। लेकिन परम दयालुता सँ भरल गुरु केर स्नेह शिष्य प्रति एहनो निरादर भेलाक बावजूद बनल रहबाक बात तुलसीदास जी बड़ा सुन्दरता सँ वर्णन कयलनि अछि। हुनक ई रचना हमर जीवनक एक गोट अतिप्रिय रचना थिकः
 
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभूं व्यापकं ब्रह्मवेद स्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥
 
निराकार मोंकारमूलं तुरीयं, गिराज्ञानगोतीतमिशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥
 
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं, मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरं।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारु गंगा, लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥
 
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
 
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानुकोटि प्रकाशं।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणीं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगमयं॥
 
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्दसंदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
 
न यावद् उमानाथपादारविन्दं, भजंतीह लोके परेवा नराणां ।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥
 
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यं।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीशशंभो ॥
 
ई रुद्राष्टक गुरुजी द्वारा महादेव केँ प्रसन्न करबाक लेल, शिष्य जे हुनक निरादर कएने छल तेकरा शापोद्धार करबाक लेल, गुरु भावपूर्ण स्तुति केने छथि। एहि स्तुतिक एक-एक शब्द मे एतेक पैघ भाव आ समर्पण शिव प्रति निहित अछि जे हमहुँ-अहाँ एकर पाठ करब तऽ अपराध केर क्षमा ईश्वर द्वारा कय देल जायत।
 
चूँकि, गुरु-शिष्य केर आपसी सम्बन्ध पर केन्द्रित छी, तुलसीदासजी एक जगह आर बहुत महत्वपूर्ण बात कहने छथि। अपन मिथिला मे एकटा कहावत अछि “आन्हर गुरु आ बहीर चेला”। बस एहि पर आधारित कलियुगक वर्णन केर क्रम मे तुलसीदास बहुत रोचक पंक्ति लिखने छथि। एहि पर बेर-बेर मनन करूः
 
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥
 
भावार्थ: जे गुरु शिष्य केर धन हरण करैत अछि, मुदा शोक नहि हरण करैछ, ओ घोर नरक मे पड़ैत अछि। माता-पिता बालक केँ बजाकय वैह टा धर्म सिखबैत छथि, जाहि सँ पेट भरय।
 
आर, अन्त मे, उपरोक्त वर्णन सँ पहिनहि काकभुशुन्डिजी एवं गरुड़जीक आपसी चर्चाक क्रम मे निम्न निर्णय देने छथि। तुलसीदास जीक रामचरितमानस मे ‘सोरठा’ कहिकय जे विधा उपयोग कयल गेल अछि, ओ लिखय काल उल्टा छंद मे लिखल गेल अछि आर हमर गुरुजी कहैत छथि जे ‘सोरठा’ माने भेल ‘सो रट’ यानी ‘से याद कय लेल जाउ’। त, अपन पाठक सँ निवेदन करब जे ई याद कय लेब। देखू सुन्दरताः
 
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥89 क॥
 
गुरु केर बिना कहीं ज्ञान भऽ सकैत छैक? अथवा वैराग्य केर बिना कहीं ज्ञान भऽ सकैत छैक? एहि तरहें वेद और पुराण कहैत अछि जे श्री हरि केर भक्तिक बिना कि सुख भेटि सकैत अछि?॥89 (क)॥
 
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥89 ख॥
 
हे तात! स्वाभाविक संतोष केर बिना कि कियो शांति पाबि सकैत अछि? (चाहे) करोड़ों उपाय कय केँ पचि-पचि मारबैक, (तखनहुँ) कि कहियो बिना जल केर कोनो नाव चलि सकैत अछि? ॥89 (ख)॥
 
पुनः, अन्त मे, जाहि गुरु सँ हमरा लोकनि ज्ञान पबैत छी तिनका सँ द्रोह कोनो हाल मे नहि सोचब। सदैव गुरुक आशीर्वाद प्राप्त करबाक भरपुर चेष्टा जारी राखब। हम एहि लेख केँ वैह गुरु केर चरण मे अर्पित कय हुनका बेर-बेर प्रणाम करैत छी।
 
हरिः हरः!!

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