मैथिली बालकथा बाघ पकड़एवला मनुष्य
– सुजीत कुमार झा
एक गाममे एकटा जियालाल नामक हजाम छल । ओ गाममे ओकरा बहुत बड़का समझवाला बुधियार लोक बुझल जाइत छल । एकबेर जियालाल कोनो काजसँ दोसर गाम जाएके लेल घरसँ निकलल । सँगमे दाढ़ी काटएवला पेटी सेहो रखने छल ।
बाटमे बहुत बड़का आ घना जंगल छल, ओकरा पार करएमे तीनचारि घण्टा लागिए जाइत छल । जियालाल बाटमे जाइए रहल छल, की ओकरा एकटा बाघ देखाई देलक । ओ डरसँ घबड़ा गेल । सोचलक आब तऽ बेमौत मारल जाएव ! ई बाघ हमरा खाइए कऽ छोड़त ।
तखने जियालालके एकटा तरकीब सुझल । जहिना बाघ नजदिक आएल, ओ चिचिया कऽ बाजल, ‘आ इम्हर आजो कुत्ता ! आब तोहर ताकत कि छौक से हम देखि लैत छियौक…. आई तों हमर हाथसँ नहि छुटबए…. देखऽ, ई एकटा बाघके तऽ हम भीतरे बन्द कएने छी, आ आब तोरे बारी छौक ।’
जियालाल बाघके कुत्ता कहने छल एहिद्वारे ओ तामससँ आगि बबुल्ला भऽ गेल छल, ओ कुदि कऽ ओकरापर झपटएके प्रयास कएलक, तखने जियालाल पेटीमेसँ ऐना निकालि कऽ बाघके देखौलक ।
बाघ गौर कऽ कऽ ओहि दिस तकलक, ओहिमे अपनेसन मुहँ ओकरा देखाई देलक । ओकरा भ्रम भेल, सहीमे ई तऽ ठीके कहैत अछि । एकटा बाघ तऽ ठीके पकडि़ कऽ रखने अछि । आब तऽ ई हमरो पकडि़ लेत ।
फेर बाघ डरा गेल, ओे लतो पतो ओतएसँ भागल ।
जियालाल ऐनाके अपन पेटीमे रखलक आ ओतएसँ आगा बढ़ल । दोसर गामसँ फिर्ता अबैत काल राति भऽ गेल । जियालाल एकटा बड़का बरक डाढि़पर बैसल आ ओतहि रहबाक निर्णय कऽ लेलक । दाढ़ी काटएवला पेटी सेहो ओतहि डाढि़ पर टांगि देलक ।
किछुए देरक बाद बर गाछक नीचा बाघ जम्मा होबए लागल । एक, दू, तीन चारि एहि तरहे कतेको बाघ जम्मा भऽ गेल ।
आई ओतए बाघ सभक बैसार छल । बहुत बाघमेसँ दिनबला बाघ बाजल, ‘हौ भैया ! आई तऽ गजब भऽ गेल !’
सभ बाघ आश्चर्यसँ ओकरादिस तकैत पूछए लागल, ‘की भेलैक ?’
बाघ बाजल, ‘आई एकटा मनुष्य हमरा बाटमे भेटल…’
‘कि एकहि बेरमे समाप्त कऽ देलहक ?’ तेसर बाघक जिज्ञासा छल ।
‘नहि…।’
‘तऽ कि भेलैक ?’ चारिम बाघ ओकरा दिस तकैत प्रश्न कएलक ।
‘जखन हम ओकरापर झपट्टा मारिकऽ खाएलेल दौड़लहुँ… ’
‘ओ मनुष्यके तखने हृदयगति रुकि गेल हेतैक ?’ पाँचम बाघ बाजल ।
‘नहि….।’
‘तऽ कि ?’ छठम बाघ ठाड़ होइत बाजल ।
दिनबला बाघ बाजल, ‘ओ मनुष्य बाजल छल, ऐ कुत्ता ! एकटा के तऽ हम बन्द कएने छी, आब तोहर पालो छौक । आब तोहुँ आबि जोउ… ।’
‘…जखने ओकरा हम खाए लेल दौड़लहुँ ओ अपन पेटीमेसँ एकटा बाघ निकाललक आ हमरा देखौलक । हम तऽ डरा गेलहुँ आ ओतएसँ लंक लागि कऽ भगलहुँ ।’
दोसर बाघ ई सुनि कऽ बाजल, ‘बस कर बस कर भाई, बेवकुफ बनाबएके लेल जंगलमे आई हमहीसभ भेटल छलियौक ।’
तेसर बाघ सेहो एहनेसन बाजल, ‘बेमतलब के गप्प नहि दें… केओ मनुष्य कोनो बाघकें एहि तरहे पकडि़ सकैत अछि ?’
ओ बाघ बाजल, ‘हँ भैया ! हम तऽ अपन आँखिसँ देखलहुँ अछि ।’
कारी रंगक बाघ बाजल, ‘ओह ! तों तऽ डरपोक छेंए, एहिद्वारे डराकऽ ओतएसँ भगलाए तोहर स्थानपर हम रहितियौ तऽ ओतहि ओकरा समाप्त कऽ दैतियै ।’
बाघक एहि प्रकारक बात सुनिकऽ जियालाल पसीना–पसीना भऽ गेल छल ओ एहि तरहे थर–थराए लागल जे वरक डाढि़सभ हिलए लागल । आोहि गाछपर एकटा बानर सुतल छल । डाढि़के हिललासँ डराकऽ ओ बानर नीचा खसि पड़ल । तखने जियालाल चतुरतापूर्वक काम लऽ कऽ बाजल, ‘भैया, पकैडि़ लऽ ओहि बाघके । खबरदार, छोडि़हए नहि ! ई बाघ अपनाके बड़का बुझैत अछि ।’
ई सुनिकऽ बाघ बाजल, ‘देखलए, हम कहने छलियह ने किओ बाघके पकड़ए निकलल अछि ?’
संयोग किछु एहन भेल जे बानर ओही बाघपर खसल छल । बाघ तऽ कुदैत भागल । पाछासँ अन्य बाघसभ सेहो भागल । सभके सभ भागि गेल ।
भोर भेलाक बाद जियालाल अरामसँ बर गाछसँ उतरल आ अपन गन्तव्य दिस प्रस्थान कएलक ।