श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् : एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषद स्तोत्र – देवी उपासना (मैथिली भावार्थ सहित)

कनेक मनन करू!

durga deviदुर्गा सप्तशती मिथिलाक हर घर लेल एक आवश्यक पोथी मानल जाइत अछि। जे कियो भक्ति साधना सँ जुडल छी, तिनका सभकेँ जरुर देवी उपासनाक महत्त्व बुझल होयत। एक चर्चा हम एतय करय लेल जा रहल छी ओ अछि श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् केर मादे – अथर्ववेद मे देल गेल महिमा अनुरूप आ स्वयं हमरा लोकनि यदि एहि अति महत्त्वपूर्ण आ उपयोगी स्तुतिक अर्थ-सार मनन करब तऽ बुझयमे अबैत अछि:

श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थु:कासि त्वं महादेवीति।॥१॥

ॐ सभ देवता देवीक समीप गेला आ विनम्रता संग पूछय लगलाह – हे महादेवि! अपने के छी?

साब्रवीत् – अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्त: प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च॥२॥

देवी कहली – हम ब्रह्मस्वरूप छी। हमरहिसँ प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप आ असद्रूप जगत् उत्पन्न भेल अछि।

अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्॥३॥

हम आनन्द आ अनानन्दरूपा छी। हम विज्ञान आ अविज्ञानरूपा छी। निश्चितरूपसँ जानय जोग ब्रह्म आ अब्रह्म सेहो हमहीं छी। पञ्चीकृत आ अपञ्चीकृत महाभूत सेहो हमहीं छी। ई समस्त दृश्य-जगत् सेहो हमहीं छी।

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्॥४॥

वेद आ अवेद हमहीं छी। विद्या आ अविद्या हमहीं छी, अजा आ नजा (प्रकृति आ ओहिसँ भिन्न) सेहो हमहीं आ निचाँ-ऊपर, अगल-बगल सेहो हमहीं छी।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवै:। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ॥५॥

हम रुद्र आ वसुक रूपमे सञ्चार करैत छी। हम आदित्य आ विश्वदेवक रूपमें घूमैत छी। हम मित्र आ वरुण दुनू एवं इन्द्र आ अग्निक संग दुनू अश्विनीकुमारक भरण-पोषण करैत छी।

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि॥६॥

हम सोम, त्वष्टा, पूषा आ भगकेँ धारण करैत छी। त्रैलोक्यकेँ आक्रान्त करय लेल विस्तीर्ण पादक्षेप करयवाला विष्णु, ब्रह्मदेव आ प्रजापतिक सेहो हमहीं धारण करैत छी।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्त: समुद्रे। य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति॥७॥

देवतागणकेँ उत्तम हवि पहुँचेनिहाइर आ सोमरस निकालयवाला यजमानक लेल हविर्द्रव्यसँ युक्त धन धारण करैत छी। हम सम्पूर्ण जगत् केर ईश्वरी, उपासक सब लेल धन प्रदान करयवाली, ब्रह्मरूप आ यज्ञार्ह आदि (यजन करऽ जोग देवता)मे मुख्य छी। हम आत्मस्वरूपपर आकाशादि निर्माण करैत छी। हमर स्थान आत्मस्वरूपकेँ धारण करयवाली बुद्धिवृत्तिमे रहैछ। जे एहि तरहें जनैत अछि, वैह दैवी सम्पत्ति लाभ करैत अछि।

ते देवा अब्रुवन् – नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्॥८॥

तखन ओ देवतागण कहलाह – देवीकेँ नमस्कार अछि। पैघ-पैघ लोककेँ अपन-अपन कर्तव्यमे प्रवृत्त करयवाली कल्याणकर्त्रीके सदिखन नमस्कार अछि। गुणसाम्यावस्थारूपिणी मङ्गलमयी देवीकेँ नमस्कार अछि। नियमयुक्त होइत हम हुनका प्रणाम करैत छी।

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नम:॥९॥

हुनक अग्नि-समान वर्णवाली, ज्ञानसँ जगमगेनिहाइर, दीप्तिमती, कर्मफलप्राप्तिक हेतु सेवनकेँ जानयवाली दुर्गादेवीकेर हम शरणमे छी। असुरक नाश करयवाली देवी! अहाँकेँ नमस्कार अछि।

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपा: पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥१०॥

प्राणरूप देव लोकनि जिनक प्रकाशमान वैखरी वाणीकेँ उत्पन्न केलनि, हुनका अनेको प्रकारक प्राणी कहैत अछि। ओहि कामधेनुतुल्य आनन्ददायक आ अन्न एव बल देनिहाइर वाग्‌रूपिणी भगवती उत्तम स्तुतिसँ संतुष्ट होइत हमरा नजदीक अबैथ।

कालरात्रीं ब्रह्मस्तुताँ वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमाम: पावनां शिवाम्॥११॥

कालकेँ सेहो नाश करयवाली, वेदद्वारा स्तुत भेल विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति आ दक्ष कन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवतीकेँ हम प्रणाम करैत छी।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥१२॥

हम महालक्ष्मीकेँ जनैत छी आ हुनक सर्वशक्तिस्वरूपिणीक मात्र ध्यान करैत छी। वैह देवी हमरा ओहि विषय (ज्ञान-ध्यान)मे प्रवृत्त करैथ।

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
ताँ देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धव:॥१३॥

हे दक्ष! अपनेक जे कन्या अदिति छथि, वैह प्रसूता भेली आ हुनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न भेल।

कामो योनि: कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्र:।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्॥१४॥

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि – इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स – वर्ण, मातरिश्वा – वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुन: गुहा (ह्रीं), स, क, ल – वर्ण आ माया (ह्रीं) – ई सर्वात्मिका जगन्माताक मूल विद्या थीक आ ओ ब्रह्मरूपिणी थिकी।

(एहि मन्त्रक भावार्थ: शिवशक्त्यभेदरूपा, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिका, सरस्वती-लक्ष्मी-गौरीरूपा, अशुद्ध-मिश्र-शुद्धोपानात्मिका, समरसीभूत-शिवशक्त्यात्मक ब्रह्मस्वरूपके निर्विकल्प ज्ञान देबयवाली, सर्वतत्त्वात्मिका महात्रिपुरसुन्दरी। यैह मन्त्र सब मन्त्रक मुकुटमणि होइछ आ मन्त्रशास्त्रमे पञ्चदशी आदि श्रीविद्याक नामसँ प्रसिद्ध अछि।)

एषाऽऽत्मशक्ति:। एषा विश्वमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा।
एषा श्रीमहाविद्या। य एवं वेद स शोकं तरति॥१५॥

यैह परमात्माक शक्ति छथि। यैह विश्वमोहिनी छथि। पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण धारण करयवाली छथि। यैह ‘श्रीमहाविद्या’ छथि। जे एना जनैत अछि, वैह शोककेँ पार कय जाइत अछि।

नमस्ते अस्तु भगवती मातरस्मान् पाहि सर्वत:॥१६॥

भगवती! अपनेकेँ नमस्कार अछि। माय! सब प्रकारसँ हमर रक्षा करू।

सैषाष्टौ वसव: सैषेकादशा रुद्रा:। सैषा द्वादशादित्या:। सैषा विश्वेदेवा: सोमपा असोमपाश्च। सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षा: सिद्धा:। सैषा सत्त्वरजस्तमांसि। सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनव:। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि। कलाकाष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम्॥ पापापहारिणी देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्॥१७॥

(मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहैत छथि) वैह ओ अष्ट वसु थिकी, वैह ओ एकादश रुद्र थिकी; वैह ओ द्वादश आदित्य थिकी; वैह ओ सोमपान करयवाली आ सोमपान नहि करयवाली विश्वेदेव थिकी; वैह ओ यातुधान (एक तरहक राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, पक्ष आ सिद्ध थिकी; वैह ओ सत्त्व-रज-तम थिकी; वैह ओ ब्रह्म-विष्णु-रुद्ररूपिणी थिकी; वैह ओ प्रजापति-इन्द्र-मनु थिकी; वैह ओ ग्रह, नक्षत्र आ तारा थिकी; वैह कला-काष्ठादि कालरूपिणी थिकी; वैह पाप नाश करयवाली, भोग-मोक्ष देवऽवाली, अन्तरहित विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेबय योग्य कल्याणदात्री आ मङ्गलरूपिणी देवीकेँ हम सदैव प्रणाम करैत छी।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्नुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्॥१८॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतय: शुद्धचेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञामबुराशय:॥१९॥

वियत् – आकाश (ह) एवं ‘ई’ कारसँ युक्त, वीतिहोत्र – अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र (ँ) सँ अलंकृत जे देवीक बीज अछि, ओ सब मनोरथ पूर्ण करऽवाली थिकी। एहि तरहें एहि एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) केर एहेन यति ध्यान करैत अछि, जेकर चित्त शुद्ध छैक, जे निरतिशयानन्दपूर्ण आ ज्ञानक सागर होइछ। (ई मन्त्र देवीप्रणव मानल जाइत अछि। ॐकारके समान ई प्रणव सेहो व्यापक अर्थसँ भरल अछि। संक्षेपमे एक अर्थ इच्छा-ज्ञान-क्रिया, धार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण होइछ)

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयक:।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधारयुक् तत:।
विच्चे नवार्णकोऽर्ण: स्यान्महदानन्ददायक:॥२०॥

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू – काम (क्लीं), एकर आगू छठम व्यञ्जन अर्थात् च, वैह वक्त्र अर्थात् आकारसँ युक्त (चा), सूर्य (म), ‘अवाम श्रोत्र’ – दक्षिण कर्ण (उ) आ बिन्दु अर्थात् अनुस्वारसँ युक्त (मुं), टकारसऽ तेसर ड, वैह नारायण अर्थात् ‘आ’ सँ मिश्र (डा), वायु (य), वैह अधर अर्थात् ‘ऐ’ सँ युक्त (यै) आ ‘विच्चे’ – ई नवार्ण मन्त्र उपासककेँ आनन्द आ ब्रह्मसायुज्य देवऽवाला होइछ।

हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रात:सूर्यसमप्रभाम।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे॥२१॥

हत्कमलकेर मध्यमे रहयवाली, प्रातकालीन सूर्यक समान प्रभावशाली, पाश आ अङ्कुश धारण करयवाली, मनोहर रूपवाली, वरद आ अभयमुद्रा धारण कैल हाथवाली, तीन नेत्रसँ युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करयवाली आ कामधेनुक समान भक्तक मनोरथ पूर्ण करयवाली देवीकेँ हम भजैत छी।

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्॥२२॥

महाभयकेर नाश करयवाली, महासंकटकेँ शान्त करयवाली आर महान करुणाकेर साक्षात् मूर्ति, अपने महादेवीकेँ हम नमस्कार करैत छी।

यस्या: स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति॥२३॥

जिनकर स्वरूप ब्रह्मादि सेहो नहि जानैथ – ताहि लेल जिनका अज्ञेय कहल जाइत अछि,जिनकर अन्त नहि भेटैत अछि – ताहि लेल जिनका अनन्ता कहल जाइत अछि,जिनकर लक्ष्य देखा नहि पडैत अछि – ताहि लेल जिनका अलक्ष्या कहल जाइत अछि,जिनकर जन्म बुझयमे नहि अबैत अछि – ताहि लेल जिनका अजा कहल जाइत अछि,जे असगरे सर्वत्र थिकी – ताहि लेल जिनका एका कहल जाइत अछि,जे असगरे विश्वरूपमे सजल छथि – ताहि लेल जिनका नैका कहल जाइत अछि,ओ ताहि लेल अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका, आ नैका कहल जाइत छथि।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्या: परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता॥२४॥

सब मन्त्रमे ‘मातृका’ – मूलाक्षररूपसँ रहयवाली, शब्दमे ज्ञान (अर्थ) रूपसँ रहयवाली, ज्ञानमे ‘चिन्मयातीता’ शून्यमे ‘शून्यसाक्षिणी’ आर जिनकासँ दोसर किछुओ श्रेष्ठ नहि अछि, वैह दुर्गाक नाम सँ प्रसिद्ध छथि।

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्॥२५॥

ओहि दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशक आ संसारसागरसँ तारनिहाइर दुर्गा देवीकेँ संसारसँ डेरायल हम नमस्कार करैत छी।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रात: प्रयुञ्जानो अपापो भवति। निशीथे तुरीयसंध्यायां जप्त्वा वाकसिद्धिर्भवति। नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति। स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥

एकर अध्ययन सायंकाल (साँझ)मे करऽवालाकेर दिनमे कैल गेल पापक नाश होइत अछि, प्रातकाल (भोर)मे अध्ययन करऽवालाकेर रातिमे कैल गेल पापक नाश होइत अछि। दुनू बेरमे अध्ययन करनिहार निष्पाप होइत अछि। मध्यरात्रिमे तुरीय (श्रीविद्याक उपासक लेल चारि संध्या आवश्यक होइछ। जाहिमे तुरीय संध्या मध्यरात्रिमे होइछ।) संध्याक समय जप केलासँ वाक् सिद्धि प्राप्त होइछ। नव प्रतिमापर जप केलासँ देवतासान्निध्य भेटैत अछि। प्राणप्रतिष्ठाक समय जप केलासँ प्राणक प्रतिष्ठा होइछ। भौमाष्विनी (अमृतसिद्धि) योगमे महादेवकेर सन्निधिमे जप केलासँ महामृत्युसँ तैर जाइत अछि। जे एहि तरहे जनैत अछि, ओ महामृत्युसँ तैर जाइत अछि। एहि तरहे ई अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या थीक। उपनिषदकेर यैह विचार अछि।

हरि: हर:!!