स्वाध्याय
माध्वसंमत-द्वैतवेदान्तवादः
– पंडित रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

पं. रुद्रधर झा केर अनेकों महत्वपूर्ण आलेख मैथिली मे प्रकाशित
श्रीमन्मध्वमते हरिः परतरः सत्यं जगत्तत्त्वतो-
भेदो जीवगणा हरेरनुचरा नीचोच्चभावं गतः।
मुक्तिर्नैजसुखानुभूतिरमला भक्तिश्च तत्साधनं
ह्यक्षादित्रितयं प्रमाणमखिलाम्नायैकवेद्यो हरिः॥
१. स्वतन्त्र चेतन – सर्वज्ञ-अचिन्त्यशक्तिसम्पन्न – अनन्तगुणाश्रय भगवान् विष्णु एक परमतत्त्व
२. अस्वतन्त्र चेतन – जीव अनन्त अणु
३. पञ्च भेदाः सत्याः – जीवेश्वरभेदः, जीवजडभेदः, ईश्वरजडभेदः, जीवानां परस्परभेदः, जडानां परस्परभेदश्च
४. मायोपादानक – परमात्मनिमित्तकारणक जगत् सत्य
५. सृष्टिक्रम – भगवान् महदादि अचेतन तथा चेतन अंश सब केँ उदर मे निःक्षेप कय ब्रह्माण्ड मे प्रवेश करबैत छथि। तखन जल मे सुतल हुनक नाभि सँ कमल, ओहि मे ब्रह्मा, ओहि मे देवादि तथा मन आदिक सृष्टि
“ब्रह्माक तपस्या सँ प्रसन्न परमात्माक शरीर सँ पञ्चभूत, जेकर सहायता सँ ब्रह्माक द्वारा सृष्टि।”
तखन अविद्या, जेकर – मोह, महामोह, तामिस्त्र, अन्न तामिस्त्र तथा तम ई ५ पर्व थिक आर जीवाच्छादिका, परमाच्छादिका, शैवला तथा माया ई चारि भेद थिक। सब अविद्या जीवाश्रित अछि, जे कि प्रत्येक जीव लेल अलग-अलग छैक। एहि क्रम सँ सूक्ष्मस्थूलादि जगत्सृष्टि।
६. लयक्रम – प्रलय केर २ भेद – महाप्रलय तथा अवान्तर प्रलय ।
अवान्तर प्रलय केर २ भेद – दैनन्दिनप्रलय तथा मनुप्रलय।
क. दैनन्दिन प्रलय – ब्रह्माक रात्रि एलापर भूः, भुवः तथा स्वः एहि तीन लोक केर नाश।
ख. मनुप्रलय – प्रत्येक मनु केर भोगकालक समाप्तिक समय भूलोक केर मनुष्यादि मात्र केर नाश।
ग. महाप्रलय – गुणत्रय सँ लय केँ ब्रह्मादि समस्त ब्रह्माण्ड केर विनाश। एहि समय भगवान् सहस्रशीर्षा सँ शेष या संकर्षण केर भीतर प्रविष्ट भऽ मुंह सँ अग्निक ज्वाला निकालैत छथि, जाहि सँ आवरण सहित ब्रह्माण्डादि सब कार्य जरिकय अपन-अपन कारण मे लीन भऽ केवल प्रकृति रहि जाएत अछि। एहि समय भगवान् शून्य मे नारायण केर रूप मे जलराशि स्थित वट पत्र पर सुतैत छथि, समस्त जीव हुनकर उदर मे रहैत अछि।
७. पदार्श दस अछि – जेना – द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति सादृश्य तथा अभाव। जे द्रवण अर्थात् गमन प्राप्य भऽ जाय ओ तथा उपादान एवं उपादेय द्रव्य कहाइत अछि।
उपादान केर २ भेद छैक – परिणामी तथा अभिव्यञ्जक।
द्रव्य २० प्रकारक होएछ – परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत आकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्व, अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल तथा प्रतिबिम्ब।
क. परमात्मा – ई श्रुत, अश्रुत तथा विरुद्ध आदि अनन्त गुण सँ पूर्ण आ सर्वज्ञ अछि, एकर ज्ञान महाशुद्ध, चिद्रुप, सब वस्तु आदिक स्पष्ट दर्शनात्मक, नित्य, एक प्रकार, निर्दोष तथा अविकार छैक। सृष्टि, स्थिति, संहार, नियम, अज्ञान, बोधन, बन्ध तथा मोक्ष यैह करैत छैक, अतः ‘एकराट्’ कहाइत अछि। एकर शरीर नित्य, ज्ञानात्मक, आनन्दरूप तथा अप्राकृतिक छैक, जेकर प्रत्येक अंग आनन्दमय तथा चिद्रूप छैक। ई सर्वस्वतन्त्र, तथा एक अछि, एकर साम्य सेहो मुक्त जीव केँ नहि भेटैत अछि, ऐक्य तऽ दूर अछि। ई जीव केर प्रत्येक रूप मे तथा सब अवतार मे पूर्णरूप सँ वर्तमान रहैत छैक। एकर अपन तथा आविर्भूत रूप अजर, अमर, चिदानन्दमय तथा अपरिच्छिन्न छैक। तैँ एहि मे परस्पर कोनो भेद नहि छैक आर अवतार केर बन्धन वा मोक्षक प्रश्न नहि छैक। अविद्या, कामकर्म, लिंगशरीर, त्रिगुणात्मक मन तथा स्थूलशरीर सेहो एकरे अधीन अछि, तथा सुख ओ दुःख सेहो। अतः ई नित्यमुक्त अर्थात् सदा ‘बन्ध-मोक्ष रहित’ अछि। तथापि वैकुण्ठ मे चिन्मय लक्ष्मी, भवन आदि सँ सेवित तथा मुक्तजीव ब्रह्मादि सँ पूजित होएत अछि।
ख. लक्ष्मी – परमात्मा विष्णु सँ सर्वथा अभिन्न रहैतो भिन्न छथि, अतः अनन्तशक्तिसम्पन्ना, नित्यमुक्ता, आप्तकामा तथा सच्चिदानन्दस्वरूपिणी छथि। जे एक क्षण मे ब्रह्मादि जीव तथा जगत् केर सृष्टि, स्थिति, लय, महाविभूति, बन्ध एवं मोक्ष आदि केर सम्पादन करैत छथि। भगवान् केर संग हिनकर योग नित्य छन्हि। श्री, दुर्गा, दक्षिणा, सीता, जयन्ती आ रुक्मिणी आदि समस्त देवी हिनकहि मूर्ति थिकन्हि।
ग. जीव – अज्ञान, मोह, भय तथा दुःख आदि दोष सँ युक्त भेलाक कारण संसार होएछ जीव। ई परमसूक्ष्म अछि, तैँ एक परमाणु प्रदेश मे सेहो अनन्त जीव रहैत अछि, एकर गण सेहो अनन्त छैक, जेना – सुरगण, असुरगण तथा ऋजुगण आदि। जीव केर तीन भेद अछि, यथा – मुक्तियोग्य, तमोयोग्य तथा नित्यसंसारी। एहि मे मुक्तियोग्य पाँच प्रकारक होएछ – यथा देव-ब्रह्मादि, ऋषि-नारदादि, पितृ-चिरादि, चक्रवर्त्ती रघु आदि तथा मनुष्योत्तम द्विविध अछि - जेना, १. एकगुणोपासक अर्थात् आत्ममात्ररूप सँ ईश्वरोपासक, तृणजीवादि; २. चतुर्गुणोपासक अर्थात् सत्, चित्, आनन्द और आत्मरूप सँ ईश्वरोपासक। तद्भिन्न सब तमोयोग्य चतुर्विध अछि – जेना, दैत्यं, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य। नित्यसंसारी स्वर्ग, नरक तथा पृथ्वी मे घूमैत रहल सुख-दुःख भोगैत अछि, ओ मध्यम मनुष्य होइत अछि जे अनन्त अछि। योगी या मुक्तजीव मे सेहो ज्ञान, संकल्प तथा आनन्द केर भेद सँ परस्पर भेद छैक, तैँ ईहो सब शुभकर्म करैत छथि, तथापि हुनका लोकनि मे दुःखाभाव तथा लिंगभेदक साम्य सँ साम्य कहल गेल अछि।
घ. अव्याकृत आकाश – दिक् अछि, जे नित्य, एक, व्याप्त तथा स्वगत अछि। ई सृष्टि मे अविकारी आ प्रलय मे अविनाशी भेला सँ अव्याकृत कहल गेल अछि। एकर पूर्व, दक्षिण आदि विभाग स्वाभाविक छैक, तैँ सूर्यहीन वैकुण्ठ मे सेहो ई विभाग ज्ञात होएत अछि। ई नीरूप, कूटस्थ, साक्षिसिद्ध तथा निष्क्रिय अछि।
ङ. प्रकृति – साक्षात् क्षण आदि कालविभाग तथा गुणत्रय केर तथा परम्परया, महदादिक उपादान कारण अछि। ई जड़ा, परिणामिनी, अव्यक्ता, नित्या, व्यापिका तथा नानारूपा अछि।
च. गुणत्रय – सत्त्व, रजस् तथा तमस् अछि। भगवान् द्वारा प्रकृति सँ एकरा उत्पन्न कयल गेल। गुणत्रयक वैषम्य केँ सृष्टि तथा साम्य केँ प्रलय कहल जाइछ। रजस् केर प्रधानता सँ सृष्टि, सत्त्व केर प्रधानता सँ स्थिति तथा तमस् केर प्रधानता सँ संहार होइत छैक। एहि सँ महदादि-सृष्टि होइत छैक।
छ. महत्तत्व – केर साक्षादुपादान गुणत्रय अछि, अतः प्रलय मे ई ओही मे लीन होइत अछि।
ज. अहंकार – एकर उत्पत्ति तमोगुण प्रधान महत्तत्व सँ होइत छैक, एकर तीन भेद छैक – वैकारिक, तैजस तथा तामस।
झ. बुद्धि – एकर उत्पत्ति महत्तत्व सँ होएत छैक, एकर दुइ भेद अछि – तत्त्वरूप तथा ज्ञानरूप, जाहि मे ज्ञानरूप बुद्धि गुण विशेष अछि।
ञ. मन – एकर उत्पत्ति वैकारिक अहंकार सँ होएत छैक, एकर दुइ भेद अछि – तत्त्वरूप आर तद्भिन्न, जाहि मे तद्भिन्न मन इन्द्रिय अछि, एकरो दुइ भेद छैक – नित्य तथा अनित्य, जाहि मे नित्य मनोरूप इन्द्रिय, भगवान् तथा समस्त जीव केर स्वरूपभूत चैतन्यस्वरूप थिक, तैँ ई साक्षी कहाइत अछि। बद्ध जीव केर मन, चेतन तथा अचेतन दुनू छी, मुदा मुक्त केर मन केवल चेतन टा छी। भगवान् जीव केर देह मे रहिकय ओकर इन्द्रिय सँ सेहो भोग भोगैत छथि। अनित्य मनोरूप इन्द्रिय सब जीव मे अछि, जे बाह्य पदार्थ थिक। एकर पाँच भेद छैक – मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त तथा चेतना। एहि मे पूर्वचार प्रसिद्ध अछि, कार्य करबाक शक्ति मात्र चेतना थिक।
ट. इन्द्रिय – स्व-विषय (अपन विषय) केर प्रति गतिशील अछि, एकर दुइ भेद छैक – तत्त्वभूत तथा तत्त्वभिन्न। नित्य तथा अनित्य । ज्ञानेन्द्रिय आ कर्मेन्द्रिय। एहि मे तत्त्वरूप, अनित्य, ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय पञ्चभूत एवं तैजस अहंकार सँ उत्पन्न भेला सँ प्राकृत अछि आर तत्त्वभिन्न, नित्य, ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय भगवान् तथा जीव केर स्वरूपभूत एवं साक्षी अछि।
ठ. तन्मात्रा – सूक्ष्म शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध थिक। एकर दुइ भेद अछि – तत्त्वरूप तथा तद्भिन्न। जाहि मे तत्त्वरूप तामस अहंकार सँ उत्पन्न एवं द्रव्य अछि तथा तद्भिन्न आकाशादिक गुण थिक।
ड. भूत – तन्मात्रा सँ क्रमशः उत्पन्न आकाशादि पाँच गोट अछि।
ढ. ब्रह्माण्ड – महदादि पृथिव्यन्त, भिन्न-भिन्न एकमात्र उपादान सँ उत्पन्न होयबाक कारण प्राकृत पदार्थ थिक, मुदा ब्रह्माण्ड चौबीसो उपादानन सँ उत्पन्न भेला सँ विकृत पदार्थ छी, जे पचास कोटि योजन विस्तीर्ण अछि। आर एकर उपरका भाग सोनाक ‘आकाश’ थिक तथा निचुलका भाग चाँदीक ‘पृथ्वी’ थिक।
ण. अविद्या – पञ्चभूत केर तमोगुण सँ उत्पन्न होएत अछि अविद्या। एकर पाँच श्रेणी छैक – जाहि मे क्रमशः विपर्यय, आग्रह, क्रोध, मरण तथा शार्वर सेहो कहाइत अछि।
त. वर्ण – ‘अ’कारादिक भेद सँ ५१ टा अछि, एहि सँ वैदिक तथा लौकिक शब्द बनल अछि। प्रत्येक वर्ण व्यापक तथा नित्य द्रव्य भेला सँ कतहु समवेत नहि अछि।
थ. अन्धकार – नील रूप तथा चलन क्रियाक आश्रय भेला सँ द्रव्य थिक, आर ई जड़ा प्रकृति सँ उत्पन्न होएत अछि।
द. वासना – एहि सँ स्वप्न पैदा होइत अछि, जे शुभ या अशुभ भेला सँ सत्य अछि। अनादि अनुभव परम्परा सँ उत्पन्न संस्कार टा वासना थिक, जे अन्तःकरणाश्रित अछि।
ध. काल – अतीतादि व्यवहारक व्यवस्थापक, क्षणलवाद्यनेकरूप प्रकृति सँ उत्पन्न तथा ओही मे लीन होयवला थिक जे सर्वाधार अछि आर एकर प्रवाह नित्य छैक।
न. प्रतिबिम्ब – बिम्ब सदृश वस्तु प्रतिबिम्म थिक, जेकर सत्ता तथा क्रिया बिम्ब केर अधीन छैक। एकर दुइ भेद छैक – नित्य आर अनित्य, जाहि मे परमात्माक प्रतिबिम्ब (समस्त चेतन) नित्य छैक, आर दर्पणादि मे मुखादिक प्रतिबिम्ब अनित्य छैक।
गुण – रूपादि २४ गुणक संग लघुत्व, मृदुत्व, काठिन्य, आलोक, शम, दम, तितिक्षा, बल, भय, लज्जा, गाम्भीर्य, सौन्दर्य, धैर्य, स्थैर्य, शौर्य, औदार्य और सौभाग्य आदि अनेकों अछि। एहि मे रूपादि पाँच, पृथ्वी मे पाकज तथा अपाकज दुनू अछि आर अन्यत्र अपाकज टा अछि। एहि मत मे अवयवी टा मे पाक होएत छैक।
कर्म – कर्म दुइ प्रकारक अछि – दृष्ट तथा अदृष्ट। एहि दृष्ट कर्म छः तरहक होएत छैक – नित्य, नैमित्तिक, काम्य, निषिद्ध, प्रायश्चित आ उपासना। एहि मे नित्य कर्म ओ थिक जेकरा नहि कयला सँ पाप होयत आर कयला सँ कोनो फल विशेष नहि होयत, जेना सन्ध्यावन्दन आदि। नैमित्तिक कर्म ओ थिक जे नहि केला सँ पाप होयत आर केला सँ फल सेहो विशेष हो, जेना ग्रहण-स्नान, माता-पिता-गुरु-अतिथिक सेवा आदि। काम्य कर्म ओ थिक जे नहि कला सँ कोनो पाप नहि हो आर केला सँ फल विशेष हो, जेना गंगा-स्नान, तीर्थ यात्रा, भगवत्पूजन आ पुराण पाठ आदि। निषिद्ध कर्म ओ थिक जे केला सँ अनिष्ट होयत जेना ब्रह्महत्या, गोहत्या, असत्य भाषण आर चोरी आदि। प्रायश्चित कर्म ओ थिक जे कोनो पाप केर निवृत्तिक लेल कयल जाय, जेना चान्द्रायण आ प्राजापत्य व्रत आदि। उपासना कर्म ओ थिक जेकरा कयला सँ मन एकाग्र होयत तथा कल्याण सेहो होयत, जेना भगवान् या भगवती केर चिन्तन आदि।
अदृष्ट कर्म तीन प्रकार केर होएछ – सञ्चित, प्रारब्ध आ क्रियमाण। एहि मे सञ्चित कर्म ओ भेल जे अनेकों जन्म मे मानवोचित बुद्धियुक्त प्राणीक द्वारा कयल गेल विहित या निषिद्ध कर्म सँ उत्पन्न पुण्य या पाप केर समुदाय थिक। प्रारब्ध कर्म ओ थिक जे मरलाक बाद भेटय वला शरीर, ओकर आयु आ ओहि शरीर मे भेटय वला सुख या दुःख केर साक्षात्कार रूप भोग केँ देबाक लेल फलोन्मुख कर्म समुदाय (सञ्चित सँ छँटिकय) उपस्थित भेल हो। क्रियमाण कर्म ओ थिक जे वर्तमान मानवोचित बुद्धियुक्त शरीर द्वारा क्रियमाण विहित या निषिद्ध कर्म सँ उत्पन्न पुण्य या पाप केर समुदाय अछि।
आर्षवाणी –
त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभिः पक्षैस्त्रिभिर्दिनैः।
अत्युत्कटैः पापपुण्यैरिहैव फलमश्नुते॥
तीन वर्ष सँ या तीन मास सँ या तीन पक्ष सँ या तीन दिन सँ अति उत्कट पाप या पुण्य सँ उत्पन्न फल केँ एतय भोगैत अछि। जेना कर्मशब्द सँ अदृष्ट पुण्य आर पाप रूप फल केर बोध होएत छैक ‘कर्मानुगो गच्छति जीव एकः’ अपना पाछाँ चलयवला पुण्य आ पाप रूप कर्म थिक जेकर कारण जीव असगरे परलोक पथ पर जाइत अछि, एतय, ओहेन कर्म शब्द सँ पुण्य या पाप केर जनक क्रिया रूप दृष्ट कर्म केर सेहो बोध करबैत अछि। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ – अहाँक कर्म करय टा केर अधिकार अछि एतय। तैँ कर्म शब्द दृष्ट आ अदृष्ट दुनू कर्म केर बोधक थिक।
हमर नोटः
आइ हमरा लोकनि पदार्थ विज्ञान (भौतिकी), जीवविज्ञान आ रसायन विज्ञान केर तीन प्रभाग मे अध्ययन कय मनुष्य जीवन आ उपयोगिताक विभिन्न विन्दु पर अध्ययन करैत छी – परञ्च वैदिक विज्ञान समस्य जीवनसिद्धान्त केँ परिभाषित करैत ओ सब बात बतबैत अछि जे एहि लोक सँ परलोक धरिक केहेन संरचना आर कोन-कोन पदार्थ, दृश्य, अदृश्य आ काल्पनिक, स्वप्निल आदि यथार्थतः अस्तित्व मे अछि। एहि पर गहन चिन्तन करैत अपन जीवन केँ हमरा लोकनि सत्मार्ग लेल उपदेश करी, अनुकरण करी। ॐ तत्सत्!
हरिः हरः!!