ईश्वर – अनिवार्य आ ऐच्छिक
(Worth Contemplating, Ponder Pravin, Ponder on It!)
– पंडित रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
“सर्वेषामपि पूज्यानां पिता वन्द्यो महान गुरुः।
पितुः शतगुणा माता गर्भधारणपोषणात्॥
विद्या मन्त्रप्रदः सत्यं मातुः परतरो गुरुः।
नहि तस्मात्परः कोऽपि वन्द्यः पूज्यश्च वेदतः॥”
– ब्रह्मवैवर्तपुराण कृष्णजन्म ७२/११०, ११२
समस्त पूज्य लोकनि मे पिता वन्द्य महान् गुरु छथि, मुदा माता गर्भ मे धारण आ पालन करय सँ पिता सँ सौ गुना श्रेष्ठ छथि। सत्य अछि जे विद्या तथा मन्त्र केर दाता गुरु माता सँ बेसी श्रेष्ठ छथि, वेदानुसार गुरु सँ पैघ वन्द्य आ पूज्य कियो आर नहि छथि।
‘पितुः शतगुणा माता, मातुः शतगुणः सुरः।
मन्त्रदस्तन्त्रदश्चैव सुराणां च चतुर्गुणः॥’
– ब्रह्मवैवर्तपुराण कृष्णजन्म ८३/११
पिता सँ सौ गुना माता, माता सँ सौ गुना इष्टदेव आर इष्टदेव सँ चारि गुना मन्त्र तथा शास्त्र देनिहार गुरु श्रेष्ठ छथि।
‘अभ्यागतोज्ञातपूर्वो ह्यज्ञातेऽतिथिरुच्यते।
तयोः पूजां द्विजः कुर्यादिति पौराणिकीश्रुतिः॥’
– महाभारत अश्वमेधिकापर्व
अचानक पहुँचल परिचित अभ्यागत तथा अपरिचित अतिथि कहाइत छथि, द्विज ओहि दुनू केँ पूजा करथि, ई श्रुति थिक।
‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथिदेवो भव।’
– तैत्तिरिय उपनिषद् १/११/२
माय केँ ईश्वर बुझू, पिता केँ ईश्वर बुझू, गुरु केँ ईश्वर बुझू, अतिथि केँ ईश्वर बुझू।
‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः’
– श्वेताश्वतर उपनिषद् ६/११
एक ईश्वर समस्त भूतादि मे व्याप्त छथि – एतय देवशब्द जेना ईश्वरवाचक मात्र छथि, तहिना उपरोक्त देव शब्द सेहो ईश्वरवाचक मात्र छथि। जँ एतुक देव शब्द देवसामान्यबोधक होयत तऽ अनेको पुराण मे – ‘सर्वदेवमयः शिवः’ तथा ‘सर्वतीर्थमयोहरिः’ वचनक समान विद्यमान ‘सर्वतीर्थमयी माता’ ‘सर्वदेवमयः पिता’ ‘सर्वदेवमयो गुरुः’ आ ‘सर्वदेवमयोऽतिथिः’ वचनक यथार्थ भाव समुत्पन्न नहि होयत, प्रत्युत सर्वदेवमयक देवसामान्य कहब ओकर उपहास टा होयत।
एहि विवेचन सँ सिद्ध अछि जे – माता, पिता, गुरु आ अतिथि – ई चारू अनिवार्य ईश्वर छथि आर वेदमे – ‘ईश्वर देवो भव’ नहि रहला सँ ईश्वररूप सँ उपास्य सगुण निराकार या सगुण साकार चेतन ऐच्छिक ईश्वर छथि। कियैक तँ ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’ (मनुस्मृति) वेद केँ नहि मानयवला नास्तिक अछि, नहि कि ईश्वर केँ नहि मानयवला, तैँ वेदकेँ मानयवला आ ईश्वर केँ नहि मानयवला मीमांसा आ सांख्य दर्शन सेहो आस्तिक छः दर्शन मे गानल जाइत अछि। ‘पतिरे को गुरुः स्त्रीणाम्’ (मनुस्मृति) – सौभाग्यवती स्त्रिगणक एकमात्र पति टा गुरु (अनिवार्य ईश्वर) छथि।
दार्शनिक सम्राट श्री वाचस्पति मिश्र प्रथम ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यक भामती मे लिखने छथि – ‘नित्य नैमितिक कर्माननुतिष्ठन् प्रतिक्षणमुपचीयमानपप्पाऽधोगतिं गच्छति’, नित्य तथा नैमित्तिक कर्म केँ नहि करैत प्रतिक्षण बढैत रहल लोक पाप सँ युक्त भऽ कय अधोगति केँ प्राप्त करैत अछि। एहि सँ सिद्ध अछि जे – नित्य और नैमित्तिक कर्म केँ नहि करय सँ पाप होएत छैक। जाहि सँ इहलोक आ परलोक मे घोर कष्ट भोगय पड़ैत छैक। सभक लेल माता-पिता, गुरु, अतिथिक आ सधवा नारीक लेल पतिक सेवा नैमित्तिक कर्म थिक, तथा ई केला सँ महान् पुण्य आर ओकर फल सर्वमुख भेटैत अछि। ‘आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी (श्रीमद्भगवद्गीता ७/१६) – पीड़ित पीड़ानिवृत्तिक, ज्ञानेच्छुक ज्ञानक प्राप्तिक आ धनार्थी धनक कामना सँ हमरा (भगवान्) केँ भजैत अछि। एहि अपनहि वचन सँ भगवान सेहो अपना केँ ऐच्छिक ईश्वर सिद्ध कयलनि अछि। अतः भगवानक पूजा, वन्दना आदि काम्य कर्म थिक, कियैक तँ एकरा नहि कयला सँ पाप नहि होएत अछि आर श्रद्धा तथा विश्वास सँ कयला पर कामना पूर्ण होएत अछी।
प्रश्नः भगवान् वेद मे ‘ईश्वर देवो भव’ नहि कहलनि तथा उक्त भगवद्गीताक वचन सँ सेहो अपना केँ ऐच्छिक ईश्वर कियैक सिद्ध कयलनि अछि?
उत्तरः भगवान् जनैत छलाह जे समस्त संसारक मानव मे चार्वाक, जैन, बौद्ध, मीमांसा आर सांख्यदर्शनक अनुयायी तथा सनातनधर्मी लोकनिक वंशज सेहो अधिकांश मनुष्य हम (ईश्वर) केँ माननिहार होयत, एहेन स्थिति मे हम जँ अपना केँ अनिवार्य ईश्वर सिद्ध करब तऽ हमरहि सन्तति (अमृतस्य पुत्राः) अधिकांश मानव ईश्वर केँ नहि मानय सँ परम दुर्गतिक भागी होयत, तैँ ओ (ईश्वर) उक्त कारण सँ अपना केँ ऐच्छिक ईश्वर टा सिद्ध कएने छथि, तथापि हिनका पर पूर्ण श्रद्धा आ विश्वास रखनिहार लोकक दृष्टि मे ओ निम्नलिखित कारण सँ अनिवार्य सम ईश्वर छथि –
१. ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’ (श्रीमद्भगवद्गीता १०/५) प्राणी लोकनिक नानाविध भाव हमरहि सँ होएत छैक। ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनञ्च’ (श्रीमद्भगवद्गीता १५/१५) हम (भगवान्) सभक हृदय मे स्थित छी आर हमरहि सँ सब केँ स्मरण, ज्ञान आ बिसरब होएत छैक।
‘बोले बिहसि महेस तब ज्ञानी मूढ न कोइ॥
जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ॥’
– रामचरितमानस बालकाण्ड १२४ ‘क’
अतः भगवान् सभक गुरू सम ईश्वर छथि।
२. ‘हरिरेव जगज्जगदेव हरिर्हरितो जगतो नहि भिन्नतनुः’ (आर्षवाणी) – भगवान् मात्र सम्पूर्ण जड़-चेतनमय विश्व थिकाह तथा समस्त जड़-चेतनमय संसार मात्र भगवान् थिक, कियैक तँ सम्पूर्ण जड़-चेतनमय जगत् केर भगवान् सँ भिन्न देह नहि अछि। अर्थात् – भगवान् केर देह समस्त जड़-चेतनमय संसार अछि आर सम्पूर्ण जड़-चेतनमय विश्व केर शरीर भगवान् छथि। बृहदारण्यक उपनिषद् मे सेहो लिखल अछि – आकाश, वायु, अग्नि, जल आ पृथिवी भगवद्रूप ब्रह्म केर शरीर थिक। एहेन स्थिति मे जखन भगवान् केर शरीर – आकाश मे रहिते सब कर्म करैत अछि, वायु सँ साँस लैत जियैत अछि, अग्नि सँ बनल भोजन-प्रकाशादि पबैत अछि, जल सँ भेल स्नान-भोजन तथा जीवनादि भेटैत अछि आर पृथिवी पर रहब-चलब-बैसब-सुतब आ समान सभ राखबाक काज होएत अछि आर समस्त प्राणी शरीरहि सँ सुख भोगैत अछि – ताहि स्थिति मे हुनका नहि मानब तथा अपन सहज आ विहित कर्म सँ नहि पूजब घोर कृतघ्नता होयत, जेकर कोनो प्रायश्चित तक नहि छैक।
‘ब्रह्मघ्ने च सुराये च चौरे भग्नव्रते तथा।
निष्कृतिर्विहिता राजन् कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः॥’
- महाभारत शान्तिपर्व १७२/२५
ब्रह्महत्या, मद्यपान, चोरी आर व्रतभङ्गक प्रायश्चित शास्त्र मे विहित अछि, मुदा कृतघ्नताक प्रायश्चित नहि छैक। तैँ भगवान् अनिवार्य सम ईश्वर मान्य छथि।
३. ‘भक्तिहीनेन यत्किञ्चित्कृतं सर्वमसत्समम्’ (अध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड ७/६७) भगवान् केर भक्ति सँ रहित मनुष्य द्वारा जे किछु कयल जाएत अछि ओ सब नहिये केलाक समान होएत छैक। तैँ भगवान् केर भक्ति सहित स्वकर्ममात्र करबाक लेल अपेक्षित सामर्थ्य आ ज्ञानक लेल स्मरणक द्वारा सदिखन भगवान् सँ सम्बद्ध रहब आवश्यक अछि। ताहि सँ भगवान् अनिवार्य सम छथि। अतएव – जगद्गुरु भगवान् कृष्णक द्वारा मानव मात्र लेल देल गेल सार्वकालिक दुइ आदेश – ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’ ‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।’ (श्रीमद्भगवद्गीता ८-७, ८-२७) “अर्जुन! ताहि कारण सँ सदा योग (समत्वं योग उच्यते – श्रीमद्भगवद्गीता २-४८ – समत्व योग कहाइत अछि, ताहि अनुसार समता) सँ युक्त भऽ कय हमरा (भगवान् केर) ध्यान करू आ युद्ध आदि अपन स्वाभाविक कर्म मात्र करू” एकर पालन सब मनुष्य केँ करबाक चाही। कियैक तँ सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ आदेशक केँ ध्यान मे रखला पर – ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (श्रीमद्भगवद्गीता १८/४६) ‘अपन सहज कर्म सँ भगवान् केँ पूजा कय मनुष्य सिद्धि केँ पबैत अछि’, एकरा मुताबिक (कर्म मे स्वभावतः स्थितबन्धकता केर अभवारूपकौशलक जनक) समता सँ युक्त भऽ कय अपन सहज कर्म केँ करय मे प्रमाद नहि होयत आर मरणकालिक भगवत्स्मरणरूप (आदेशक) उद्देश्य सेहो पूर्ण भऽ जायत। एहि तरहें युक्ति, स्मृति, पुराण, इतिहास तथा समस्त सन्त लोकनिक अगणित वाणी सभ सँ भगवान् केर अनिवार्य समय ईश्वरता स्पष्ट प्रतिपादित अछि।
वस्तुतस्तु – ‘यो मां स्मरति नित्यशः’ (श्रीमद्भगवद्गीता ८/१४) – ‘जे हमरा नित्य स्मरण करैत अछि’ – ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (श्रीमद्भवद्गीता) – ‘अनन्य भऽ कय हमर चिन्तन करैत’ - इत्यादि अनेकों वचन सँ भगवान् – श्रवण, कीर्तन, स्मरण आ ध्यानक लेल अनिवार्य एक छथि तथा सेवाक लेल – माता, पिता, गुरु, अतिथि, ‘गावोऽग्निर्ब्राह्मणो वक्त्रम्’ (महाभारत अश्वमेधिकापर्व) गाय, अग्नि आ ब्राह्मण भगवान् केर मुख छथि, ताहि मुताबिक ब्राह्मण तथा गाय आदि रूप सँ अनिवार्य अनेक छथि।
मुदा याद रहय जे अनिवार्य ईश्वर माता, पिता, गुरु, अतिथि, गाय आ ब्राह्मण केर प्रसन्न भेल बिना अनिवार्य सम भगवान् कहियो प्रसन्न नहि भऽ सकैत छथि, जेना लोक मे – ‘चक्रं सेव्यं नृपः सेव्यः’ – पहिने राजाक अनुयायी केँ सेवा सँ प्रसन्न करक चाही, तखन राजा केँ, तहिना पहिने भगवानक साक्षात् स्वरूप उक्त अनिवार्य ईश्वर केँ सेवा सँ प्रसन्न करक चाही, तखन भगवान् केँ।
अध्यात्मरामायण केर उत्तरकाण्ड मे सातम सर्ग मे भगवान् राम केर वचन – ‘भूतावमानिनार्चायामर्चितोऽहं न पूजितः’ – कोनो प्राणी केँ अपमानित करयवला प्रतिमा आदि मे पूजित होइतो वस्तुतः हम पूजित नहि होइत छी – तैँ अपन कोनो (आराधना आदि) क्रिया सँ भगवान् केँ प्रसन्न करबाक इच्छुक व्यक्ति केँ श्रीमद्भागवत केर ‘यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः’ – जाहि कोनो प्राणी केँ भगवान् केँ अनन्य भाव सँ प्रणाम करू, एहि आदेश केर पालन करब अनिवार्य अछि। कियैक तँ सिद्धश्रेष्ठतम् कपिल मुनि माता देवहूति सँ कहैत छथि –
‘यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वाऽर्चां भजते मौढ्याद् भस्मान्येव जुहोति सः॥१॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद् बहुमानयन्।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥२॥’
– श्रीमद्भगवद्गीता ३/२९/२२/३४
सब प्राणी मे विद्यमान आत्मा रूप हम ईश्वर केँ छोड़िकय जे प्रतिमा आदिक पूजन करैत अछि, ओकर पूजा भस्म (राख) मे आहुति छोड़बाक समान निरर्थक छैक। अतः समस्त प्राणीक शरीरहि मे जीवरूप सँ प्रविष्ट भगवान् केर बहुत सम्मान करैते एहि सब प्राणी लोकनि केँ मोन सँ प्रणाम करू।
हरिः हरः!!