कलियुग-वर्णन
(तुलसीदासकृत् रामचरितमानस सँ प्रेरित)
दोहाः
युगक नाम एक कलियुग, सब अधर्मे बेहाल।
धन मद मत्त लोक सब, उग्रबुद्धि वाचाल॥
पाप खेलक सब धर्म केँ, लुप्त भेल सदग्रंथ।
दंभीक मति आ कल्पना, प्रगट भेल बहुपंथ॥
भेल लोक सब मोहक वश, लोभ खेलक शुभ कर्म।
सुनु भगत आ ज्ञानक खान, कहब गोटेक कलिधर्म॥
चौपाईः
नहि वर्णाश्रम आश्रम चारि, श्रुति विरोध लागल नर-नारि।
ब्राह्मण श्रुतिबेचा राजे प्रजा खाय, निगम अनुशासन सब बिसराय॥
मार्ग वैह जे जनमन भावे, पंडित वैह जे गाल बजावे।
मिथ्या स्वांग आ दंभहि डूबल, वैह आइ अछि संत कहायल॥
ज्ञान वैह जे परधन हारी, जे करय दंभ से बड़ आचारी।
बाजय झूठ मसखरी जानि, कलियुग वैह गुणवंत बखानि॥
निराचार जे श्रुति पथ त्यागी, कलिजुग वैह ज्ञानी वैरागी।
जेकर नह आ केस जटामय, वैह तपसी प्रसिद्धि कमाबय॥
दोहाः
अशुभ भेष भूषण धरय, भच्छ-अभच्छ जे खाय।
वैह जोगी वैह सिद्ध मनुख पूज्य से कलिजुग भाय॥
सोरठा :
जे अपकारी चार ओकर गौरव मान्य बहुत।
मन क्रम वचन लबार ओ वक्ता कलिकाल मे॥
चौपाई:
नारिहि वश नर सकल गोसाईं, नाचय नट मर्कट सम भाई।
शुद्र दैक द्विज उपदेश ओ ज्ञाना, गला जनेऊ से लेहि कुदाना॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।
गुण मंदिर सुंदर पति छोड़य, वरण करय परपुरुष अभागी॥
सोहागिन विभूषण हीन, बिधवा नित श्रृंगार नवीन।
आन्हर गुरु बहिर अछि चेला, एक न देखय दोसर अनसूना॥
हरय शिष्य धन शोक न हरय, से गुरु घोर नरक मे पड़य।
माय-बाप बच्चा केँ बजाकय, पेट भरत से धर्म सिखाबय॥
दोहा :
ब्रह्म ज्ञान छोड़ि नारि नर कहय न दोसर बात।
कौड़ी लेल लोभवश करय बिप्र गुर घात॥
वाद करय शुद्र द्विजजन सँ हम तोरा सँ कि कम।
जे जानइ ब्रह्म सैह विप्रवर आँखि देखाबय बम॥
क्रमशः
रामचरितमानस सब कियो अवश्य पढी आ मनन करैत जीवन सफल करी।
हरिः हरः!!