शरणागति

प्रिय पाठक लोकनि,
 
हालहि अपने सब धरि एकटा अनुपम रहस्य जे हमर मन-मस्तिष्क पर राज करैत रहल अछि, से राखि रहल छी। शीर्षक छैक “शरणागति”। गीता-प्रेस सँ प्रकाशित ई पोथी हमरा एक गुरुजन श्री परविन्दर कुमार लाम्बा साल २००९ मे जनकपुरी – दिल्ली मे भेंट कएने छलाह। हमरा जीवन में ई पोथी बड पैघ भूमिका खेलेलक। हमरा निडर बनेलक। निःशंक, निश्चिन्त आ निःशोक बनेलक। यैह चारि टा बात शरणागत भक्त केर अभीष्ट होइत छैक। आइ एहि पोथीक एकटा अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकरण अपने सब धरि राखय चाहब। एकरा मनन करू। शास्त्रीय वचन मे यैह ताकत होइत छैक जे मनुष्य लेल सर्वसाधन सहज कय दैत छैक, बशर्ते जे अहाँ ओकरा अपन जीवन मे स्वच्छन्द भऽ निर्वहन करी।
 
 
शरणागति
 
(श्रीमद्भगवद्गीताक अठारहम अध्याय केर ६६मा श्लोकक विस्तृत विवेचन, मूलः स्वामी रामसुखदासजी महाराज, पु्स्तकः शरणागति मे, मैथिली अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
 
न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम्।।
 
‘जेकरा पास न विद्या हो, न धन हो, न कोनो सहारा हो; जेकरा मे न कोनो गुण हो, न वेद-शास्त्र केर ज्ञान हो; जेकरा संसार केर लोक द्वारा पापी बुझिकय त्यागि देल गेल हो, एहेन प्राणी सेहो जाहि शरणागतपालक प्रभुक शरण लय केँ संत बनि जाइत अछि आर मुक्त भऽ जाइत अछि, ओहेन विश्वविख्यात गुणवला अमलात्मा यदुनाथ श्रीकृष्णभगवान् केँ हम प्रणाम करैत छी।’
 
श्लोक-
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।66।।
 
‘सम्पूर्ण धर्म केर आश्रयक त्याग कय मात्र हमर शरण मे आबि जाउ। हम अहाँ केँ सम्पूर्ण पाप सँ मुक्त कय देब, शोक जुनि करू।’
 
व्याख्या —
 
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’—भगवान् कहैत छथि जे सम्पूर्ण धर्म केर आश्रय, धर्म केर निर्णय केर विचार छोड़िकय अर्थात् कि करबाक अछि आ कि नहि करबाक अछि – एकरा छोड़िकय केवल एकटा हमरहि शरण मे आबि जाउ।
 
स्वयं भगवान् केर शरणागत भऽ गेनाय — यैह सम्पूर्ण साधनक सार थिक। एहि मे शरणागत भक्त केँ अपना लेल किछुओ करब शेष नहि रहि जाएत छैक; जेना — पतिव्रता केर अपन कोनो काज नहि रहैत छैक। ओ अपन शरीर केर सार-सँभार सेहो पतिक नाते, पतियेक लेल टा करैत अछि। ओ घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपन कहेनिहार शरीरहु केँ अपन नहि मानैत अछि, प्रत्युत पतिदेवक मानैत अछि। तात्पर्य ई भेल जे जेना पतिव्रता पतिक परायण भऽ कय पतिये केर गोत्र मे अपन गोत्र मिला दैछ और पतियेक घर पर रहैत अछि, तहिना शरणागत भक्त सेहो शरीर केँ लय केँ मानल जायवला गोत्र, जाति, नाम आदि केँ भगवान् केर चरण मे समर्पित कय केँ निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक आर निःशंक भऽ जाइत अछि।
 
गीताक अनुसार एतय ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म केर वाचक थिक। कारण जे एहि अध्याय केर एकतालीसमा सँ चौवालीसमा श्लोकतक ‘स्वभावजं कर्म’ पद आयल अछि, फेर सैंतालीसमा श्लोक केर पूर्वार्द्ध मे ‘स्वधर्म’ पद आयल अछि। तेकरा बाद, सैंतालीसमे श्लोकक उत्तरार्ध मे तथा (प्रकरण केर अन्त मे) अड़तालीसम श्लोक मे ‘कर्म’ पद आयल अछि । तात्पर्य ई भेल जे आदि और अन्त मे ‘कर्म’ पद आयल अछि आर बीच मे ‘स्वधर्म’ पद आयल अछि; तऽ एहि सँ स्वतः ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म केर वाचक सिद्ध होइत अछि।
 
आब एतय प्रश्न ई अबैत यऽ जे ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पद सँ कि धर्म अर्थात् कर्तव्य-कर्मक स्वरूप केर त्याग मानल जाय ? एकर उत्तर ई अछि जे धर्म केर स्वरूप केर त्याग करब नहि तऽ गीता अनुसार ठीक अछि आर नहिये एतुका प्रसंग केर अनुसारे ठीक अछि; कियैक तँ भगवान् केर ई बात सुनकय अर्जुन कर्तव्य-कर्म केर त्याग नहि केलनि अछि, प्रत्युत ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८/७३) कहिकय भगवान केर आज्ञाक अनुसार कर्तव्य-कर्म केर पालन करब स्वीकार केलनि अछि। केवल स्वीकारे टा नहि केलनि अछि, प्रत्युत अपन क्षात्र-धर्म केर अनुसार युद्ध सेहो केलनि अछि। अतः उपर्युक्त पद मे धर्म अर्थात् कर्तव्य केर त्याग करबाक बात नहि छैक। भगवान् सेहो कर्तव्य केर त्यागक बात कोना कहि सकैत छथि? भगवान् एहि अध्याय केर छठा श्लोक मे कहलनि अछि जे यज्ञ, दान, तप और अपन-अपन वर्ण-आश्रमक जे कर्तव्य अछि, ओकर कखनहुँ त्याग नहि करबाक चाही, प्रत्युत ओकरा जरूर करबाक चाही।
 
तेसर अध्याय मे तऽ भगवान् कर्तव्य-कर्म केँ नहि छोड़बाक लेल प्रकरण–केर-प्रकरण सेहो कहलनि अछि — कर्म केँ त्यागला सँ नहि तऽ निष्कर्मता केर प्राप्ति होएत छैक आर नहिये सिद्धि भेटैत छैक। (३/४); कोनो मनुष्य केहनो अवस्था मे क्षणमात्रो लेल कर्म केने बिना नहि रहुुि सकैत अछि (३/५); जे बाहर सँ कर्म केँ त्यागिकय भीतर सँ विषय केर चिन्तन करैत अछि, ओ मिथ्याचारी थिक (३/६); जे मन-इन्द्रिय केँ वश मे कय केँ कर्तव्य-कर्म करैत अछि ओ श्रेष्ठ अछि (३/७); कर्म कयने बिना शरीरक निर्वाह तक नहि होइत अछि, ताहि हेतु कर्म करबाक चाही (३/८); ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’— एहि बन्धन केर भय सँ सेहो कर्म केर त्याग करब उचित नहि छैक; कियैक तँ केवल कर्तव्य-पालनक लेल कर्म करब बन्धनकारक नहि होइछ, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मक परम्परा सुरक्षित रखबाक सिवाय अपना लेल किछुओ कर्म करब टा बन्धनकारक अछि (३/९); ब्रह्माजी कर्तव्यसहित प्रजाक रचना कय केँ कहलखिन जे एहि कर्तव्य-कर्म सँ टा अहाँ लोकनिक वृद्धि होयत आर यैह कर्तव्य-कर्म अहाँ लोकनिक कर्तव्य-सामग्री देवयवला होयत (३/१०); मनुष्य और देवता दुनू कर्तव्य केर पालन करैते कल्याण केँ प्राप्त हेता (३/११); जे कर्तव्य केर पालन कयने बिना प्राप्त सामग्री केर उपभोग करैत अछि, ओ चोर थिक (३/१२); कर्तव्य-कर्म कय केँ अपन निर्वाह करयवला सम्पूर्ण पाप सँ मुक्त भऽ जाइत अछि।
 
हरिः हरः!!