Search

मनुष्य देहक महत्वः गूढ तत्त्व समीक्षा मे पंडित रुद्रधर झा – भाग २

मनुष्य देह केर महत्व
 
– पंडित रुद्रधर झा (अनुवाद – प्रवीण नारायण चौधरी)
 
क्रमशः उपरान्त – भाग २
 
असाधारण मानव शरीर केर दोसर असाधारण कार्य थिक – अपना द्वारा कयल गेल कर्म केर फलक कामना, कर्म मे आसक्ति तथा कर्म केँ करबाक अहंकार केँ छोड़िकय सदा समता सँ युक्त भऽ भगवान् केर स्मरण करैत परमेश्वरक शरीर ‘संसार’ केर सेवाक लेल अपन कर्त्तव्य कर्म केँ करब आ यथासमय यथासाध्य यथाऽभिमत सगुण साकार या सगुण निराकार भगवत् स्वरूप केर उपासना करब। एकर उपपादक, जगद्गुरु भगवान् केर वचन केँ गीता मे देखू – “मा कर्म फल हेतु भूर्भाते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” – कर्म फल केर कारण नहि बनू आर कर्म नहि करय मे अहाँक आसक्ति नहि हो। ‘तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर’ अतः अनासक्त रहितो सतत कर्त्तव्य कर्म केँ करू। ‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’ – जेकर ‘हम कर्त्ता छी’ एहेन भाव नहि छैक, आर जेकर बुद्धि कृत कर्म जनित संस्कार सँ लिप्त नहि छैक। ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मा मनुस्मर युध्य च’ – अतः सब समय मे हमरा स्मरण करू आर अपन कर्म केँ करू। ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ – अपन कर्म केँ कयला सँ ओहि (परमेश्वर) केँ पूजिकय मनुष्य सिद्धि केँ पबैत अछि।
 
‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥’
 
यानि “जे जन अनन्य (हमरा सँ दोसर जेकर कियो आन नहि) बनि हमर चिन्तन करैते सर्वथा उपासैत (कर्म-कर्त्तव्य निर्वहण करैत) अछि, ओहि नित्य हमरहि मे मन लगौने लोकक अप्राप्तक प्राप्ति आर प्राप्तक रक्षण हम करैत छी।”
 
उक्त रीति सँ चलयवला मानव भगवान् केर प्रिय बनि जाएत अछि, तखन ‘न मे भक्तः प्रणश्यति’ – यानि हमर भक्त नष्ट नहि होएत अछि, एहि भगवद्गीता मे कयल भगवान् केर घोषणा अनुसार ओकर पतन त कहियो होइते नहि छैक, प्रत्युत क्रमशः उन्नत होएत अन्त मे भगवान् केर सायुज्य (प्रत्यक्ष सामीप्य) पाबि कृतार्थ भऽ जाइत अछि।
 
एवं असाधारण मानव शरीर केर तृतीय असाधारण कार्य छैक – धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष ‍- एहि चारि पुरुषार्थ मे नित्य एवं निरतिशय भेला सँ परम पुरुषार्थ मोक्ष केर प्राप्तिक लेल साक्षात् या सगुण निराकार भगवान् केर निरन्तर परिशीलन (मननपूर्वक गंभीर अध्ययन) सँ द्रवित ताहि भगवान् केर द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार कय “अहं ब्रह्मास्मि’ यानि ‘हम ब्रह्म छी’ केर सदा भावना बनैत मुक्त भेनाय। एकर उपपादक ‘वेदान्त परिभाषा’ केर अन्तिम दुइ पद्य केँ देखू –
 
‘निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः।
ये मन्दास्तेऽनुकम्प्यन्ते संविशेष निरूपणैः॥१॥
वशीकृते मनस्येषां सगुण ब्रह्मशीलनात्।
तदेवाविर्भवेत्साक्षाद्पेतोपाधिकल्पनम्॥२॥
 
एहि जन्म या जन्मान्तर केर असाधारण मानव शरीर केर दोसर असाधारण कार्य सँ जेकर मन नितान्त निर्मल भऽ गेल अछि, ओ तऽ स्वयं (साक्षाते) निर्विशेष ब्रह्म सँ साक्षात्कार कय ‘अहं ब्रह्मास्मि’ – ‘हम ब्रह्म छी’ केर निरन्तर भावना सँ जीवन्मुक्त भऽ कय विचरण करिते अन्त मे विदेह – मुक्त भऽ जाइत अछि।
 
जेकर मोन अत्यन्त निर्मल नहि भेल अछि, एहेन जे मन्द मानव स्वयं निर्विशेष ब्रह्म केर साक्षात्कार करय मे असमर्थ अछि, वैह सविशेष ब्रह्म (सगुण निराकार भगवान्) केर निरूपण सँ कृपापात्र बनायल जाइत अछि, जखन ओकर मोन सगुण ब्रह्म (सगुण निराकार भगवान्) केर निरन्तर चिन्तन सँ सर्वथा निर्मल भऽ जाइत छैक, तखन ओकर अत्यन्त निर्मल मोन मे वैह भगवान् अपन गुण (विशुद्ध सत्त्व प्रधान त्रिगुणात्मक माया – विद्या) रूप उपाधिक कल्पना सँ रहित निर्विशेष ब्रह्म रूप सँ आविर्भूत (भासित) होमय लगैत छैक, तखन ओहो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ – ‘हम ब्रह्म छी’ केर निरन्तर भावना करैते मुक्त भऽ जाइत अछि। एहि विषय केर समर्थन करैत रामचरितमानस केर सुन्दर काण्ड मे गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान् राम सँ कहबाबैत छथि – ‘निर्मल मन जन सो मोहि पाबा’।
 
पर ब्रह्मा, पर विष्णु तथा पर शिव तँ परमेश्वर थिकाह, मुदा अपर ब्रह्मा, अपर विष्णु तथा अपर शंकर जीव कोटि मे अबैत छथि, हुनकहु सँ मानव शरीरक उक्त तीन कार्य नहि भऽ सकैत अछि। यैह आशय सँ रामचरितमानस केर अयोध्याकाण्ड मे गोस्वामीजी ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जी सँ भगवान् राम केँ कहबाबैत छथि –
 
‘जग पेषन (नाटक) तुम देखनि हारे। विधि हरि शम्भु नचावनि हारे॥
तेउ न जानइ मर्म तुम्हारा। और तुमहिं को जाननिहारा॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई॥
 
एहि मे ‘सोइ जानइ’ इत्यादि कथन जाहि श्रुतिक अनुवाद थिक, तेकरा देखू – ‘यमेवैषवृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्’ – यानि जेकरा ई वरण करैत अछि, ओकरा ई प्राप्य अछि, कियैक तँ ओकरे टा ई आत्मा अपन स्वरूप देखबैत अछि एवं ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ – ब्रह्म केँ जानयवला ब्रह्मे भऽ जाइत अछि।
 
ताहि हेतु मानव शरीर केँ असाधारण शरीर एवं ओकर उक्त तीनू कार्य केँ असाधारण कार्य कहल गेल अछि। जेकर समर्थन साहित्य दर्पणादि साहित्य ग्रन्थ सभ मे उक्त ‘नरत्वं दुर्लभं लोके’ – ‘संसार मे मानवता दुर्लभ अछि’, एहि वचन सँ होएत अछि तथा रामचरितमानस केर उत्तरकाण्ड मे भगवान् राम केर –
 
‘बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुरदुर्लभ सद्ग्रंथहि गावा॥
नर तनु पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं॥
 
इत्यादि वचन सँ सेहो होएत अछि। संसार केँ दुःख सँ उद्धार पेबाक लेल मानव शरीर अन्तिम सीढी होएछ, जौँ एहिसँ पतन होयत तऽ फेर चौरासी लाख योनि मे बेर-बेर जाय पड़त। अतः अन्त मे मानव मात्र सँ सविनय निवेदन अछि जे –
 
“आयुषः क्षण एकोऽपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः।
स चेद् व्यर्थ तां जीतः काते हानिस्ततोऽधिकां॥”
 
“आयुक एको क्षण करोड़ सुवर्ण सँ पर्यन्त प्राप्य नहि अछि, जौँ एकरा अहाँ व्यर्थ बिता देलहुँ तँ अहाँ केँ ओहि सँ बेसी कोन हानि भऽ सकैत अछि।” एहि बात केँ सदिखन ध्यान मे रखैत अहाँ सदैव समता मे स्थित भऽ कय भगवान् केर स्मरण करैते अपन कर्त्तव्य कर्म सभ केर अनुष्ठान सँ जनता-जनार्दन केर सेवा मे लागल रहू। एहि सँ अहाँक मानव जीवन केर सफलता अवश्य होयत।
 
सीताराम – सीताराम – सीताराम – सीताराम – सीताराम।
सीताराम – सीताराम – सीताराम – सीताराम – सीताराम॥
 
हरिः हरः!!

Related Articles