राजनीति आ जातिवादः प्राकृतिक न्याय केर विरुद्धक काज बन्द हो

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

वर्तमान युग मे विभिन्न राजनीतिक सोच आ मानुषिक विचार मे पर्यन्त पैघ-छोट हेबाक किंवा देखाबा करबाक भावना बसि गेलाक कारण उद्वेलित होएत रहबाक कारणे वर्ण व्यवस्थाक मौलिक परिकल्पना मे नोच-पटक भेल अछि आर स्थिति एहि विन्दु तक पहुँचि चुकल अछि जे जातीय प्रथाक अन्त कयला सँ समाजक बेसी हित होयत ई कहय मे कोनो हर्जा नहि बुझाइत अछि। हिन्दू दर्शनक एकटा गंभीर दर्शन आ सिद्धान्त रखैत आबि रहल गीता पर्यन्त स्पष्ट कएने अछि जे मनुष्यक अपन खास स्वभाव होएत छैक, ताहि मुताबिक ओकर ज्ञान, गुण, सोच, विचार आ कर्म करबाक अलग-अलग प्रक्रिया पूरा होएत छैक। जरूरी नहि जे हरेक मनुष्य मे कोनो एक तत्त्व जेकरा कार्मिक मोडेल मे देखल जाएछ से सब मे एक्के रंग भेटत। समग्रता मे हरेक मनुष्य मे सजीवता एक रंग रहितो, सभक प्राण रक्षा लेल स्वसन प्रणाली आ आगामी पीढी लेल प्रजनन प्रणालीक अलावे आरो-आरो जीवनक लक्षण सब एक्के रंग रहितो व्यवहार मे विविधता रहिते टा छैक। यैह विविधता केँ सनातन धर्म परम्परा मे चारि गोट वर्ण अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ओ शूद्रक वर्ग मे परिभाषित कयल गेलैक। ई केकरो मेटेनहियो मेटायवला नहि छैक, कारण ई प्रकृति थिकैक। परन्तु, जखन यैह वर्गीकरण केँ अहाँ बाभन, काएथ, गुआर, चमार, कुम्हार, सोनार आ दुसाध, डोम, मुसहर आदि मे विभक्त करब त नेतागिरी कयनिहार केँ मौका भेट जाएत अछि उच्च-नीच कहिकय वर्गीय विभाजन, उपविभाजन करबाक। विभाजनक स्वरूप नेता आ ओकर विचार पर निर्भर करैत छैक।
 
आइ-काल्हि अहाँ भारतक बिहार नाम्ना प्रान्त मे देख सकैत छी जे जाति आधारित राजनीतिक उपज सँ दलितक उपविभाजन महादलित धरि पहुँचि चुकल अछि। ई विभाजन वास्तवमे मनुष्यक स्वभाव गुणे व्यवहार मे रहल कमी-कमजोरीक नामपर नेतृत्ववर्ग ओकर चिन्तक बनिकय विभिन्न कल्याणकारी योजनाक विकासक बात करैत अछि। ओकर मनसाय कोनो खराब नहि, पिछड़ल वर्ग केँ आगू अनबाक कार्य करब यथार्थ मे राज्य संचालकक काज होएत छैक। हमहुँ-अहाँ जाहि कोनो समाज मे रहि रहल छी ताहि ठाम पछुआयल स्थिति सँ अगुएबाक वास्ते निरन्तर कोनो न कोनो तरहक संघर्ष करिते टा रहैत छी। ईहो मानवीय समूह मे कयल जायवला प्रयास जेकरा ‘समाजिकता’ अन्तर्गतक मानव व्यवहार कहल जाएछ से राजनीतिक प्रक्रियाक एकटा हिस्सा थिक। अपन परिवारक भितरे जँ एक भाइ पिछड़ल अछि त दोसर सबल भाइ केँ ओकरा डेन पकड़ि आगू बढेबाक चाही। ई सब प्राकृतिक न्यायक सिद्धान्त सब थिकैक। करबाके चाही। लेकिन, एकर सबसँ पैघ दुर्गुण कि होएत छैक – कमजोर आ पिछड़ल वर्गक हितक बात कयनिहार अपन अति-महात्वाकांक्षा केँ पूरा करय लेल सक्षम-सामर्थ्यवान वर्गपर अनाहके दोष मढिकय समाजक सब वर्गक लोकक एकता आ सौहार्द्रताकेँ हत्या कयकेँ अपन स्वार्थ पूरा करैत रहैत छैक, एकरे डिवाइड एण्ड रूल कहल जाएत छैक। आइ धरि सत्ताक लोभ मे फँसल ई नेतृत्व वर्ग प्राकृतिक पिछड़ापण केँ समाधान निकालि देलक से पूर्णतः कतहु सफल नहि भऽ सकलैक। अंशतः एकर प्रभाव अवश्य देखय मे अबैछ जे एहि पिछड़ा वर्ग केँ आगू अनबाक लेल किछु उपक्रम ठाढ भेल आर तेकर फायदा ओहि पिछड़ा वर्गक किछेक चेतनशील व्यक्ति वा परिवार केँ भेटैत छैक। बस!
 
आध्यात्मक दृष्टि सँ जेना सात्विकता, राजसिकता आ तामसिकताक तीन महत्वपूर्ण अवयव मनुष्यक प्रकृति आ गुण केर निर्धारण करैत अछि; ठीक तहिना मनुष्य मे निहित ज्ञान, मनुष्य मे ज्ञानी आ ज्ञान हासिल करयमे लागल लोक केँ तीन टा कारक तत्त्व कर्म करबाक लेल प्रेरित करैत छैक – ओ तीन टा तत्त्व थिकः करण, कर्म आ कर्ता। देखू गीताक ई श्लोकः
 
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना॥
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥१८-१८॥
 
आर, एहि तरहें ज्ञानक मात्रा सँ मनुष्यक स्थिति उत्कृष्ट-निकृष्ट, उच्च-नीच, अगड़ा-पिछड़ा आदि होयबाक बात प्राकृतिक सिद्धान्त अनुरूप हेब्बे करत। तखनहुँ, राजनीति मे रत किछेक ‘मैनजन’ अपना हिसाबे समाजक विभिन्न वर्ग मे झगड़ा लगाकय अपन गोटी टा सुतारैत अछि।
 
कृष्ण केँ सेहो ई छद्म राजनेता सब ‘गुआर’ कहिकय व्याख्या देबय लगैत अछि। समाज केँ विभाजित करबाक लेल ‘यदुवंशी’ आ ‘यादव’ आ ‘गोपाल’ संबोधन करैत कृष्णभाव ग्रहण करबाक, करेबाक संग-संग जनसंख्याक बहुल्यता आ लाठीबलक प्रयोग आदि करैत अपन वर्चस्व कायम रखबाक कतेको दृष्टान्त आइ हमरा लोकनिक समाज मे देखाएत अछि। कृष्ण एक अवतारी – सोलहो कला सँ सम्पन्न पूर्ण भगवान् एहि धरा पर एलाह। हरेक जिह्वापर मे ‘कृष्ण-कृष्ण’ केर पुकार एखनहुँ कनिके कान पथला सँ सुनाय दैछ। कृष्णक यदुवंश सँ जुड़ल फल्लाँ यादव आ चिल्लाँ यादव बड़ा गौरव सँ अपन मोटरसाइकिल केर बैक-प्लेट आ फ्रंट-प्लेट मे ‘यदुवंशी’ लिखबैत छथि। धरि कृष्णक शिक्षापर कतेको लोक चलि रहल अछि ई ताकब आ भेटब दुनू दुरूह कार्य बनि गेल अछि। जाति आ वर्ण-व्यवस्थाक मादे कृष्ण-निरूपित गीता हमरा सर्वोत्तम आ अकाट्य संविधान जेकाँ बुझाइत अछि। कृष्ण स्पष्ट कहलनिः
 
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८-४१॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८-४२॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥१८-४३॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥१८-४४॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥१८-४५॥
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥१८-४६॥
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥१८-४७॥
 
कनेक गौर करू, भगवान् कृष्णक एहि अकाट्य सिद्धान्त पर। हम एकर भावानुवाद राखि रहल छीः
 
मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र) केर कर्तब्य ओकर अपनहि गुण आ स्वभाव मुताबिक निर्धारित छैक। मन आ बुद्धि ऊपर नियंत्रण, तप (कठोर साधना), शुद्धता (शौच, स्वच्छता, सफइयत, वैचारिक शुद्धि, व्यवहारिक शुद्धि, आदि), आर्जव (सरलता, सहजता, निष्कपट, स्पष्टवादिता, ईमानदारी, आदि), ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता – ई सब ब्राह्मणक स्वभावजन्य ब्रह्मकर्म मानल जाएत अछि। शौर्य (वीरता), तेज (निर्भीकता), धृति (धारण करबाक गुण या शक्ति), दाक्ष्यं (उपाय करय मे कुशल, चतुर), युद्ध सँ कथमपि पलायन नहि करयवला, दान करय लेल आतुरता, ईश्वरभाव – ई समस्त स्वभावजन्य कर्तब्य क्षत्रिय केर थिक। तहिना, कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य ई वैश्यक स्वभाविक कर्तब्य थिक। तथा, परिचर्यात्मक कर्म अर्थात् दोसरहु केर सेवा करबाक विभिन्न कर्म – जेना रोगीक देखभाल करयवला सेवा भेल या अन्य वर्गक लोक जे कर्म अपनहि सँ नहि कय सकैत अछि ताहि कर्म केँ सेवाकर्म मानिकय पूरा करब शूद्रक स्वभावजन्य कर्तब्य मानल गेल अछि।
 
श्लोक ४५ सँ ४७ धरि एहि स्वभावजन्य कर्मक आधार पर मानव समाजक कर्म अनुरूप विभाजन प्रति श्रीकृष्णक अत्यन्त उदार आ अकाट्य सत्यक निरूपण करैत कहल गेल अछि जे
 
“प्रत्येक मनुष्य केँ अपन-अपन कर्म (कर्तब्य) प्रति समर्पणक भाव रखला सँ संसिद्धि यानि सर्वोच्च पूर्णता हासिल होएत अछि – स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः। के अपन कर्म मे कतेक समर्पण सँ लागल अछि, ओकरा पूर्णता हासिल होएत छैक, सेहो सुनू। जेकरा सँ समस्त जीवलोकक प्रवृत्ति बनलैक अछि, जेकरा सँ समस्त मानवलोक निहित अछि, तिनका प्रति समर्पण अपन कर्म-कर्तब्य पूरा करैत जे केलक, वैह पूर्णता हासिल केलक, या करत। श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः – अपन धर्म जे कमियो मे अछि त दोसरक श्रेयस्कर धर्महुँ सँ बेसी श्रेयस्कर – बेसी नीक अछि। अपन स्वभावजन्य गुण अनुरूप कर्म-कर्तब्य पूरा कयला सँ ओकरा कोनो दोख नहि लगैत छैक।”
 
स्वामी स्वरूपानन्दजी बहुत विलक्षण उदाहरण दैत भगवान् श्रीकृष्णक एहि सहज-सुन्दर फिलासोफी (दर्शन) केँ बुझबैत कहलनि अछि, “जेना कोनो विषालू पदार्थ द्वारा ओहि कीड़ा केँ कोनो अहित नहि पहुँचैछ जे कीड़ा स्वयं ओहेन विषालू पदार्थ मे जन्म लेलक, ठीक तहिना अपन स्वधर्म कयनिहारक गलतो कर्म ओकरा लेल अहितकर नहि होएत छैक।”
 
त, हे समाजक निर्माता लोकनि! हमरो सबकेँ ई विचार करबाक चाही जे अपन छद्म स्वार्थ लेल सनातन प्राकृतिक सिद्धान्तक विरुद्ध जा केँ मानवीय सरोकार केँ अपना तरहें कूतर्क सँ जुनि कुतरी। समाजक हित – मानवीय सरोकारक पक्षपोषण प्राकृतिक न्याय केँ मानिये कय हेतैक। अतः स्वभाव आ कर्म-कर्तब्यक उपरोक्त सिद्धान्त केँ जाति अनुरूप छोट आ पैघ कहिकय केकरो दिमाग मे आगि लेसबाक काज जुनि करी। एहि तरहें जाति-पातिक नाम पर विभाजन-उपविभाजन सँ जे अन्तर्कलह आ मानव-मानव बीच एकटा विनाशकारी बियारोपण कय रहल छी – तेकर उपद्रव आ हिंसक प्रभाव दोसर सँ पहिने अहीं केँ लय कय डूबल अछि से इतिहास देख लेल जाउ। आइ धरि संसार मे नेतावर्गक लोकक खून सँ ई पृथ्वी बेसी रंगायल अछि। कियैक? महात्मा गाँधी सनक ७९ वर्षक मानवीय ठठरी केँ नाथूराम गोड्से सनक एक अलगे सिद्धान्तपर चलनिहार मानव द्वारा गोली सँ छलनी कय देल गेल। कियैक? अब्राहम लिंकन समान गरीब-मजदूरक बेटा अमेरिकी राष्ट्रपतिक पद धरि पहुँचि ‘स्लेवरी सिस्टम’ (गुलामी प्रथा)केर अन्त कयनिहार महामानव केँ भरल थियेटर मे हुनक सिद्धान्तक बिपरीत सिद्धान्त माननिहार मनुष्य द्वारा सरेआम पेस्तोल सँ गोली मारिकय हत्या कय देल जाएछ। एहि पृथ्वी पर कतेको उदाहरण अछि। हम स्वयं आश्चर्य मे छी – नहि बुझि पाबि रहल छी जे आखिर एहेन-एहेन चमत्कारी महापुरुष लोकनिक हत्या कियैक कयल गेल। ओ हत्यारा हमरा नजरि मे महापापक भागी अछि, लेकिन तैयो हत्या त भेल। त कहक अर्थ जे प्राकृतिक न्याय सँ इतर नव-नव नारा लगाकय समाज केर हितक नामपर दीर्घकालीन अहित करब, ई अक्षम्य अपराध भेल।
 
राजनीति मे जातिवादिताक नारा सँ समाजक हित नहि भऽ रहल अछि, श्रम विभाजन जेकाँ जाति विभाजन एकटा प्राकृतिक न्याय थिकैक। मुदा जातिवादक बात केँ आइ-काल्हिक राजनीतिक भाषा मे मनुवाद आ सामन्तवाद आदि कहिकय गोटेक नेता सब बड़का मसीहा कहेबाक स्वांग रचैत छथि, तिनका सब केँ समाजक हरेक वर्गक उत्थान लेल प्राकृतिक गुण-धर्म अनुसार कर्तब्य निर्धारण करबाक बाध्यता छन्हि। अहाँ एकटा चपरासी सँ कार्यपालक अभियन्ताक कार्य करेबाक सपना नहि बेचि सकैत छी। निश्चित चपरासीक हक-अधिकार मे जँ कोनो कटौती, शोषण आदि देखलहुँ त एकर प्रतिकार हेबक चाही। अहाँ समाजक अगुआ वर्ग ब्राह्मणक विरोध मे अपनहि भाषा आ संस्कृतिक हत्यारा नहि बनि सकैत छी। भाषा-संस्कृति पर स्वामित्व स्थापित करबाक काज करू। सब केँ सहभागी बनाउ। शिक्षाक संस्कार सब वर्ग धरि पहुँचेबाक बियौंत करू। एखन लेल बस!
 
हरिः हरः!!