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Deepika Jha

“लोकगाथा के लोक साहित्यक महाकाव्य कहल जा सकैत अछि।”

— कीर्ति नारायण झा।    “छाती तोहर देखियौ भैया, बज्जर रे केवाड़। पीठ तोहर लागौ भैया, धौलगिरी पहाड़। मोंछ तोहर अइंठल भैया, बहिंगा सन सन ठाढ। तोरा दिस जे ताकइ छी तऽ, लगइ छै अन्हार……” मिथिलाक प्रसिद्ध लोकगाथा लोरिक इ पांती मिथिलाक गाम – गाम में गुंजैत वीर रस सँ ओतप्रोत मिथिलाक सांस्कृतिक धरोहर के “लोकगाथा के लोक साहित्यक महाकाव्य कहल जा सकैत अछि।”

“मैथिली लोकगाथाक वर्तमानमे संकुचित होइत आयाम निःसंदेह चिंताजनक अछि।”

— दिलीप झा।        कोनो लोकगाथा लोक साहित्यक अभिव्यक्ति आ संगहि सुदूर अतीतक परंपरा के संवाहक होईछ अतः हम कहि सकैत छी जे लोक साहित्यक जनजीवन सs जुरल बेहद लोकप्रिय विधा लोकगाथा थिक जाहि सs कोनो सभ्यता संस्कृति के माटिक सुगंध विसरित होईत रहैत छैक। साहित्य में लोकगाथाक बहुत महत्वपूर्ण स्थान होईछ। लोकगाथा “मैथिली लोकगाथाक वर्तमानमे संकुचित होइत आयाम निःसंदेह चिंताजनक अछि।”

“मैथिली लोकगाथाक भूतकाल आ वर्तमान स्थिति “

— आभा झा।        मिथिलाक साहित्यकेँ दू भागमे विभाजित कयल जा सकैत अछि – अभिजन साहित्य आ लोक साहित्य। अभिजन साहित्य सामान्यतः पढ़ल-लिखल आ आभिजात्य वर्गक लेल होइत छैक। एकर रचयिता अथवा लेखक प्रायः ज्ञात रहैत छथि। अभिजन साहित्य प्रायः स्तरीय मानल जाइत अछि। दोसर दिस लोक साहित्य श्रुत परंपरा अथवा वाचक परंपरामे “मैथिली लोकगाथाक भूतकाल आ वर्तमान स्थिति “

“खान-पान कोनो क्षेत्रक परिचय होइत अछि”

— रिंकू झा।    कोनो भी क्षेत्र के संस्कृति के पहचान ओहि क्षेत्र के खान-पान, रहन-सहन आर पहनावा स केल जाई छै। जहां तक मिथिला के बात भेल तऽ मिथिला अपन भोजन -भात आर मेहमानवाजी के लेल काफी प्रचलित अछी एकर वर्णन अहां के रामायण में महाराज दशरथ के मुह स सुनयमें भेटत। मिथिला के “खान-पान कोनो क्षेत्रक परिचय होइत अछि”

“समय आबि गेल अछि कि हम सभ फेरसँ अपन जड़ि दिस रूखि करी”

— आभा झा।        फास्ट फूड कथि अछि से बुझनाइ जरूरी अछि। फास्ट फूड शब्दक प्रयोग रेस्टोरेंटमे तुरंत बनय वाला भोजनक लेल कयल जाइत अछि। फास्ट फूड ओ अछि जाहिमे पहिनेसँ सब तैयारी कऽ लेल जाइत अछि अर्थात पहिनेसँ ही उसइन या पका कऽ फ्रीजरमे राखि देल जाइत अछि आ मँगला पर तुरंत “समय आबि गेल अछि कि हम सभ फेरसँ अपन जड़ि दिस रूखि करी”

“मिथिलाक खान -पानमे फास्ट- फुडक प्रवेश आ एहिसँ बचबाक उपाय”।

— नीलम झा        मिथिलाक_खान_पान अपने होइत अछि बड्ड महान। कतहु ज्यों भोजनक चर्चा- परिचर्चा होइत अछि त’ सबसँ पहिने मिथिलाक भोजन अबैत अछि जाहिमे – मिथिलाक माछ, राहिरक दाइल, तीसी सजमैन, बड़ीक झोड़, बर, ओलक लटपट, खम्हारूक तरूवा , तीलकोर तरल, कुम्हरौरीक तीमन, भट्टा अदौरी, भटबर, अंकुरी धक सागक भूजल, तीलक चटनी, “मिथिलाक खान -पानमे फास्ट- फुडक प्रवेश आ एहिसँ बचबाक उपाय”।

“समय बहुत तीव्र गतिसँ आगू मुँहे भागि रहल अछि”

— कीर्ति नारायण झा।      जमाना बदलि गेलै अछि, जमाना आब बहुत तीव्र गति सँ आगू मुँहे भागि रहल अछि आ एहि में हम मैथिल लोकनि ककरो सँ पाछू रही से कोना भऽ सकैत अछि, आगू भागवाक होड़ में हम अपन संस्कार, सभ्यता, संस्कृति सभके बिसरल जा रहल छी, मात्र भागवाक अछि, ओकर बाद “समय बहुत तीव्र गतिसँ आगू मुँहे भागि रहल अछि”

“भौतिक युग मे संबंधक मायने बदलि रहल अछि।”

— पूनम ठाकुर।      आई कल्ही के भौतीक युग मे लोक भौतिक सुख के ही सुख बुझाई छथिन। हुंनका होई छन्ही जे किनको जरूरत जिंदगी में ने पड़त। लेकिन लोक बिसरि जल जे मनुष्य एक सामाजिक प्राणी अछि। हमरा हिसाबे एकल परिवार सेहो एकर बहुत पैघ कारण अछि। पहिने सब एक संग रहै छलाह। “भौतिक युग मे संबंधक मायने बदलि रहल अछि।”

“संबंधमे देखावा कम आ अपनत्व बेसी हो”

— आभा झा।      आजुक भौतिकवादी युगमे चाहे संबंध होइ या पाबनि-तिहार सभक रूप-स्वरूप बदलि रहल अछि। भारत विविध संस्कृति, संप्रदाय एवं भाषाक देश अछि। एतय अनेक तरहक उत्सव आ त्योहार मनाओल जाइत अछि।बसंत पंचमी, होली, वैशाखी, जूड़शीतल, ईद, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, दशमी, दीपावली, ओणम, पोंगल, रक्षाबंधन, भाई-दूज आदि अनेक प्रकारक पाबनि-तिहार अछि “संबंधमे देखावा कम आ अपनत्व बेसी हो”

“समाजसॅं अलग भ’ मनुक्खक कोनो अस्तित्व नहि”

— रिंकू झा।    मनुष्य एक टा सामाजिक प्राणी होईत अछी, समाज स अलग हुनकर कोनो अस्तित्व नहीं रही जाय छैन।एक टा सामाजिक प्राणी होवय के नाते मनुष्य स ब्यभारिकता के उम्मीद केवल मनुष्य नहीं बल्कि समाज स जुरल अन्य प्राणी सेहो करै छैथ। आधुनिक युग में समाज एक टा पैघ परिवर्तन के दौड़ स “समाजसॅं अलग भ’ मनुक्खक कोनो अस्तित्व नहि”