संस्कृति केर सहज व्याख्या

महावाक्य

‘संस्कृति’ केर अर्थ छैक – ‘संस्कार कयल गेल’। ई संस्कार व्यक्तिक चेतना केर होइत छैक। मोनक गुण-धर्म व्यक्तिक सहज वृत्ति सब सँ व्यक्त होइत छैक। एकटा बच्चा नंगटे रहैत छैक। माँ-बाप ओकरा कपड़ा पहिराबैत छैक। बच्चा पैखाना-पेशाब कय केँ कपड़ा गन्दा कय देल करैत छैक। माँ कपड़ा साफ करैत छैक और फेर दोसर कपड़ा पहिराबैत छैक। एहि सिलसिला मे ओ कखनहुँ दुलार-प्यार सँ, कखनहुँ प्रताड़ना सँ त कखनहुँ हास्य-व्यंग्य सँ बच्चाक मोन मे एहि कृत्य लेल अरुचि उत्पन्न करैत छैक तथा कालान्तर मे बच्चाक मोन मे सेहो एहि कृत्यक प्रति अरुचि उत्पन्न भऽ जाइत छैक आर ओ बच्चा सेहो ओकरा ‘छीया’ कहिकय घृणा करैत छैक। हरेक पारिवारिक पाठशाला मे ई ‘कर्म-संस्कार’ चलैत छैक। एहि सँ बच्चा सब मे कर्म-विवेक केर निर्णयक क्षमता अबैत छैक। धीरे-धीरे ओ बच्चा लोक सँ परलोक-साधन धरिक समाज-स्वीकृत आचार-विचार सँ अवगत भऽ अपन मोन केँ कर्म-सौन्दर्य केर एक विराट् परिवेश मे लीन पबैत अछि। विधि-निषेध ओकर अचेतन क्रियाक अंग बनि जाइत छैक। तखन ओ धर्म-प्रवृत्ति सभक औचित्यादि सँ अवगत भऽ कय आचार केँ अन्वित करबाक आत्मदृष्टि पबैत अछि।
– डा. लक्ष्मी प्रसाद श्रीवास्तव
(लोक-संस्कृति कोश – मिथिला खंड केर भूमिका मे। अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)