मिथिलाक स्थापना – संरक्षण – संवर्धन सदा सदा सँ सामूहिकताक संग भेल अछि

सामूहिकता के लाभ
 
मानव सभ्यताक विकास मे सामूहिकता पर कियो लेखकक लेखनी द्वारा लाभ के चर्चा करब आजुक आवश्यकता किन्नहु नहि, तथापि समाज मे सब तरहक लोक होइछ आ बेर-बेर के चर्चा सँ कतेको लोकक हनुमानशक्ति (जे सुसुप्तावस्था मे रहैछ) जागि सकैत अछि।
 
सन्दर्भ लेब ‘दहेज मुक्त मिथिला’ केर। एकर परिकल्पना जहिया आरम्भ भेलैक त बात एतबे छलैक जे मिथिला सँ ई कुप्रथा दूर हेबाक चाही। बड नीक। दूर त हेबाक चाही… लेकिन कोना? बड बहस भेलैक। बहसक मात्रा देखबैक त केहनो स्वस्थ लोक बताह भऽ जायत से गारन्टी छैक। औ जी! बहस सँ बाट त भेटत, प्रकाश त भेटत, धरि समाधान (मंजिल) प्राप्ति लेल डटिकय आगू बढय पड़त। एहि साहित्यक संग ‘दहेज मुक्त मिथिला’ कार्यरूप मे बढाओल गेल।
 
याद राखू – ५ टा ‘क’ – १. क – कार्यक्रम, २. कार्यकर्ता, ३. केन्द्र, ४. कोष आ ५. क्रियान्वयन। सक्षम आ योग्य गुरुजन लोकनिक शिक्षा सँ प्राप्त ई सूत्र ‘५ क’ केर आधार पर मिथिला सँ दहेज कुप्रथा केँ अन्त करबाक एकटा विषय प्रवेश पबैत अछि, काज शुरू होइत अछि आ आइ लगभग १० वर्षक यात्रा पूरा करैत आब ११म वर्ष मे प्रवेश पबैत अछि। एहि ५-क केर सन्दर्भ मे हमरा लोकनि दहेज मुक्त मिथिला नामक कार्यक्रम लेल कार्यकर्ता (सदस्य) बनिकय ‘फेसबुक समूह, व्हाट्सअप समूह, ठाउं-ठाउं मे कार्यसमिति (यूनिट), आदि’ केर केन्द्र मे निजी समय-सोच-संसाधन रूपी कोष प्रदान करैत यथासंभव दहेज मुक्त विवाह केँ बढावा दैत ‘क्रियान्वयन’ धरिक यात्रा कय रहल छी। क्रियान्वयनक कय टा रूप छैक – मांगरूपी दहेजक विरूद्ध संकल्प लेल प्रेरणा दय सँ दहेज मुक्त लोक-समाजक निर्माणार्थ समूह-निर्माण आ फेर सामूहिक रूप सँ कोनो योजना केँ सफलतापूर्वक निष्पादन।
 
आब आउ सामान्य विषय-सन्दर्भ मे
 
अपना सब जाहि मिथिला सभ्यता के छी एकर अपन अनुपम जीवनशैली छैक जे विरले आर कोनो समाज मे भेटत। अहाँ सभक अपन पाण्डित्य परम्परा (कर्मकाण्ड, पंचांग, पद्धति, रीति, रिबाज, आदि) अछि। सब सँ पहिने अहाँ सभक बास स्थलक विशेषता पर नजरि दियौक – तीरभुक्ति; अर्थात् कोनो जलस्रोतक तीर (किनार) पर बास लेनाय, ओतहि भोग आ मुक्ति धरिक जीवन जीनाय। ई थिक अहाँक सब सँ पैघ विशेषता। एहि मे सामूहिकताक बड पैघ योगदान रहल अछि। बिना समूह निर्माण अहाँ सब कदापि कतहु बसबाक भूल कहियो नहि कयलहुँ। आर हँ, राजा साहेब अहाँक बास-स्थल निर्धारित नहि कयलनि, राजा साहेब सँ भले अहाँ जमीन पारितोषिक रूप मे, दान-दक्षिणा मे, देय मूल्य भुगतान कय केँ अथवा कतेको तरहक संघर्षे कय केँ – तेना प्राप्त कयलहुँ, लेकिन पोखरि खुनेनाय या इनार खुनेनाय आ तखन डीह केर पूजा करैत माटिक पिन्ड रूप (निराकार-निर्गुण शक्ति) परमेश्वर (कुलदेवी-कुलदेवता) केँ सम्मानपूर्वक स्थान दैत निज मानव बासस्थलक व्यवस्थापन कयलहुँ। आर एहि सब लेल कथमपि असगर नहि, किंवा कोनो खास वा विशिष्ट जाति मात्र नहि, बल्कि सर्वजातीय समाज जाहि मे मजदूर सँ पण्डित धरिक सब श्रमजीवीक सहयोग रहल, एना अहाँक जीवन-परम्परा रहल अछि। सब कियो मिलिजुलि कय जीवन संचालन करबाक शैली विकसित कएने छी। कहल जाइछ जे वेद मे वर्णित जीवनशैली अछि हम मिथिलावासीक।
 
एकटा आरो खासियत देखू – पोखरिक महार पर बासस्थल भेल, पोसा माल-जाल आ कृषि व्यवसायक वास्ते उपयुक्त खरिहान आ दलान भेल, कृषि कार्य लेल खेतीपातीक ‘बाध, चौरी, चर, चाँचर, आदि’ भेल; आर पर्यावरण-प्रकृति संग जीवन संचालनक सर्वथा उच्च प्रेरणास्पद ‘कलम-गाछी’ यानि बिना वन-जंगल के जीवन मे मंगल नहि भऽ सकैत अछि ताहि सनातन जीवन पद्धति केँ हम सब कतेक गहिराई सँ जीबि रहल छी तेकर रूप-स्वरूप पर गौर करू। ई सारा काज कथमपि ‘एकल ईकाई’ सँ नहि, समाज निर्माण लेल आवश्यक समस्त जाति-समुदाय केर संग भेल अछि। ओहेन लोकक मुंह पर जबरदस्त चटकन थिक ई सुप्रीम व्यवस्थापन जे यदाकदा निज हित लेल मिथिला केँ ‘एकल जातीय पहिचान’ केर संज्ञा दैत सामाजिक विखंडन करैत अछि। हम खुल्ला चुनौती दैत छियैक कोनो शोधार्थी वा विमर्शी केँ जे कतहु (मिथिला सभ्यताक अनुगामी कोनो स्थान) हमरा ई देखाबय जे एकल जाति-समुदाय द्वारा जीवन-पद्धति विकसित भेल अछि वा संचालित अछि, अथवा भविष्यहु मे एना कदापि कहियो सम्भव भऽ सकैत अछि।
 
मिथिलाक स्थापना मथला सँ भेल अछि। मथबाक बात क्षीरसागर सँ सेहो सम्बद्ध विषय थिक। जहिना सागर मंथन सँ विष, अमृत, रत्न, औषधि, आदि समस्त जीवनाधार वस्तुक प्राप्ति कहल गेल अछि, ठीक तहिना हम मिथिलावासीक सम्पूर्ण जीवन पद्धति मे मंथन आ निष्कर्ष प्राप्तिक अद्भुत संगम देखल जाइछ। लेकिन आइ वैह विखंडनकारी तत्त्व हमरा सब पर हावी अछि। एहि विन्दु पर मंथन करबाक फुर्सतक अभाव देखि रहल छी। हँसी-खुशी गुलामी स्वीकार करबाक परिस्थिति देखि हम क्षुब्ध भेल छी। सामूहिकताक सार्थक शक्ति जेँ क्षीण कय सब कियो अपनहि जातीय फुचफुच्ची मे फूच्च भेल फूच्चड़-भूच्चड़ बनि गेल छी तेँ ई बदहाल अवस्था अछि। जनक – नव बातक सृजन त दूर, हमरा लोकनि विदेशिया नाच केर बदतर ढंग सँ शिकार बनि गेल छी। लगभग १००-१५० वर्ष पूर्वहि सँ ‘विदेशिया नाच’ केर इवोल्यूशन मिथिला मे प्रवेश कयलक आ अपन विदापत नाच, लोरिकायन, सलहेश गान, दीना-भदरीक बहादुरीक कथा-गाथा, अल्हा-रुदल व अन्य वीररस सँ भरपूर निजता केर परित्याग करैत आब त पूर्णरूप मे फूहड़ डीजे आ डिस्को मे अपन माइयो-बहिन केँ नचा रहल छी। लानत अछि एहि विकृत अपसंस्कृति ऊपर! जे कियो निज मौलिकता छोड़ि बाहरी नशा मे डूबल ओकर तीन पीढी, तीन लोक आ प्रकृतिक तीनू मूल आधार पर्यन्त विकृत होयत, से हम सब नीक सँ मन्थन करी। जय मैथिल!
 
हरिः हरः!!