संतोष पर संस्कृत केर प्रेरणादायी श्लोक मैथिली भावार्थ सहित

स्वाध्याय आलेख

– प्रवीण नारायण चौधरी

हमरा सभक समय मे प्राथमिक कक्षा मे संस्कृत केर पढाई उपलब्ध छल। संस्कृतक श्लोक सभक अर्थ सदिखन नीक आ प्रेरणादायी शिक्षा देल करय। नीतिश्लोकाः, सुभाषितानि, अन्य धार्मिक शास्त्र-पुराण आदिक चर्चा सब सँ जे श्लोक सभ प्राप्त हुए ताहि सब मे अपन जीवन मे अनुकरण योग्य सीख भेटि जाइत छल। संतोष – धैर्य – धीरता – एकनिष्ठ भाव आदिक संग मनुष्य केँ आर केना जीवन संयमित रूप सँ जिबाक चाही से सब शिक्षा भेटि जाइत छल। नीतिवान आ नैतिकताक मार्गचित्र पर चलबाक लेल संस्कृत आइयो ओतबे जरूरी आ उचित बुझाइत अछि। आउ आइ किछु श्लोक संतोष सम्बन्धित संकलन कयल प्राप्त भेल अछि, साभार श्वेता प्रताप, एकर मैथिली अनुवाद अपने सभक वास्ते राखि रहल छी।

१.

सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः पराम गतिः।

विचारः हि परमं ज्ञानं शमं हि परमं सुखम्॥

भावार्थः

सन्तोष परम बल थिक, सत्संग परम गति, विचार परम ज्ञान आ शम परम सुख थिक।

२.

सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते शुष्कैस्तृणैः वनगजा बलिनो भवन्ति।

रुक्षाशनेन मुनयः क्षपयन्ति कालम् सन्तोष एव पुरुषस्य परम निधानम्॥

भावार्थः

साँप हवो पीबिकय दुर्बल नहि अछि, जंगली हाथी सुखायल घास खाय केँ बलवान् बनैत अछि, मुनि लोकनि रुख-सुख भोजन कय केँ जिनगी बिता लैत छथि। सन्तोष मात्र मनुष्यक परम खजाना थिक।

३.

तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यो भाग्यात् परं नैव ददाति किञ्चित्।

अहर्निशं वर्षति वारिवाहः तथापि पत्रत्रितयः पलाशः॥

भावार्थः

यदि राजा सेवक सँ खूब खुशो भऽ जेता त ओकर भाग्य सँ बेसी ओकरा कथमपि किछुओ नहि दय सकता। बादल यदि राति-दिन बरखय तैयो पलाश केर तीने टा पत्ता होइत छैक।

४.

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गः तृणं शूरस्य जीवनम्।

जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत्॥

भावार्थः

ब्रह्मविद् (ज्ञानीजन) केँ स्वर्गहु तुच्छ अछि। शूर लेल जीवन तुच्छ अछि। जितेन्द्रिय (विरक्त) लेल नारी तुच्छ अछि। निःस्पृह लेल ई संसार तुच्छ अछि।

५.

आशैव राक्षसी पुंसामाशैव विषमञ्जरी।

आशैव जीर्णमदिरा नैराश्यं परमं सुखम्॥

भावार्थः

पुरुषक लेल आश राक्षसी, विषलता आ जीर्ण मदिरा समान अछि। आशारहितता परम सुख थिक।

६.

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।

विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम्॥

भावार्थः

क्रोध यमराज छी, तृष्णा वैतरणी (यमलोकक) नदी छी, विद्या कामधेनु गाय आर सन्तोष नन्दन वन छी।

७.

सौमित्रिर्वदति – विभीषणा लङ्काम् देहि त्वं भुवनपते विनैव कोशम्।

एतस्मिन् रघुपति राह वाक्यमेतत् विक्रीते करिणी किमङ्कुशे विवादः॥

भावार्थः

लक्ष्मणजी कहलखिन – हे भुवनपति रामजी! अपने विभीषण केँ लङ्काक राज बिना खजाना के दियौन। ताहि पर रघुपति ई वाक्य बजलाह – “हाथी केँ बेचलाक बाद अङ्कुश लेल कि विवाद करब!”

८.

सन्तोषः परमं सौख्यम् सन्तोषः परममृतम्।

सन्तोषः परम पथ्यं सन्तोषः परम हितम्॥

भावार्थः

सन्तोष, ई परम सौख्य, परम अमृत, परम पथ्य आ परम हितकारी थिक।

९.

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।

कुतस्तद्धनलुब्धानां मितश्चेतश्च धावताम्॥

भावार्थः

जे सुख शान्तचित्त लोक केँ अमृतस्वरूप सन्तोष सँ भेटैत छैक, ओ सुख धनलोलुप एम्हर-ओम्हर भगनिहार केँ कतय भेटत!

१०.

अकृत्वा परसन्तापं अगत्वा खलमन्दिरम्।

अक्लेशयित्वा चात्मानं यदल्पमपि तद्भहु॥

भावार्थः

आन केँ सन्ताप देने बिना, खलपुरुष (दुर्जन) केर घर गेने बिना (लाचारी कएने बिना) आ स्वयं केँ अत्यन्त कष्ट देने बिना जे किछु थोड़ बहुत भेटि जाय ओकरा बहुते बुझबाक चाही।

११.

सन्तोषैश्वर्यसुखिनां दूरे दुर्गतिभूमयः।

भोगाशा पाश बध्दानामवमानाः पदे पदे॥

भावार्थः

सन्तोषरूप ऐश्वर्य सँ सुखी लोक दुर्गति सँ दूर रहैत अछि, मुदा भोगाशाक पाश मे जकड़ल लोक केर डेग-डेग पर (लाचारीक कारण) अपमान होइत अछि।

१२.

सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।

सन्तोषमूलं सुखं दुःखमूलं विपर्ययः॥

भावार्थः

परम सन्तोष राखिकय सुख केर इच्छा रखनिहार केँ संयमी बनबाक चाही, कियैक त सुख केर मूल सन्तोष मे छैक आ एकर ठीक विपरीत दुःख केर मूल असन्तोष मे छैक।

१३.

वृत्यर्थं नातिचेष्टेत सा हि धात्रैव निर्मिता।

गर्भादुत्पतिते जन्तौ मातुः प्रस्रवतः स्तनौ॥

भावार्थः

गुजारा चलेबाक लेल बहुते दौड़-धूप केर जरूरत नहि छैक, कियैत त ओकर व्यवस्था ब्रह्मा द्वारा कय देल गेल अछि। गर्भ मे सँ बालक केत उत्पन्न होइत देरी मायक स्तन सँ दूधप्रसव होबय लगैत छैक।

१४.

न योजनशतं दूरं बाध्यमानस्य तृष्णया।

सन्तुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः॥

भावार्थः

तृष्णा सँ पीड़ित लोक केँ सैकड़ों योजन दूर नहि बुझाइत छैक। मुदा सन्तोषी लोक केँ अपन हाथो मे आयल चीज केर आदर (आसक्ति) नहि होइत छैक।

१५.

अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।

तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥

भावार्थः

तृष्णाक अन्त नहि (अनन्त) छैक आर सन्तोष परम सुख थिक। तेँ विद्वज्जन सन्तोषहि केँ एहि लोक मे श्रेष्ठ बुझैत छथि।

१६.

अकिञ्चनोप्यसौ जन्तुः साम्राज्यसुखमश्नुते।

आधिव्याधिविनिर्मुक्तं सन्तुष्टं यस्य मानसम्॥

भावार्थः

जेकर मोन आधि-व्याधिरहित अछि आर सन्तुष्ट अछि ओ गरीब रहितो साम्राज्यसुख केर भोग करैत अछि।

१७.

अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः।

सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमयाः दिशः॥

भावार्थः

अकिञ्चन, संयमी, शान्त, प्रसन्न चित्त रखनिहार, सदिखन सन्तुष्ट मनुष्य लेल सब दिशा सुखमय अछि।