उगना विद्यापति (नाटक)

मैथिली जिन्दाबाद पर 'उगना-विद्यापति' नाटक केर मैथिली अनुवाद उपलब्ध

मिथिलाक सुप्रसिद्ध सत्यकथा – लोकश्रुति मे जीवित – महाकवि विद्यापति एवं महादेव रूपी सेवक ‘उगना’ पर आधारित नाटक

उगना-विद्यापति

(मूल लेखक – हिन्दी मे डा. गिरिजा किशोर झा तथा डा. ललन कुमार झा)

अनुवाद – प्रवीण नारायण चौधरी

अंक १
दृश्य १

(स्थान विस्फीक ग्रामीण वातावरण। अपन दलान पर विद्यापति पूजा पर बैसल छथि। धोती पहिरने, उघार देहे, जनेऊ धारण कएने तथा माथा पर त्रिपुण्ड व लाल रंगक सिन्दूर ठोप लगेने, छाती, बाँहि और गला मे भस्म तथा रुद्राक्षक माला पहिरल हुनक रूप रंग, पूजा मे डूबल आ आँखि बन्द)

विद्यापतिः (आँखि खोलैत) हर हर महादेव! हर हर महादेव!! कृपा करू हे भोलेशंकर, त्रिभुवननाथ!! स्वीकार करू हे दानी। आजुक ई तुच्छ चढावा केँ ग्रहण करू। (कहैते एकदम भाव मे डूबिकय गाबय लगैत छथि)

आजु नाथ एक व्रत महासुख लागत हे

तोंहे शिव धरू नटवेश, कि डमरू बजावह हे

तोंहे जे कहय छह गौरा नाचह, से कोना नाचब हे

आहे चारि सोच मोहे लागत, से कोन परि बाँचब हे

अभिय चुबि भहि खसत, बघम्बर जागत हे

आहे होयत बघम्बर बाघ, बसहो धरि खायत हे

शीष सँ ससरत शेष, चहुं दिसि ससरत हे

आहे कार्तिक पोसल मयूर, सेहो धरि खाएत हे

शीष सँ झहड़त गंग, जगत भरि पाटत हे

आहे होएत सहस्त्र मुखधार, समेटलो नेँ जाएत हे

मुण्डमाल टुटि खसत, मसान जगाबत हे

तों त जएबह पड़ाए, कि गौरा नाच के देखत हे

भनहि विद्यापति गावल, गावि सुनाओल हे

राखल गौरा केर मान, हरनाच देखाओल हे।

(भजन समाप्त करैत शिवलिंग पर झुकि जाइत छथि। एक अलौकिक आभा शिवलिंग सँ निकलिकय क्षणहि भरि मे विलीन भऽ जाइत अछि। विद्यापति आँखि मुनने शिवलिंग पर झुकले पड़ल रहैत छथि।)

दृश्य परिवर्तन

(हिमाच्छादित पहाड़क दृश्य जाहि के ऊपर अर्थात् कैलाश पर्वत पर देवाधिदेव महादेव आ पार्वती बैसिकय एकटक मृत्युभुवन के विस्फी गाम केर अपनहि घर मे पूजा मे डूबल विद्यापति दिश ताकि रहल छथि)

पार्वतीः नाथ! ई त अपूर्व भक्त लागि रहल छथि। कतेक भाव मे डूबि अहाँक पूजा कय रहला अछि!

महादेवः (पार्वतीक बाजब दिस बिना ध्यान देने) आह! आह!! विद्यापति, अहाँ अपूर्व भक्त छी। अहाँक भक्तिभावना अलौकिक अछि।

पार्वतीः सत्य नाथ! सत्य!! हिनकर मनोकामना जरूर पूरा करू। धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान दय केँ हिनका जरूर सन्तुष्ट करू।

महादेवः नहि प्रिये नहि! ई ओहेन भक्त नहि छथि जे धन-सम्पत्ति या मान-सम्मान चाहैत होइथ, ई त किछु आरे चाहैत छथि।

पार्वतीः ओ मृत्युभुवन केर जीव थिकाह नाथ। धन-सम्पदाक अतिरिक्त हुनका आर चाहबे कि करी? अहाँ धन-धान्य सँ भरि देबैक त ओ सन्तुष्ट भऽ जेताह।

महादेवः नहि, कदापि नहि प्रिये। ओ भक्त थिकाह, लोभी नहि। ओ त्यागी छथि, स्वार्थी नहि। हुनका मरण मे स्वर्ग आ जीवन मे राज्य दय केँ देखि लिअ, ओ मरण स्वीकार करता, जीवन नहि।

पार्वतीः हम नहि मानि सकैत छी। ओ मानव छथि। धने मानवक कमजोरी थिकैक। अहाँ धन-सम्पदा दय कय त देखू।

महादेवः प्रिये! यदाकदा मायावी मृत्युभुवन मे सेहो अलौकिक आत्मा जाय कय बसि जाइत अछि। अपन समग्र जन्म मे भेल कोनो त्रुटि सभक भोग कहू अथवा परिमार्जन लेल अवसर – वैह पूरा करबाक लेल ओ मृत्युभुवन पर अबैत अछि। ई वैह आत्मा थिकाह जे मृत्युभुवन पर अपन भविष्यपथ केँ सजा रहला अछि।

पार्वतीः नाथ! ओना त अपने त्रिभुवननाथ थिकहुँ। अहाँ सब चीज जनैत छी। लेकिन एक बेर हमर बात मानिकय अहाँ हुनकर परीक्षा लय कय त देखू जे ओ मायालिप्त मानव छथि आ कि अलौकिक आत्मा।

महादेवः अहाँक बात हम मानि लैत छी प्रिये। मुदा एहि परीक्षा मे अहाँ केँ सेहो कनेक कष्ट उठाबय पड़त। किछु दिन अहाँ केँ हमरा सँ बिछोह सहय पड़त। जँ अहाँ केँ स्वीकार्य अछि त हम एखनहि परीक्षा लेबाक तैयारी करैत छी।

पार्वतीः ठीक छैक। हमरो अहाँक बात स्वीकार्य अछि। हम किछु दिन लेल बिछोह सहन कय लेब। मुदा मायालिप्त मानवक परीक्षा जरूर देखय चाहब।

महादेवः जेहेन इच्छा अहाँक! अच्छा-अच्छा!! देखू जे भक्त विद्यापति पूजा समाप्त करय जा रहल छथि।

(विद्यापति शिवलिंग सँ माथा उठबैत, हाथ जोड़ने छथि, जे पर्दाक पाछाँ सँ देखाइत अछि)

विद्यापतिः दर्शन दिअ, दर्शन दिअ हे त्रिभुवननाथ, दर्शन दिअ! एहि पापी केँ दर्शन दय कय उद्धार करू प्रभु।

महादेवः (नेपथ्य सँ, जे विद्यापति नहि सुनि पबैत छथि) साधु! साधु!! भक्त विद्यापति, अहाँ अलौकिक भक्त थिकहुँ। अहाँक एक-एक चढावा केँ हम बहुत संजोगिकय रखने छी भक्त। अहाँक एक-एक उपकार केँ सेहो हम संजोगिकय रखने छी भक्त। अहाँक एक-एक उपहार अहाँक जीवनक एक-एक स्वर्णिम पृष्ठ बनिकय रहि जायत। (पार्वती दिश ताकिकय) अच्छा प्रिये! आब हम सब चली, परीक्षाक तैयारी करबाक अछि आर अपन अनुपस्थिति मे अहाँक सेवाक लेल किछु भूत-प्रेत-गण सब केँ तत्पर कय दैत छी, नाग केँ सेहो अहाँक मनोरंजन लेल राखि देब, मुदा बसहा नहि मानत…! ओ हमर संग नहि छोड़त। तेँ ओकरो लेल व्यवस्था करय पड़त। तेँ आब चलू!

पार्वतीः अच्छा नाथ! (दुनू अन्तर्धान भऽ जाइत छथि)

दृश्य १ समाप्त

दृश्य २

(वैह विद्यापतिक दलान, विद्यापति केर तन्मयतापूर्वक नचारी गायनक दृश्य)

विद्यापतिः (गीत गबैत)

कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ, कखन हरब दुःख मोर

अरे दुखहि जनम लेल, दुखहि गमाओल

सुख सपनेहुँ नहि भेल हे भोलानाथ, कखन हरब दुःख मोर

एहि भवसागर, थाह कतहु नहि

भैरव धरू करूआरि हे भोलानाथ, कखन हरब दुःख मोर

भन विद्यापति, मोरा भोलानाथ गति

करब अन्त मोहि पार हे भोलानाथ, कखन हरब दुःख मोर

(नेपथ्य सँः विद्यापति! यथार्थतः अहाँ एहि भू पर रहय योग्य नहि रहि गेल छी। माया-मोह केर बन्धन आब टुटैयेवला अछि। हमर शिवनगरी अहाँक प्रतीक्षा कय रहल अछि। हम आबि रहल छी। आबि रहल छी अहाँक सान्निध्य मे किछु समय व्यतीत करबाक लेल। ओहि पावन भूमि मिथिला नगरी मे घुमय लेल जाहि ठामक माटि अहाँ जेहेन महान लोक केँ जन्म देलक, आर जाहि पर अहाँ खेललहुँ-धुपलहुँ आर ओकर स्पर्श कयलहुँ। आबि रहल छी। आबि रहल छी। आब आरो प्रतीक्षा सहन नहि भऽ रहल अछि। समय कम अछि आ दूरी बेसी तय करबाक अछि। तेँ हम आबि रहल छी, आ एखनहिं आबि रहल छी।)

विद्यापतिः (किछु सुनि नहि पबैत छथ, नचारी समाप्त कय) प्रभो! देवाधिदेव!! कल्याण करू हे शंकर, दर्शन दिअ हे भोलेनाथ!! (सोझाँक शिवलिंग पर झुकि जाइत छथि, ताहि समय १३-१४ वर्षक एक लड़का सामने आबि बैस जाइत छन्हि, डाँर्ह मे धोती लपेटने भगवा वस्त्र पहिरने, खुला देह, खुला पैर मे बेमाय फाटल, केस बेतरतीब ढंग सँ बिखड़ल अवस्था मे, धरती पर हाथ सँ तबला जेकाँ पीटैत…)

लड़काः बुझाइत अछि जे सुति रहला हँ शिवलिंग पर! नीन्द आबि गेलनि हँ शाइद। यौ सरकार? सुनैत नहि छी? यौ सरकार?

विद्यापतिक पत्नीः (अचानक प्रवेश करैत) के छियँ रे! कियै हल्ला करैत छँ! देखैत नहि छिहीन जे मालिक पूजा कय रहल छथिन!! अरे, तूँ के छियँ? कतय सँ एलें एतय? कि काज छौक तोरा?

लड़काः अहाँ के छी? हमरा मालिक सँ काज अछि। हम कैलसबा गाम सँ एलौं हँ। शम्भुआ के बेटा छी। अहाँ बुझलियैक कि नहि बुझलियैक? लेकिन अहाँ छी के? अहाँ मेहरारू बुझाइत छी मालिकक! अच्छा कोनो बात नहि। अहाँ सँ बात नहि करबाक अछि। मरदवाली बात छैक से मालिके सँ बतियायब।

विद्यापतिक पत्नीः (क्रोध सँ) रे तूँ पागल छँ की? भाग एतय सँ! पूजा मे विघ्न भऽ रहल छन्हि। भगलें कि नहि एतय सऽ?

लड़काः नै! नै भागब। कतय भागब? हम मालिक सँ बतियाकय भागब। पूजाक परसादी खा कय भागब। अहाँ जाउ एतय सँ। मरदवाली बात छैक। हम मालिके सँ बात करब, अहाँ स किछो बात नहि करब। हमरा लोक सब कहलक हँ जे मालिक नीक लोक छथिन। एगो बिछौना कय देबनि से नहि होइत अछि? देखैत नहि छियैक जे मालिक भुइयें पर सुति रहला हँ? देखू-देखू! माथो फूटि जेतनि महादेव पर। ओंघा-ओंघाकय खसि रहला अछि। खाली हमरा सँ बतियाकय कि होयत? खाली मालिक के सेवा करियौन, मालिक के। सैह! कहू त भला! जे काज करबे नहि करब आ खाली बाते टा करब?

विद्यापतिक पत्नीः (माथा पकड़िकय) हे भगवान्! कतय सँ ई बतहा एतय आबि गेल अछि। रे चुप्पो रह। मालिक पूजा कय रहल छथिन। जो, भागि जो एतय सँ। नहि तऽ आ एम्हर, तोरा किछु खाय लेल दैत छियौक। मालिक हल्ला सुनथुन त तमसेथुन। पूजा मे विघ्न नहि दहुन।

लड़काः विघ्न त अहाँ दय रहल छियनि। खाय लेल देब? कथी सब बनेलहुँ हँ खाय लेल? अपन देह त सुखायल अछि, हमरा कथी देब? जाउ-जाउ! हम अहाँ सँ बात नहि करब। मरदवाली बात छैक, मालिक सँ बतियाकय जायब।

(ता धरि विद्यापति शिवलिंग सँ माथा उठबैत छथि, मुदा आँखि बन्द छन्हि, आर हाथ जोड़ैत…)

विद्यापतिः हे देवाधिदेव! दर्शन दिअ। हे शम्भो! कृपा करू। (कहैत आँखि खोलैत छथि)

विद्यापतिक पत्नीः (जोर सँ बजैत) रे तूँ भागय छँ कि नहि?

विद्यापतिः कि बात छैक दुलहनियां? ई के छी?

विद्यापतिक पत्नीः कि जाइन ई कतय सँ आयल हँ। बताह बुझाइत अछि। झगड़े करय लगैत अछि।

लड़काः नहि मालिक! हम बताह नहि छी। (कहिकय कानय लगैत अछि) हमरा बड बात-कथा कहली हँ। हम त नौकरी लेल एलौं हँ। हमर मेहरारू हमरा पठेली हँ नौकरी करय लेल। मरदवाली बात छैक से हिनका सँ केना बतियैतहुँ, तेँ ई तमसायल छथि, भाग-भाग कहि रहली हँ। खाय लेल दैत बयला रहल छलीह।

विद्यापतिक पत्नीः आब एहि बताह सँ अहीं सलटू। हम भीतर जाइत छी। भातो चुल्हा पर गिल भऽ गेल होयत। (कहिकय ओ भीतर चलि जाइत छथि)

विद्यापतिः (स्नेह सँ भरल) बाबू! कि काज छौक तोरा हमरा सँ? कतय सँ अयलें हँ? कि नाम थिकौक?

लड़काः बेराबेरी कय के पुछू न! एक्के बेर एतेक बातक बरखा कय देलहुँ। असल मे हमरा काज अछि एकटा नौकरी के।

विद्यापतिः (हँसैत) तोहर नाम कि छियौक?

लड़काः हमर नाम छी ‘उगना’। माने ‘उग ना’। लोक सब उधनो कहैत अछि।

विद्यापतिः (हँसैत) पिताजीक कि नाम छियौक?

लड़काः अनेरुआ छी। बाप-माय के पता नहि अछि। के जनम देलक तेकर ठेकाने पता नहि अछि।

विद्यापतिः घर कतय छियौक?

लड़काः जखन बाप-माय के पता नहि अछि त घर कतय आ दरबज्जा कतय! जतय धर ओतय घर! ओना बहुते दिन सँ हिमलिया जिला के कैलसिया गाम मे रहैत छी। ओतय हमरा सब जनैत अछि। पता लगा लियऽ। सब गवाही देत। कोनो चोर-उचक्का नहि छी।

विद्यापतिः तोहर अपन कियो नहि छौक?

लड़काः अछि कोना नै! नौ बरस पहिने एगो लड़की सँ ब्याह भेल। बाप-माय धनिक छलैक से कनेदानो बेटी केँ राखि लेलक। ओ जे हमर मेहरारू छथि से नैहरे मे रहैत छथि, ओतहि खाइत-पियैत छथि। हमरा आब मोन औगता जाइत अछि। त घुमय-फिरय ल – किछु कमाय-धमाय ल निकलि पड़ैत छी। बहुत-बहुत दिन के बाद जखन वापस जाइत छी त खूब मान-आदर होइत अछि हमरो ओतय। आ सब दिन रहैत छी त अपने मोन खुटखुट करय लगैत अछि जे सब दिन ससुरारिये मे बैसल छी। छय कि नै मालिक सही बात कहियो-कहियो ओतय सँ निकलि गेनाय?

विद्यापतिः अच्छा-अच्छा!! ठीक छौक तोहर सोचनाय। मुदा हमरा ओतय त कोनो काज नहि छैक?

लड़काः (ठहाका मारिकय) हे भगवान्! एतेक बड़का दरबार मे राहड़िक दालि नहि? हमरा त भगतबा कहने रहय जे एतय काज जरूर भेटत। तेँ एलहुँ। नहि अधलाह लोक लग कोनो काजक कमी थोड़े न छैक। हमरा सँ त कहलक जे मालिक के पास बरदो छन्हि, गाइयो छन्हि, हरबाही के काज भेटि जायत। ताहि लेल हम एतेक काल सँ झगड़ो कय के बैसल रहलहुँ जे मरदवाली बात अछि, मालिक सँ मरदे-मरदी बतियायब। लेकिन अहाँ त जुए पटकि रहल छी। अच्छा तखन हम जाइत छी मालिक। परनाम! (जाय लगैत अछि)

विद्यापतिः (किछु सोचिकय) अरे सुने त बौआ! कि नाम कहने रहय… हँ उगना! अरे उगना! एम्हर आ।

उगनाः हँ सरकार!

विद्यापतिः बरद चरेबहीन? हरबाहा त पहिने सँ छैक। अगर चरबाहा बनिकय रहबें त रह, नहि त जो।

उगनाः मालिक! मालिक!! आरामे वला काम हमरा चाही। हरबाही मे बड़ मेहनति होइत छैक। हम असल मे चरबाहिये ताकि रहल छलहुँ। ठीक छैक मालिक! हम बरदक चरबाहिये करब।

विद्यापतिः तोरा पारिश्रमिक कतेक चाही?

उगनाः ई कोन चीज भेलय मालिक? कोनो खायवला चीज भेलय की?

विद्यापतिः रे, दरमाहा कि लेबें?

उगनाः हौ मालिक! हमरा दरमाहा-तरमाहा के जरूरत थोड़े अछि? अहाँ सऽ धनिक त हमर ससुरे अछि। हमरा त मोन लागयवला जगह चाही जतय कनी दिन समय कटि जाय। फेर त सासुरे जेबाक अछि। हँ मालिक! हमरा गीत सुनय मे, आ सेहो भोलाबाबा के गीत सुनय मे बहुत नीक लगैत अछि। खाली एतबा इजाजत दिअ जे ओ गीत सब सुनय बेर हमरा पर बिगड़ब जुनि। मालिक अहाँ सुन्दर-सुन्दर गीत गबैत छी, आ सेहो भोलाबाबा के त बड़ा निमन सुनय मे लगैत अछि। बस, भऽ गेलय। दरमाहा-उरमाहा लय कय कि करब हम! हँ, भोजन-उजन नीक सँ करब। दुनू साँझ जलखै करब। एगो भगवा पहिरय ल कहियो-कहियो दय देब। जाड़ ताड़ लगिते नहि अछि, एकदम निठ्ठाह देह अछि, एकदम निठ्ठाह। किछु दिन तक अखाड़ा मालिस सेहो केने छी। (मुंह घुमाकय अपना आप सँ) भगवा के बात एखन नुकइये लैत छी, नहि त निशाखोर बुझिकय कहीं भगइयो न देथि। (विद्यापति सँ) यौ मालिक, हमर काज सँ कोनो शिकायत नहि भेटत। हम बरदो चरायब, जरनो आनि देब, खाली हमरा पर बिगड़ब टा नहि। कारण हमरा डाँट सुनिकय गारा-बकौर लागि जाइत अछि। हृदय बड़ कमजोर अछि। अखड़ो मालिस सँ बरुआर नहि भेल। तऽ एखनिये सँ बरद चराबय जाउ की?

विद्यापतिः घबरा कियै रहल छँ। तोहर काज पक्का भेलौक। पहिने जलपान कय ले। देखि-सुनि लेल जे तोरा कतय रहबाक छौक, कतय सुतबाक छौक, कतेक बरद आ कतेक गाय छैक, कतय चरेबाक छौक, कतय बन्हबाक छौक…। हँ सुने! खाली बाजे कम। ई ध्यान राखे।

उगनाः मालिक ई बात सच छैक जे हम बड बजैत छी। कि करू। बच्चे स अनेरुआ रहय के कारण कियो हांटन-डांटन दयवला नहि रहल, तय सँ बहुते बाजय के आदति पड़ि गेल। कियो रोकय वला नहि न छलय! जहाँ धरि बरद चराबय के बात अछि, से त हमरा चारूदिश देखले अछि। भैर दिन बौएबे त करय छी। बरद के बान्हय-उन्हय के बात न छै। हम दुइये दिन मे ओकरा एकदम पोसुआ बना देब। महादेव के बसहा जेकाँ! कतहु सँ बजेबय त दौड़ले चलि आयत।

विद्यापतिः (हँसैत) अच्छा, अच्छा। जो, जे मोन होउ से करे। खाली मुंह चुप करे। बरद चरबय सँ पहिने हमर माथा पर नहि चढे। तोरा जेहेन लोक आइ धरि नहि देखलहुँ।

उगनाः हौ मालिक… देखबो नहि करबय! हम सब दिन अनेरुआ रहलहुँ, एहि लेल मुंहफट भऽ गेलहुँ। अनेरुआ केँ कियो पुछैत छैक थोड़बे! तखन अनेरुओ केकरो नहि गुदानैत छैक। जे मोन होइत छैक से करैत अछि। आइ एहि दुआरि, काल्हि ओहि दुआरि, जतय मोन होइत छैक ओतय घुमैत अछि। ओकरा त काजे काज छैक। हँ, आदमी माने मालिक निम्मन रहय, मानलक-उनलक त किछु दिन रहि जाइत छियैक, नहि त भागि जाइत छियैक। दोसर काज भेटि जाइत अछि। हमरा खाली माने-उने वला मालिक चाही। बिगड़य-उगड़य कम। भगतबा हमरा सँ खाली कहने रहय जे मालिक बढियां छथि, बहुते मानदान करता, बिगड़त-उगड़त नहि। त हमरा मोन भेल जे कनी सेहो देखिये ली। एहि लेल एलौं हँ।

विद्यापतिः (हँसैत) अच्छा, आबे आ जो। हमहुँ कि बुझबय जे कोनो चाकर सँ पाला पड़ल छल! (मुंह पाछू घुमाकय) दुलहिक माय! ओ दुलहिक माय!!

विद्यापतिक पत्नीः (प्रवेश करैत) आसन लगा देलहुँ। चलू, भोजनक बेर भऽ गेल।

विद्यापतिः नहि-नहि! अपना भोजन लेल हम अहाँ केँ नहि बजेलहुँ अछि। पहिने एहि चरबाहा उगना केँ भोजन दय कय तृप्त कय दियौक। आइ ओकर पहिल दिन थिकैक। कहीं आइये सँ शिकायत करनाय नहि शुरू कय दियए।

विद्यापतिक पत्नीः त अहाँ ओकरा राखिये लेलहुँ। ओ बताह अछि। बरद कि चरायत… खाख! कखन कि बाजत आ कि करत कहब मोस्किल अछि। ओना ओकर पता-ठेकाना त जानि लेलहुँ न?

विद्यापतिः नहि-नहि! ओ चोर-उचक्का नहि अछि। खाली बजैत टा बेसी अछि। हृदय के बहुत साफ अछि। ओनाहू, दरबज्जा पर किछु मांगय लेल आबय त ओकरा खाली हाथी घुमेनाय धर्म नहि थिक। ओकरा खाली केना घुरय दितहुँ। हमरा जनैत ओ कोनो बात गलत नहि कहलक अछि। कि सत्य आ साफ बाजब अपराध थिकैक! ओना रोटी त सब केँ चाही। भोलेशंकर ओकर रोटी एतहि बनेबाक आज्ञा देलनि अछि। तेँ ओकर रोटी ओकरा केना नहि दितहुँ! (किछु सोचय लगैत छथि… फेर किछु क्षण बाद) एक बात के विश्वास होयत? हम जखन ओकरा सँ बात कय रहल छलहुँ त हमरा हृदय मे गुदगुदी जेकाँ अनुभव भऽ रहल छल, शरीर सेहो पुलकित भऽ जाइत छल, कियै से हम नहि कहि सकैत छी।

विद्यापतिक पत्नीः हम कहि नहि सकैत छी जे कियैक अहाँ एतेक संवेदनशील भेल जा रहल छी। शाइद उमेर केर असर छी। अहाँ केँ सब ठाम सब मानव आ जीव मे देवत्व मात्र देखय मे अबैत अछि। उमेर बढबाक साथ-साथ विचार सेहो भ्रमित होइत जाइत छैक। अच्छा, छोड़ू! राखि लेलहुँ त नीक केलहुँ। आब अहाँ बुझू, अहाँक काज बुझय, अहाँक चरबाहा जानय आ जानय अहाँक ईश्वर। हम एहि तीन-तेरह मे नहि पड़य चाहि रहल छी। अहाँ जे चाहबय सैह न हेतय एहि घर मे! हम खाय लेल दैत छियैक। अहाँ चलू भोजन पर।

विद्यापतिः हम सचमुच दिग्भ्रमित भेल जा रहल छी दुलहिक माय! अच्छा पहिने ओकरा परितुष्ट करू, हम तुरन्त एलहुँ ओकरा भोजन लेल पठाकय।

(दुनूक प्रस्थान)

विद्यापतिः (बाहर दरबज्जा पर जायकय) उगना, अरे ओ उगना, कतय गेलेँ रौ? कि कय रहल छँ?

उगनाः एलहुँ मालिक। बरद के घर मे एगो बड़का टा के साँप छलय, ओकरे भगा रहल छलहुँ। अहाँ त घरो जंगले-झाड़ मे बना लेलौं हँ मालिक। साफ – फरेश जगह मे न घर बनबितहुँ! मालिक, हम मारलहुँ नै ओहि साँप के… बड दरेग आबि गेल जे कथी लेल बेचारा केँ मारू। धाड़-धाड़ कय केँ बयला देलौं। मालिक अहाँक बरदो बड़ा निडर अछि। ओहो सींग सँ हुरपेटि रहल छल ओहि साँप केँ।

विद्यापतिः यैह जंगल सँ त हमरा लोकनि जियैत छी रौ। साँप आदि त एतय भेटब सामान्य बात छी। अच्छा छोड़ ई सब, जो पहिने भोजन कय ले।

उगनाः अच्छा, जाइत छी मालिक। ओना एखनिये ढेकार भेल छल। कथी के ढेकार छल… भूख के कि पेट भरल के… से पते नहि चलल। भोर मे भगतबा खियइयो न बहुत देने छलय चलय बेर मे!

विद्यापतिः अच्छा जो, पहिने भोजन कय ले, फेर बरद चरा अनिहें।

उगनाः अच्छा मालिक! (दुनू के प्रस्थान)

विद्यापतिक पत्नीः (भोजन दैत) उगना नाम छियौक की? मालिक कहि रहल छलखुन। भोजन जतेक करबाक छौक से करे। लेकिन बरद केँ सेहो पेट भरिकय चरबिहें, नहि त ठीक नहि हेतौक। हँ, कखनहुँ कोनो दिक्कत होउक त सेहो कहिहें।

उगनाः (खाइत-खाइत) मालकिनी, हम त अहाँक चरबाहा भऽ गेल छी, जे कहब हम से मानब। ओना हमर नाम अहाँ केँ ठीक पता अछि। उगने नाम छी हमर, उगने। जतय तक बरद केँ खुएबाक बात छैक से त खुएबे करब, हमर कि जायत! अपन मुंह सँ चरत आ खायत। हम लाठी लेने खाली रखबारि करब, सैह न! हम त ओहेन आदमी छी जे नहियो चरत त कहबय लाठी सँ मारि-मारिकय जे चर, चर आ आरो चर। एहेन हल्लुक काज दुनिया मे एको गो नहि छैक मालकिनी। एहि लेल हम चरबाहिये तकैत रहैत छी। बरद अपना मुंह सँ चरत आ हम गोली-गोली – एटन होटन खेलाइत रहैत छी। हमरा सँ कोनो पटको-पटकी नहि न करैत अछि, हमर देहक बरुआरि देखिकय। हम त अखाड़ा मालिस सेहो न कएने छी किछु दिन। हँ दिक्कत-उक्कत वला बात हम अहाँ केँ नहि कहब। कारण मरदवाली बात छैक, से मालिके केँ अपन दुःख-सुख कहबनि।

विद्यापतिक पत्नीः (अपने आप सँ) ई बताह तँ सब केँ बताह बना देत। कतय सँ आफद आबि गेल। (पता नहि फेर) अच्छा-अच्छा, पहिने खो। जे करबाक छौक से करिहें।

उगनाः (जोर सँ ढेकार करैत) आऽऽऽह! बड़ निम्मन भोजन छलय। मालकिनी दाइल जे सुअदगर रहय… हाय रे हाय! ओहो आमिल देल उलायल राहड़िक दाइल खाय लेल हम एतय धरि आयल छी। नहि त मड़ुआ के रोटी आ अल्हुआ खियाबय वला मालिक त डेगे-डेग पर भेटैत अछि। ठीके भगतबा कहने रहय जे मालिक बड़ निम्मन छथिन।

विद्यापतिक पत्नीः आरो किछु लेमें?

उगनाः आब किछो नहि चाही मालकिनी। पेट भरयवला बाजा-ढेकार नहि सुनलियैक जे? अच्छा, आब जाइत छी। अपने त हम हुड़ि लेलहुँ आ आब बरदो केँ खुएबाक अछि न।

(चलि जाइत अछि) दृश्य दू समाप्त

उगना-विद्यापति

(नाटक)

दृश्य ३

(वैह विद्यापतिक घर। सोझाँ उगना ठाढ अछि आ विद्यापतिक पत्नी अन्दर सँ प्रवेश करैत छथि)

विद्यापतिक पत्नीः उगना! घरक चारू दिश भङ्गेरिया उगि गेल अछि। समय भेटउ त ओकरा साफ कय लिहें।

उगनाः एखनिये न सब भांग-भङ्गेरिया साफ कय दैत छी। बरद केँ टपा दैत छी, आधा ओ चरि लेत आ आधा त हम अपने सिरोहि कय खा लेब। मालकिनी! आब त हमरा अहाँ ओतय चरबाहो मे नौ बीस आ पाँच दिन भऽ गेल। आब अहाँ सँ कि नुकाबू! हम कनी-मनी निशाखोरो छी मालकिनी! ताड़ी-उड़ी नहि पिबैत छी। हम खाली भांग कखनियो-कखनियो निश्चिते खा लैत छी। जन्मे सँ अनेरुआ रहलियै न मालकिनी! तेँ एहेन-एहेन आदति लागि गेल। कियो हाटन-डाँटन दयवला नहि छल। ओना अहाँ केँ कोनो शिकायत-उकायत नहि आयत। नौ बीस आ पाँच दिन मे कोनो शिकायत नहि न आयल? लेकिन भांग हम सब दिन खाइत रहलौं हँ, अहाँ सब सँ नुकाकय साँझ मे। डर लगैत छल जे अहाँ सब बुझब त निशाखोर बुझिकय बयलइयो देब। तेँ चोरा क खाइत रही। सच बात कहैत छी मालकिनी। बहुतो जगह नौकरी कयलहुँ लेकिन एहेन मालिक-मालकिनी नहि भेटल छल। हम कतहु एतेक दिन रहबो नहि न केलियैक! मालिक पूजा करय के बेर जखनहि भोला गीत गबैत छथि न त हाय रे हाय… लगैत अछि मालिक एहि दुनिया मे रहिते नहि छथि। सुनय मे जे मोन लगैत अछि से हाय रे हाय…! मालकिनी, ३ दिन सँ मालिक केँ देखबे नहि करैत छियनि? कोनो कुटमैता-उटमैता गेला हँ की?

विद्यापतिक पत्नीः रे, तूँ त सही मे निशाखोर बुझाइत छँ? तोरा जंगल साफ करय लेल कहलियौक त तूँ प्रवचन देनाय शुरू कय देलें। हँ, मालिक आइ-काल्हि राजदरबार गेल छथिन। दरबार सँ बजाहटि आयल रहनि।

उगनाः राजदबार कि होइत छैक मालकिनी? कोनो इस्कुल-उस्कुल होइत छैक की? आ कि मन्दिर-उन्दिर?

विद्यापतिक पत्नीः जो! अपन काज करे!! तोरा बुझेनाय, तोरा किछु कहनाय, अपन आफद बजेनाय भेल।

उगनाः कि करू मालकिनी! चुप रहले नहि जाइत अछि। एक बेर मालिक एहि खातिर बड़ा बिगड़लो छला हँ। हम सोचलहुँ जे देखैत छी कि चुप केना रहल जाइत अछि। से त आँख-उख मुनि-उनि क बैसि गेलहुँ। से त कहैत छी कि मालकिनी ३ दिना ३ राति आँखि आ मुंह खोलबे नहि कयलहुँ, अपने औगता कय बयला देला। हमरा काजो मे एतय मोन लगैत अछि आ बाजहो मे मोन लगैत अछि। मालकिनी! आ हरबहबो नहि अबैत अछि की? भरि दिन बरद बैसले खाइत अछि। देखैत नहि छी जे बैठारी के खेनाय ओकरा मोटाकय सिलौठ बना देलक हँ। कोनो काजे नहि होइत अछि ओकर, खाली दिन भरि चरैत-खाइत अछि आ मोन सँ ढेकरैत सेहो खूब अछि। हम कहबो करैत छियैक जे खाय ले बौआ, एतेक बैठारीक दिन कतय भेटतहु!

विद्यापतिक पत्नीः रे! बरद हमर छी। तोरा भोजन हम देबे करैत छियौक त फेर तोरा कि लेना-देना छौक जे ओ बैसल अछि कि काज करैत अछि? तूँ अपन काज करैत रहे।

उगनाः खाली बैसले से खाइत-खाइत आलस्य नहि भऽ जायत? एहिना बैठारी मे खाइत रहलौं न त एक दिन पालो देखिये कय दाँत-उँत खिसोरिकय पैड़ रहत… तखन बुझबय! नहि त एतेक जोर सँ अपन बरुआरी देखायत कि पालो-उलो लेने-धेने, हर-फार केँ तोड़ि-ताड़िकय भागि जायत चरय लेल। अहाँ कि हर-उर के बात बुझबय? मरदवाली बात छैक, मालिके बुझथिन।

विद्यापतिक पत्नीः रे धन्य तूँ छँ आ धन्य छथुन तोहर मालिक। जेहने मालिक तेहने चाकर! न अपन घरक चिन्ता हुनका छन्हि आ ने अपन घरक चिन्ता तोरा छौक। जो-जो! अपन काज करे। (भीतर चलि जाइत छथि)

उगनाः (अपने आप सँ) रे ई भांगो नोचनाय कोनो काज भेलय? ई त एको दिन जोगरक नहि अछि। आ ताहि पर सँ बरदो केँ चाही। बड़ा लोभित भऽ गेल अछि। जहाँ भांग खाइत छी त ओ कनखिया कय देखैत रहैत अछि। काल्हि खन लथारो चला देने रहय। हम कहलियैक जे बैठारी मे मोटाइ चढि गेलउ हँ। फेर कनिके काल मे दया सेहो आबि गेल। कनी ओकरो दय देलियैक। कि करू। अपने डाँटियो दैत छियैक त अपने गराबकौर सेहो लागि जाइत अछि। बेचारा बहुत बात मानैत अछि, ओकरा भूखल राखि अपने कोना खायब। अच्छा चली आब भङ्गेरिया सफाई मे। (चलि जाइत अछि)

(केबाड़ी के दोग मे पाछू ठाढ विद्यापतिक पत्नी सब बात सुनि रहल छथिन)

विद्यापतिक पत्नीः (अपना आप सँ) निठाह बताह अछि। जे मोन मे एतय सैह बाजत, सैह करत। मालिको न माथ पर उठा रखने छथिन। ओना काज त गजब साफ-सुथड़ा करैत अछि। अच्छा, चली। भीतरोक काज निबटेबाक अछि।

(दृश्य तेसर समाप्त)

अङ्क २

दृश्य १

(स्थान – राज दरबार केर दृश्य, सभा मे मंत्री, ३-४ अधिकारी, महारानी लखिमा आर विद्यापति अपन-अपन आसन पर बैसल छथि। राजगद्दी खाली अछि। धोती, मिर्जई, माथा पर पाग आर एक-एक डोपटा कंधा पर मंत्री व अधिकारी सभक पहिरावा छन्हि। सब कियो ठोप कयने छथि। मात्र विद्यापतिक माथा पर चन्दन आर लाल ठोप के अलावा भस्म सेहो लगेने छथि। शोक मग्न चिन्तित मुद्रा मे सब बैसल छथि।)

महारानी लखिमाः (आँखि मे नोर तथा कानयवला स्वर मे) आब हम कि करू महाकवि? हम कतय जाउ? केकरा सँ कहू? कि समस्त मिथिलाक सेना नामर्द भऽ गेल अछि? अपन महाराजा केँ बचा नहि सकल? कि भेल महाकवि? हमरा संग ई कि भेल? अहीं तऽ हुनका मिथिलाक गद्दी पर बैसबाक सुझाव देने रही? परिणाम सोझाँ अछि।

(सभ गोटे मुरी झुका लैत छथि।)

विद्यापतिः दुःख केर बेर मे धीरज नहि छोड़बाक चाही महारानी जी। घबराहट दुःख केर मित्र थिकैक। ओ रास्ता केँ आरो कठिन बना देत। स्थिर मन सँ हम सब मंत्रणा करी, तत्पश्चात् किछु निर्णय करी। भोलेनाथ महाराजक अकल्याण नहि करता महारानी, हमरा पूरा विश्वास अछि। हम सब एतय सँ मंत्रणा कक्ष दिश चली, ओतय गम्भीरता सँ चिन्तन-मनन कय कोनो डेग उठाबी। ई दरबार छी। दरबार मे गुप्त बात उचित नहि। आइ-काल्हि देवालक सेहो कान होबय लागल अछि। अगर दिल्ली दरवारक कोनो गुप्तचर एतय नहि छल तऽ फेर महाराजाक शिकार पर दक्षिण दिश जेबाक बात बादशाहक आदमी केँ केना ज्ञात भेलैक? तेँ एहि ठाम किछुओ भऽ सकैत अछि। तेँ मंत्रणा कक्ष मे चलू।

(सब ओतय सँ प्रस्थान करैत मंत्रणा कक्ष मे अबैत छथि। चारू दिश सिर्फ विश्वस्त प्रहरी केर पहरा छैक। प्रहरी सब धोती, मुरेठा, अंगरखा पहिरि रखने अछि। पैर मे जूता, बाँहि आदि पर कड़ा, हाथ मे भाला, पीठ पर तरकश ढाल, डाँर्ह मे तलवार आ कंधा सँ लटकैत धनुष छैक।)

विद्यापति – हँ, त मंत्री जी! पहिने हमर शंका निवारण कय दिअ।

मंत्री – कि जानय चाहि रहल छी महाकवि? हम आ सेनापति समान रू सँ अपना केँ दोषी मानैत छी। हम धोखा मे पड़ि गेलहुँ आर हमर महाराजा केँ यवन सेना पकड़िकय दिल्ली लय गेल।

विद्यापति – नहि, दोख केकरहु नहि अछि। ई त समय केर खेल छी। खैर! घबरेला सँ किछु नहि हेतय। भोलेशंकर सब ठीक कय देथिन। हमरा सभक स्वामी आर हमर प्रिय मित्र महाराजा शिव सिंह केर रक्षा शिव अवश्य करथिन। हँ, पहिले ई कहू कि दिल्ली दरबारक वार्षिक कर अपन राज्य पर बाकी छल की?

मंत्री – नहि, एक अधेलो बाकी नहि अछि। अपितु दिल्ली राज कोष खाली हेबाक नाम पर तीन वर्ष केर अग्रिम कर पर्यन्त चुक्ता कय देल गेल अछि। हँ, ई हमरा ज्ञात अछि जे दू माह पहिने फेरो दिल्ली दरवार कोष खाली हेबाक नाम पर अग्रिम कर माँगय बादशाहक आदमी आयल छल।

विद्यापति – त कि ओकरा से कर भुगतान कयल गेलैक?

मंत्री – नहि! एहि समय अपनहि राजकोष खाली जेकाँ अछि। फेर आरो अग्रिम भुगतानी कतय सँ देल जा सकितय? उपजा एला के बादे राजकोष भरत। ओनाहू ३ वर्षक अग्रिम भुगतानी त पहिनहि देल जा चुकल अछि।

विद्यापति – महाराजा हुनका सब केँ कि उत्तर देलखिन?

मंत्री – ओ उत्तर पठओलनि जे “हम दिल्ली दरबारक गुलाम नहि छी जे जखन मोन भेल ओ एहिठामक श्रमिकक कमाई दिल्ली उठा लय जाइथ। हम जे अन्ततः हुनकर अधीनता मानलहुँ एकर अर्थ ई नहि भेल जे दिल्लीक बादशाह मिथिलाक प्रजा केँ लूट लेथि। राजकोष केर सम्पत्ति मिथिलाक प्रजाक सम्पत्ति थिक। हम राजा छी त एकर ई अर्थ नहि जे ओहि पर हमरे अधिकार अछि। प्रजा जे धन एकत्रित कयलाह अछि से पहिने हुनके लोकनिक सुख-सम्मान पर खर्च होयत, तत्पश्चात् जे बचल कोष रहत वैह कोनो आन काज पर खर्च कयल जायत। हम पहिनहि एतुका लोक पर अन्याय कय केँ ३ वर्षक अग्रिम कर बिना केकरो पूछने दय देलहुँ। हम स्वयं मिथिलावासीक समक्ष निरूत्तर छी आर आब कर के लेल राजकोष मे नहि त धन अछि आ नहिये बिना जनता-जनार्दनक इजाजत आगू कतहु दय सकैत छी। मिथिला सेहो बादशाहक फरमानी सँ तंग आबि चुकल अछि।”

विद्यापति – (गम्भीर भऽ जाइत छथि) एकरा बादहु कोनो घटना अछि?

सेनापति – हँ, आइ सँ ९ दिन पहिने महाराजा हमरा समाद पठौने रहथि जे हम शिकार पर जाय लेल चाहैत छी। अगर समय हुए त अहुँ चलू। हम कहलियनि जे महाराज, एखन समय ठीक नहि अछि। दिल्ली दरबार उत्तर पाबिकय क्रोध मे होयत। अतः कखनहुँ आक्रमण-प्रत्याक्रमण भऽ सकैत अछि। हम हुनको राजधानी सँ बाहर नहि जेबाक सलाह देने रहियनि। ओ हँसिते हमरा सँ कहने रहथि कि अहाँ राज आ राजधानीक रक्षा करू। हम पन्द्रह-बीस दिन मे वापस आबि जायब। तैयो हम हुनकर रक्षार्थ सब व्यवस्था कय लेलहुँ, मुदा ओ त निर्धारित समय सँ दू दिन पहिनहि शिकार पर निकलि गेलाह। हम चाहियोकय रक्षा मे सफल नहि भऽ सकलहुँ आर महाराजा संकट मे जा फँसलाह। सारा दोखी हमहीं छी हे महाकवि! हमहीं छी। हमरा महारानीक आज्ञा चाही, हम दिल्ली पर आक्रमण करब अन्यथा लड़ैत-लड़ैत अपन प्राण गमा देब। (उत्तेजित भऽ जाइत छथि।)

विद्यापति – उत्तेजित जुनि होउ सेनापति अमियकर! उत्तेजना सँ बनलो काज बिगड़ि जाइत छैक। दिल्ली सँ लोहा लेनाय खेल नहि छैक सेनापति। अपन सम्राज्य छोट अछि। हम सब वीर अवश्य छी मुदा शान्ति मात्र हमर शस्त्र थिक। बुद्धि हमर सम्पदा थिक। तेँ बुद्धि सँ मात्र काज लेनाय सही होयत। अगर दिल्ली केँ हम पराजित कय देबय त कि ओ ता धरि हमरा सभक महाराजा केँ जीबित छोड़ि देत? तेँ सोचि-विचारिकय कोनो निर्णय लिअ।

मंत्री तथा सेनापति – (दुनू एकसाथ बजैत छथि) तखन आन कोन उपाय?

विद्यापति – बुद्धिक प्रयोग। हम स्वयं दिल्ली दरबार लेल प्रस्थान करब आर अहाँ सब केँ वचन दैत छी जे हम बिना लड़ाई-झगड़ा कएने तीन मासक भीतर हुनका छोड़ा आनब। एक महीना लगभग जाय मे, एक महीना लगभग आनय मे तथा एक महीना के समय ओतय अपन योजना केँ कार्यरूप दियए मे लागत। हम एतय सँ अपन गाम जायब आर ओतय सब इन्तजाम कय एकटा सेवक केँ संग लय चारि दिनक अभ्यन्तर दिल्ली लेल रवाना भऽ जायब। अहाँ सब ता धरि प्रतीक्षा करब हमर। हँ, एहि बीच अहाँ सब अपन सैन्य संगठन केँ आर मजगुत जरूर कय लेब। जँ एहि बीच हम नहि लौटि सकी त अहाँ सब युद्ध वास्ते तत्पर भऽ जायब। राजनीति यैह कहैत अछि। अहाँ सभक कि विचार?

महारानी लखिमा – अहाँक विचार उत्तम अछि। महाकवि! हमरा पूर्ण विश्वास अछि जे अहाँ अपन बुद्धिमत्ता सँ निश्चित महाराजा केँ छोड़ा आनब। नहि त सैनिक तैयारी लेल सेहो सेनापति जी केँ तीन महीना भेटि जेतनि। शत्रु सेहो विश्वास नहि कय सकत जे मिथिला पर्यन्त दिल्ली पर आक्रमण कय सकैत अछि आर हमरा पास युद्ध के अलावा दोसर कोनो उपाइयो नहि बचि जायत। अहाँ सभक कि विचार अछि? (सेनापति आ महामंत्री दिश तकैत छथि)

सेनापति – हम त मात्र युद्ध केर भाषा जनैत छी महारानी जी। राजनीति केर गम्भीर बात तँ महामंत्री जी जानथि।

महामंत्री – महाकवि केर योजना समुचित योजना अछि। राजनीति मे सर्वोत्तम विचार यैह होइछ जे शान्तिक जखन आन सब रस्ता बन्द भऽ जाय तखन युद्ध केर बात कयल जेबाक चाही। तेँ हमहुँ महाकवि सँ सहमत छी।

विद्यापति – तखन ठीक छैक। हम अपन योजना केँ सार्थक बनेबाक लेल चारि दिनक अभ्यन्तरहि मे दिल्ली प्रस्थान कय जायब। आब हम सब शीघ्रहि योजनानुसार अपन-अपन काज आरम्भ कय दी। चली।

(पटाक्षेप)

अंक २

दृश्य २

(स्थान – विद्यापतिक घर। शीघ्रता सँ विद्यापतिक प्रवेश)

विद्यापति – दुल्लहिमाय! दुल्लहिमाय!! उगना! रे उगना!!

विद्यापतिक पत्नी – अरे उगना, मालिक के आवाज थिकन्हि। शायद आबि गेलाह। देखहुन! चले!!

(चलि दैत छथि)

उगना – मालिके के आवाज छियन्हि। लेकिन एना त कहियो नहि बजैत छलाह। रोगियायल आवाज छन्हि। चलिकय देखबाक चाही। (जाइत अछि)

विद्यापतिक पत्नी – अरे! अहाँ त बड घबरायल लागि रहल छी। सब कुशल त अछि?

विद्यापति – नहि दुल्लहिमाय! कुशल नहि अछि। मिथिला पर भारी विपत्ति आबि गेल अछि। हमर महाराजा केँ बादशाह धोखा दय कय कैद कयल लेलकनि हँ। हमरा आइये दिल्ली प्रस्थान करबाक अछि।

विद्यापतिक पत्नी – अवश्य! अवश्य! राजाक रक्षा करनाय हमरा सभक सर्वोपरि धर्म थिक।

(उगनाक प्रवेश)

उगना – (दूरे सँ) आ प्रणाम मालिक! अहाँ कते-कते दिन कुटमैता मे रहैत छी मालिक? हमरा सब मे एतेक दिन कियो मेहमान रहत त कुटुम्बे बयला देतय।

विद्यापतिक पत्नी – (तमसाइत) चुप रह। नहि समय के ध्यान नहि लोकक पहिचान। जखन तखन बक-बक करैत रहैत छँ।

विद्यापति – कियैक बिगड़ैत छियैक दुल्लहिमाय! ओ बेचारा स्थितिक गम्भीरता कि जानय गेल। अरे उगना! कनी देख त नन्दू खबास घर पर अछि कि नहि। ओकरा बजा आन। कहिहें मालिक तुरन्त बजेलखुन हँ।

उगना – (कानय सन मुंह बनाकय) जी, जइये त रहल छी।

विद्यापति – देखू दुल्लहि माय! जे पढल-लिखल नहि होइत अछि ओकर हृदय साफ होइत छैक। सामान्यतया ओ छल-छद्म सँ दूर रहैत अछि। जे अत्यन्त विद्वान् होइत अछि ओकरा स्थिति के अन्दाज लगाकय बात करबाक ज्ञान रहैत छैक। यथार्थतः खतरा त बीचवला सँ होइत अछि जे नहिये पूरा जनैत अछि आ ने एकदम कम जनैत अछि। ओकरा बिगड़ियौ नहि। एखन कतहु भागि जायत त कियो सहायको नहि बचत।

विद्यापतिक पत्नी – सब जगह उपदेशे काज नहि करैत छैक। जतय शस्त्रक आवश्यकता छैक ओतय शास्त्र निरर्थक भऽ जाइत अछि। एकर मुंहफट्ट हेबाक कारण सेहो यैह छैक जे अहाँ एकरा माथ पर चढा लेलहुँ। अच्छा छोड़ू! एखन अहाँ थाकल छी आर आगू आरो थकबाक अछि। तेँ हाथ-पैर धोय कय आराम सँ बैसू, हम भोजन लगेबाक इन्तजाम करैत छी।

(ताधरि उगनाक प्रवेश)

विद्यापति – कि भेलौक उगना! नन्दू खबास नहि एलहु एखन धरि?

उगना – उ त नोत पुरय गेल अछि मालिक। एतय नहि अछि। ठीठर संगे देश गेल अछि नोत मे भार-उर लय कय। खवास के मेहरारू कहलक जे पाँच दिन बाद ओ आओत।

विद्यापति – त ठीठरो ओकरे भार लय कय चलि गेल। आब कि करू? केकरा संग लय कय चलू? ओकरा सभक लेल पाँच दिन प्रतीक्षा त नहि कयल जा सकैत अछि।

विद्यापतिक पत्नी – जखन दुःख दिन अबैत अछि त सब ठाम परेशानिये रूप पकड़िकय ठाढ भेटैत अछि।

विद्यापति – हे शंकर! बम भोले!! कोनो रास्ता देखाउ। सामान त संग मे रहबे करत। फेर ओ के उठाकय चलत?

उगना – कोन सामान उठेबाक अछि मालिक जे उठा-पटक बजैत छी। यौ जी, अहाँ सब न सुकमार आदमी छी, हमर त अखाड़ा-मालिस वला देह अछि, कहू न हम एखनहि पहाड़ उठाकय देखा दैत छी। हमरा अछैत अहाँ केँ चिन्ता करबाक कोनो जरूरते नहि अछि। कतेक सामान उठेबाक अछि? कहू त?

विद्यापतिक पत्नी – बेसी बहादुरी नहि देखा। ई काज एतेक हल्लुक नहि छैक।

विद्यापति – ठीके बात त कहलक अछि उगना दुल्लहिमाय! नन्दू के बेटा भोगिया आठ-नौ वर्षक अछि। ओकरा बरदक देखभाल करय लेल कहि दैत छी। चरा आनत आर पानि पिया देल करतय। फेर पाँच दिन बाद नन्दू सेहो आबिये जायत। ओ देखभालक जिम्मा लय लेत। कियैक न एखन जल्दी मे उगने केँ संग लय कय चलि दी?

विद्यापतिक पत्नी – ओना अछि त ई बली आर आज्ञाकारी सेहो अछि, लेकिन अर्धपागल जेकाँ अनाप-सनाप बजैत रहैत अछि। डर बस एतबे अछि। कतय कि बाजि देत एकर ठेकाने नहि छैक।

उगना – (बिच्चे मे बात कटैत) एखन धरि केकरो सँ हमरा झगड़ो-उगड़ो भेल हँ की? मालकिनी? कहू त? ननटुनिये सँ अनेरुआ रहबाक कारण कनी मुंहफट्ट भऽ गेल छी। ई त हमहूँ सुइकारैत छी। ओना देह सँ निस्सन त बच्चे सँ छी लेकिन मोन बड मोलायम अछि। तुरन्ते मे न नरमा दैत अछि!

विद्यापति – अच्छा त हमरा संग दिल्ली चलमें? एक मास चलय पड़तौक लगातार दिन मे। सामान सेहो उठाबय पड़तौक।

उगना – हमरा त बौआइये मे मोने लागैत अछि मालिक। मास भरि के कहय, हम त बरखो भरि चलि सकैत छी। आ एतेक-ओतेक सामान-उमान केँ के पूछैत अछि, आंगुरे मे घुमबैत रहब।

विद्यापति – लेकिन बजमें कम आर बदमाशी सेहो नहि न करमे?

उगना – हम रस्ता मे बदमाशी केना करब? एखन धरि एकोटा उपराग-तुपराग कियो देलक हँ? हम त अहाँ केँ बचेबाक लेल बाघो सँ पटका-पटकी कय लेब। फेर आदमी के भिड़त? हम रस्ता मे अहाँक पैरो जाँति देब। धोती खंघारि देब। पानि-वाइन पियायब। माने हमरा सँ कोनो दिक्कत-सिक्कत नहि होयत।

विद्यापति – त खा-पी कय जल्दी तैयार भऽ जो। साँझ पड़य सँ पहिने प्रस्थान करबाक अछि। शुभ मुहुर्त सूर्यास्त सँ चारि दण्ड पहिने के अछि।

उगना – त ठीक अछि। हम भगवा-उगवा सरिया लैत छी। आर माल-मत्तर ठीक कय लैत छी।

विद्यापति – रे मात्र अपन कपड़ा लय ले। आर कथी करबाक छौक?

विद्यापतिक पत्नी – अरे अहाँ केँ नहि बुझल अछि? ई निशाखोरो अछि। भाँग सेहो पियैत अछि। सैह माल-मत्तर ठीक करत आर कि करत?

विद्यापति – हँ रौ? ई ठीक आदति नहि छौक।

उगना – मालिक! एखनि तक कियो आदमी कोनो शिकायतो-उकायतो केलक हँ की? खाली भाँख खाय सँ कि होइत छैक? भाँग खाय कय कियो बदमाशी-उदमाशी करय त कोनो बातो छैक। जखन मालिक बुझिये गेलाह त हमहुँ सुइकारैत छी जे हम सच्चे मे भाँग खाइत छी। लेकिन भाँग त भोलो बाबा खाइत छथि। मालिक एक्कोबेर हुनका पर कहाँ बिगड़ैत छथिन? हुनकर त गीतो-उतो गाबि गैत छथिन।

विद्यापति – एखन हमरा पास समय नहि अछि, जे उचित-अनुचित के निर्णय करैत रही। व्यक्तिगत समस्या लय कय हम सम्पूर्ण मिथिलाक समस्या केँ नकारि नहि सकैत छी। जे छैक, नीक छैक या बेजा छैक, नन्दू आर ठीठरक अनुपस्थिति मे यैह ठीक अछि। समय कम अछि आर दूरी बेसी तय करबाक अछि, तेँ उगना, जल्दी तैयार भऽ जो। आर हँ, दुल्लहिमाय, हमर कपड़ा, दू टा कम्बल, बिछाओन, लोटा, पूजाक सामान आर दीप-दण्ड एक स्थान पर व्यवस्थित कय दिअ। उगना! तोंहुँ सब सामान केँ एक जगह ठीक सँ बान्हि ले। उठेबाक त तोरे छौक। अपन सुविधा मुताबिक गठरी बन्हिहें।

(सभक प्रस्थान)

उगना-विद्यापति (नाटक)

अंक २ – दृश्य ३

(स्थान वैह विद्यापतिक घर। उगना सामानक गेठरी लेने ठाढ अछि। उगना जोर-जोर सँ बरद केँ देखैत बाजि रहल अछि।)

उगनाः देख रे! निम्मन जाकित रहिहें। जे भेट जाओ सैहे खा लिहें। दुहरा सँ दूर भगिहें नहि, मालकिनी असगरे छथिन। के तोरा खेहार-खेहार करय अयतौक दुहरा पर? भोगिया छौंड़े अछि। नखरा-उखरा नहि करिहें। वापस हेबउ त खूब दौड़ा दौड़ाकय घुमेबउ। एखन खाली जे भेटि जाओ सैह खइहें आर दुहरे पर पड़ल रहिहें। बुझलें कि न! हँ! सैह!

(पाछाँ विद्यापति आ हुनकर पत्नी ठाढ़ छथि – बरद कन्हुआयल दृष्टि सँ उगना दिश ताकि रहल अछि। विद्यापति एकटक सँ बरद दिश देखैत छथि। देह पुलकि उठैत छन्हि।)

विद्यापतिक पत्नी – देखलियैक न निशाखोर के लक्षण! बरद सँ बात कय रहल छल। आब कि कहू?

विद्यापति – (उगना दिश देखैत, एकटा जरैत ज्योति ओ आभा उगना सँ मिलि वातावरण मे विलीन भऽ जाइत अछि, विद्यापति से नहि देखि पबैत छथि। विद्यापति विहुँसैत…) अच्छा त चले उगना, बहुत गम्भीर उत्तरदायित्व माथा पर लय लेलें हँ। समय पर पहुँचइयो के अछि। तेँ चल आब।

उगना – हम त कखन सँ मोटरी-उटरी लेने तैयार छी। चलबय अँहीं न! हमर काज अछि मोटरी लदनाय आ अहाँ के कोनो दिक्कत-उक्कत नहि हो से देखनाय। बाकी चलबय आगू-आगू अँहीं! हम असगरे आगू बढब त भोतलइयो जायब। हम त अहाँक जौरे जौरे पाछू लागल रहब मोटरी लेने लेने।

विद्यापति – अच्छा चले। दुल्लहि माय, जय शिवशंकर। मंगलम् भगवान विष्णुः मंगलम् गरुड़ध्वजः। मंगलम् पुण्डरीकाक्षः, मंगलाय तनो हरिः॥ जय गणेश! जय गणेश!!

(दुनू चलि पड़ैत छथि। आगू-आगू विद्यापति आर पाछू-पाछू उगना। माथा पर गठरी आर हाथ मे ५ हाथ के लाठी। गठरी मे लोटा रस्सी लगाकय बान्हल आर कन्हा पर लटैक रहल अछि। कन्हा पर गमछा मे बान्हल भोजन गठरी रूप डोलि रहल अछि। गाम सँ बाहर अयला पर…)

उगना – मालिक! कतहु चलय बेर मे ओहि दिन के नाम लेला सँ जतरा बनैत अछि की?

विद्यापति – नहि त?

उगना – तखन आइ मंगल के दिन मे मंगल-मंगल कहिकय जे डेग बढेलहुँ हँ से कियै?

विद्यापति – नहि उगना, ओ दिनक नाम नहि छल। बल्कि भगवान् केँ बजेनाय आ स्मरण केनाय छल।

उगना – अपने मालिक एक दिना मालकिनी केँ बुझा रहल छलहुँ जे भगवान् भोर सँ साँझ धरि आ साँझ सँ भोर धरि आदमिये के जौरे-जौरे रहैत छथिन? तखन बजेबाक कोन बात भेलैक?

विद्यापति – ठीके त कहने रही। भगवान् हमेशा संग रहैत छथि। हम मायावी आँखि, कान सँ नहि त देखि पबैत छी आर नहिये सुनि पबैत छी हुनका।

उगना – मायावी आँखि कुन चीज होइत छैक मालिक? ई कोनो पाथर-उथर के बनल होइत छैक की?

विद्यापति – नहि रौ! मायावी के अर्थ छैक ममता-मोह मे लटकल रहनाय, लोक एहि आँखि सँ केवल बेटा, बेटी, पत्नी, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा आदि टा देख पबैत अछि। भगवान् केँ चिन्हिये नहि पबैत अछि। वैह मायावी आँखि होइत छैक।

उगना – से त ठीके बात छैक मालिक। एक बेरा एगो मालिक ओतय हम हरबाही करैत छलहुँ। एकदिना अबेर केँ हर जोतिकय एलहुँ। भूख लागल छल बड जोर सँ। हम थरिया लय कय खाय लेल अँगना गेलहुँ। ओइ मलिकबा के लइकबो खाय लेल कानि रहल छल। से ओकरा पहिने दय देलक। हम जे जल्दी सँ खाय लेल मंगलहुँ त मलिकवा बड गारि देलक आ कहलक कि हमरा पहिले धन रहत आ लइका रहत त तोरा सन-सन हजार गो हरबहबा भेट जायत। भाग एतय सँ कहलक आ खाइयो ल नहि देलक, बैलइयो देलक। ठीके मालिक, ओ अपन आँखि सँ पहिने त धन आ अपन बेटे केँ चिन्हलक। एगो भुखल-पियासल हरबहबा केँ नहि न देखलक? मालिक अहाँ एतेक विद्वान् केना भऽ गेलियैक? बड़-बड़ बात आ सेहो निम्मन नाहित बुझा दैत छी।

विद्यापति – (कनीकाल चुप रहिकय) रे हम विद्वान् कहाँ छी? हम किछु थोड़े जनैत छी, सब भोला बाबा के कृपा छियैक।

उगना – भोला बाबा? भोला बाबा त अपने भाँग-धथुर खाय के मातल आ नीसाँ मे निसभेर रहैत छथि। ओ कथी कृपा करता? मालिक अहाँ अपने विद्वान् छी।

विद्यापति – नहि उगना नहि! भोला बाबा केर शिकायत नहि करबाक चाही। ओ सभक कल्याण करैत छथि। अच्छा देख! सामने मन्दिर छैक। साँझो पड़ि गेलैक हँ। चल, आइ राति हम सब एतहि बितायब। फेर भोरे चलब। आइ भरिक त भोजनो संगहि मे छौक। काल्हि सँ सोचल जेतैक, भोला बाबा सबटा पार लगेथिन।

उगना – जखन अहाँ कहैत छियैक जे भोला बाबा बड़ निम्मन छथिन त सही मे भइयो सकैत छथि। हम मूर्ख छी। अहाँ त विद्वान् छी। तखन त भोला बाबा ठीके पार लगेता। (मन्दिरक नजदीक पहुँचिकय) अच्छा, त मोटरी भुइयाँ पर राखू आब? एहि ठाम अहाँक बिछौना कय दैत छी?

विद्यापति – ठीक छैक। राखे।

(उगना गेठरी राखिकय गमछा सँ स्थान केँ झाड़ैत अछि आर कम्बल बिछा दैत अछि। विद्यापति बैसि जाइत छथि।)

उगना – मालिक, हम थरिया-उरिया धोइ-धाय कय आनैत छी। खाना खाकय सबेरे सुति रहब त भोरे अन्हरोखे फेर उठिकय चलि देब। ठंढे-ठंढे। बसिया खाना के कोनो बाते नहि छैक। मझिनी आ बेरहटे टा मे खाली खेला सँ रस्तो कटबाक समय भेटत आ कोनो दिकदारियो नहि होयत।

विद्यापति – ठीक छैक, जो।

(उगना चलि जाइत अछि, विद्यापति किछु सोचय लगैत छथि।)

विद्यापति – ई उगनो अजीव अछि। हर समय रहस्यपूर्ण बात टा करैत रहैत अछि।

उगना – (प्रवेश करैत) आबि गेलहुँ मालिक। निन्न-उन्न नहि न पड़ि गेलहुँ? अच्छा, आब खा लियऽ आ फेर आराम करू। (कहिकय भोजन परोसिकय दैत छन्हि)

विद्यापति – तूँ खो। हमरा कनी समय लागत। हम भोला बाबा केँ भोग लगायब। तखन खायब। (विद्यापति आँखि मुनिकय भगवान् केँ भोग लगबय लगैत छथि, फेर आँखि खोलिकय…) अरे उगना, तूँ खाइत कियैक नहि छँ?

उगना – ई केना भऽ सकैत अछि मालिक? मालिक सँ पहिने हुनकर सेवके खा लियए? पहिने अहाँ खायब तखने न हमहूँ खायब!

(भोजन कय केँ दुनू सुति रहैत छथि। उगना जोर-जोर सँ फोंफ काटि रहल अछि लेकिन विद्यापति उगना दिश देखैत विचार मग्न पड़ल टकटकी लगौने देखि रहल छथि)

विद्यापति – भाँग खाइत अछि तैयो अनर्गल एकहु टा बात या काज नहि करैत अछि। बरद सेहो एकरे बात मनैत अछि। नचारी आर महेशवाणी एकर बड नीक लगैत छैक। सासुर मे रहैत अछि। अपने आप मे मतंग रहैत अछि। आज्ञा सेहो आइ धरि अवहेलना नहि केलक हँ। एकर माइयो-बापक पता नहि छैक। भगवान् आदमीक संग हमेशा रहैत छथिन, फेर बजेबाक कोन जरूरी पुछैत अछि। आखिर ई छी के! भगतवा हमर पता देलखिन एकरा! बहुत विचित्र सन अछि एकर व्यक्तित्व। अच्छा काल्हि एकर जाँच करब। (नीन्द आबय लगैत छन्हि, आर विद्यापति सेहो सुति रहैत छथि)

पटाक्षेप

उगना-विद्यापति (नाटक)

अङ्क ३ – दृश्य १

(आगू आगू विद्यापति आ पाछू पाछू उगना, गठरी माथ पर लदने चलि जा रहल छथि)

विद्यापति – उगना! आइ १५ दिन भऽ गेल चलैत-चलैत, लगभग ८ दिन आरो लागत। आब देह त थाकिकय चूर-चूर भऽ गेल अछि। आब चलल नहि जा रहल अछि।

उगना – मालिक! दुघड़िया भइये गेल अछि, आब पहिने कलौ खा लेल जाउ। चूड़ आ अम्मट अछिये, आम के कुच्चा सेहो अछिये, हे ओतय इनारो छैक। कलौ खाय कनी देर सुति रहू, हम गोर दबा देब। तखन फेर बेरिया भेला पर चलब।

विद्यापति – बहुत दूरी तय करबाक अछि रे उगना। एतेक आराम करैत चलब त समय पर पहुँचब केना? एतेक परेशानीक बादो ओ बादशाह काज करत या नहि से किछु नहि कहल जा सकैत अछि।

उगना – समय पर त पहुँचबे करब मालिक, आर अहाँक काज त दौड़ले करत। कियैक नहि करत! अहाँ सन विद्वान् आदमी एना हकासल-पियासल एलहुँ त काज केना नहि करत! काज नहि करत त हम कथी लेल छी आ हमर लाठी कथी लेल अछि! मारि लाठी कपारे भांगि देबय आ डाँर्हो तोड़ि देबय। हमरा सँ पटका-पटकी के करत! अखाड़ा मालिश सँ निस्सन देह अछि। एहेन न धोबिया पाट पटकिया देबय जे मतारी के पियल छठियारी के दूध सेहो बोकरा देबय। एक दिना एगो बड़का टा आदमी केँ हम पटकि-पटकि कय मारने रही, छठियारी के दूध बोकरा देने रही, अपना केँ पहलवान कहैत छल। केकरो गुदानबे नहि करैत छल। बाद मे कानय लागल तखन जा कय हम छोड़ि देलियैक। तहिया स दोस-दोस कहैत छल। आ हमरा ओहि दिन सँ ओस्ताज सेहो मानि लेलक। मालिक! ई बादशाह के छी? कोनो खदुका-उदका छी की? जा मालिक, इनार वला जगहो पाछू छूटि गेल। बतियाइत-बतियाइत फेर बोने मे आबि गेलहुँ।

विद्यापति – (पाछू ताकिकय आ उगना केँ गौर सँ निहारैत) कि काज मे सफलता भेटतय उगना?

उगना – कियैक नहि भेटत मालिक! एतेक हरानी सँ जा रहल छी, अहाँ सन विद्वान् आ सुकमार आदमी चलय के बेर मे भगवानो केँ मंगल-मंगल कहिकय अपने जौरे कय लेने छी, आ रस्ता मे भोला बाबा केँ आँखि मुनि-मुनिकय भोग लगाकय खिएबो केलहुँ हँ, तैयो काज नहि होयत! आ काज नहि करत तऽ लाठी चलेबाक लेल उगना अहाँ जौरे अछिये। हमर अखाड़ा मालिश वला देह आ ई दुःखहरण लाठी कहिया काज आयत?

विद्यापति – (अपना आप सँ) उगना जरूर रहस्यमय अछि, सीधा उत्तर कोनो प्रश्न के नहि दैत अछि। (जोर सँ) अच्छा उगना! ओहि गाछक नीचाँ कनीकाल विश्राम कय ले। बहुते थाकि गेलहुँ अछि। चलल नहि जाइत अछि।

उगना – लेकिन एतय पानि-वानि आनय कहब त मोस्किल भऽ जायत। घर-दुआरि, इनार-उनार किछो एतय नहि लउकैत अछि। मालिक, आगू चलू। इनार-उनार देखिकय कलौ खा लेब।

विद्यापति – कनीकाल लेल मात्र विश्राम कय ले। पैर काज नहि कय रहल अछि।

उगना – त बैसिये जाउ तहन मालिक। गोर उर दबा दैत छी। हम खैनियो नहि न खाइ छी जे बैसिकय चुनेबो करब, बैसल-बैसल अहाँक कनी पैरो त दबा देब।

(दुनू बैसि जाइत छथि) – पटाक्षेप

दृश्य २

विद्यापति – आह! पैर आ देह टूटि रहल अछि उगना। (अंगेठी मारय लागय छथि, पैर पसारिकय बरक गाछ मे पीठ सटा लैत छथि, उगना पैर जाँतय लगैत अछि त विद्यापति पैर खींचय के प्रयास करैत छथि) नहि उगना! नहि-नहि! वापस एबाक समय मे पैर दबबिहें, एखन नहि। एखन त एकरा चलैत रहबाक छैक।

(दूर मे दृश्य देखाइत अछि, पार्वती बाजि रहली अछि जे विद्यापति आ उगना सुनि नहि पबैत छथि)

पार्वती – ई की? ई की? कहाइत छथि त्रिभुवननाथ आ पैर दबबैत छथि मरणीय प्राणी के? हुनका न अपन प्रतिष्ठाक सुइध छन्हि आ ने हमरे प्रतिष्ठा के। आब हिनकर ओतय रहनाय उचित नहि अछि। लेकिन हिनका मनायत के? किछु उपाय करैत छी!

विद्यापति – उगना! रे उगना! आब थकावट दूर भेल त पियास आ नीन्द आबय लागल अछि। हम अपन वचन सँ मुकरि रहल छियौक उगना, जँ भऽ सकउ त एक लोटा पानि के व्यवस्था करे। पियास जोर पकड़ने जा रहल अछि। आँखि सेहो धोखा दय रहल अछि। सुतय लेल कहैत अछि किछुकाल।

उगना – त सुति न रहू मालिक! जतेक काल मोन करैत अछि ओतेक काल सुतू। हम लाठी लय केँ रखवारी करैत छी। कम्बल ओछा दिअ? बाकी पानि एतय कतय सँ आनब? इनार वला दुआरि पर विलमलहुँ नहि। आब एहि बोन मे पानि भेटनाय त मोस्किल अछि। खैर! देखैत छी जे कतहु कोनो पोखरि-उखरि या नदी-उदी कतहु चाहे बाहे-ताहे अगल-बगल लग-पास कतहु अछि कि नहि। हम पानि आनय जा रहल छी। कनी जागिते भिड़ैत रहब। नहि त कोनो बानर-उनर आ कि लुक्खी आओत आ मोटरी-उटरी केँ फाड़ि-ताड़ि कय चुड़ो-अम्मट खा जायत। कनि चौंकले रहब। बानर बड़ा हरबोलबा होइत अछि। खायवला समान देखि लेलक न त नचनी नाच नचा देत लुझय खातिर। छड़ैप-उड़ैप कय देहो-हाथ भमैड़ लेत। हँ, त जाइत छी हम पानि के व्यवस्था मे।

विद्यापति – जो – जो उगना! बौआ, पानिक व्यवस्था करे पहिने। कंठ सुखायल जा रहल अछि। तोहर बात नहि मानय के परिणाम भोगय पड़ि रहल अछि। जँ पाछू इनारे लग रुकल रहितहुँ त चिन्ता नहि रहितय। आब तूँही हमर केलहा के सजाय भोगे… जो-जो, जल्दी जो।

(उगना चलि जाइत अछि। विद्यापति अपने आप सँ बजैत छथि।)

विद्यापति – ई उगना सेहो केहेन चीज भोले बाबा हमरा लग पठा देलनि अछि। एहेन आज्ञाकारी त आइ के जुग मे भेटनाय विरले कोनो सेवक भेटैत अछि। ओह! प्यास बड़ जोर पकड़ने जा रहल अछि आर उगना केर पता नहि अछि। (हाफी-जम्हाई लैत छथि आर गाछ मे पीठ लगा दैत छथि, धीरे-धीरे आँखि बन्द होमय लगैत छन्हि।)

दृश्य ३

उगना – (लोटा लेने घुमैत-घुमैत) कतय अछि एहि ठाम एको गो नदी कि पोखरि! कतहु खधियो-चभच्चो नहि देखैत छी। मालिक ओने प्यास सँ बौखैत हेथिन। एम्हर पानि के कतहु अतो-पतो नहि अछि। हौऽ, एम्हर-ओम्हर कतहु नदी-पोखरी छैक? कनी पानि के बड जरूरी भऽ गेल हँ।

बटोही – (तामस करैत) जंगल मे नदी आ कि पोखरि तोरा कपार सऽ भेटतह? पताल-गंगा सँ पानि निकालि लैह! पानि तकैत छथि जंगल मे!

उगना – रे! हे! एना ऐँठल जेकाँ कियो बाजय! हमरा कपार मे त नदियो छैक आ पोखरियो छैक। तोरा कपार मे बौआय ल लिखल छह जे बौआइत रहह। बड़ा एला हँ नदी-पोखरि बतेनिहार! भागह एतय सँ! नहि त मारि लोटा चैने गुलगुला देबह।

बटोही – ठहरे त! एखनिये हम बतबैत छियौ जे तोरा पानि केहेन होइत छैक। हम तोरा टोकय ल गेलियौ रे? उन्टे पुछबो केलें हँ आ उन्टे चैनियो गुलगुलेमे? आइ तोरा सरियइये दैत छियौक।

उगना – त भइये जाय मोकाबला एखने। आइ तोहर हार-पंजड़ा तोड़िये कय हम दम लेब। पियासल हम आ हमर मालिक छथि। लेकिन पहिने तोरे पानि पियाकय हम दम लैत छी। अखाड़ा मालिश के देह कोन दिन काज आयत! आइ तोरा भगवा मे झंडा नै फहरा देलहुँ त हमर नाम उगना नै।

(कुश्ती लड़य लेल तैयार भऽ जाइत अछि आर ताल ठोकय लगैत अछि)

बटोही – (अपने आप) बाप रे! ई त ठीके लड़य लेल तैयार भऽ गेल। केहेन कस्सल-कस्सल बाँहि-हाथ छैक! कहीं सच्चो हड्डी-उड्डी तोड़ि देलक त बोने मे टेटियाइत रहि जायब। कियो पानियो देनिहार नहि भेटत।

(खूब जोर सँ भागैत अछि)

उगना – हाहाहा! भागि गेल। लंक लय कय भागि गेल। सुन रे भाइ, कनी फरिछइये ले न! रे तोरा पकड़नाय कोन नम्हर काज छै, एक्के धाप मे धय कय फरिछा लेबउ। बाकी भागि गेलें त भागले रहे। कतय ऊल-जलूल काज मे लागल रहब। आ ओम्हर मालिक पियासे आकुल-व्याकुल हेता आ एम्हर कतेक काल ई झगड़े-उगड़े मे लगा देलक। आब पानि के कोन इन्तजाम करी? खाली लोटा लय कय जायब त मालिक कि सोचता जे खाली उगना बहादुरिये छँटैत छल। आब असलिये पानि माथा सँ लय लैत छी। दोसर कोनो उपाय देखय मे नहि अबैत अछि। पानि के लच्छी माथा पर राखिकय मालिक केँ पियासल कोना राखब!

(एम्हर-ओम्हर देखिकय शिव रूप पकड़ि लैत छथि आर जटा सँ गंगाजल लोटा मे भरि लैत छथि, फेर उगना रूप मे)

उगना – अच्छा त आब चलबाक चाही। मालिक बाट तकैत-तकैत सुतियो रहता। आइये त हुनको जाँच भऽ जायत। देखी जे केहेन विद्वान् छथि। असली पानि आ नकली पानि मे फर्क बुझैत छथि कि नहि!

(चलि पड़ैत छथि आ पहुँचिकय)

उगना – मालिक! यौ मालिक!! सुति रहलहुँ की? भेलय न? देखू जे कतय सँ एकटा बानर आबिकय मोटरी माथ पर उठाकय घिचने-तिरने भागल जा रहल छल… ओ त हमरा अबैत देखिकय ओही ठहुरी पर मोटरी छोड़िकय छड़पि गेल हँ। खाली हमर लाठिये ओम्हर दूर दिश गुरका देलक हँ। उठू-उठू, मालिक, पानि लिअ।

विद्यापति – (बेहोशीक अवस्था सँ उठैत) ला-ला उगना, जल्दी जल दे। कंठ सुखा गेल अछि। आवाज नहि निकलि पाबि रहल अछि।

उगना – लेबो त करू! पंजड़े मे लोटा लय कय ठाढ़ छी हम आ अहाँ एम्हर-ओम्हर हाथ बढा रहल छी? ह! ह! एहि पानि के खातिर कोन-कोन काज न करय पड़ल। पटका-पटकी होइत होइत बचि गेल। सब कर्म भऽ गेल पानि के जोगाड़ मे।

(लोटा बढबैत छथि, विद्यापति लोटा लय केँ कनेक जल खसा कय गमछा भिजा लैत छथि, फेर लोटा उठाकय सब पानि पीबि जाइत छथि, फेर बाजैत छथि…)

विद्यापति – (गमछा सँ पानि गारिकय लोटा आ हाथ किछु बुन्द पानि सँ धोइत) आह उगना! तूँ सही मे हमर प्राण रक्षा आइ कएलें हँ। (देह सिहैर जाइत छन्हि) उगना! एक बात अजीब सन लागल। हम मास-मास धरि गंगा तट पर रहिकय गंगा सेवन करैत छी। एहि जल केर स्वाद त हुबहु गंगाजल समान छल। मुदा गंगा त बहुत पहिनहि छुटि गेलीह। सम्भवतः हम सब आब यमुना नदीक आसपास पहुँचय वला छी, फेर ई जल गंगाजल जेहेन केना? ई जल कतय सँ अनलें?

उगना – हम त मालिक धन्य भऽ गेलहुँ। सिलौठ पर राखिकय लोढ़ीक चोट सेहो खाय आर स्वादो दी! पानियो आनय मे दुर्गन्जन भऽ गेल आर आब सवाल के उत्तर सेहो तुरन्ते दी। मालिक बहुत गोर दुखा गेल ई पानि आनय मे। कनेक सुस्ताइ दिअ, तखन किछु पुछब। ह! ह! पैर टूटल जा रहल अछि। बहुते दूर न जाय पड़ल मालिक! दौड़ले गेलहुँ हँ आ दौड़ले एलहुँ हँ। कनिक दूर नहि न छल। एकटा मोइन्ह जेहेन छल। कोनो बाढि-ताढि मे फूटल हेतैक। ओहि मे एकदम साफ पानि छलैक। ओतय सँ अनलौं हँ।

विद्यापति – उगना! कृतज्ञ आर कृतघ्न ई दू शब्द साहित्यक बहुत महत्व रखैत अछि। हम कृतघ्न नहि बनय चाहैत छी। जे जलस्रोत गंगाजल समान जल अपन हृदय मे जमा कय केँ रखने अछि ओ जलस्रोत बहुत धन्य अछि। हमर पूजनीय आ दर्शनीय अछि। जे हमर प्राण बचेलक, उगना, तोहर उपकार त अमूल्य छहुए, जलस्रोत सेहो धन्य अछि। हम ओहि जल सँ अपन शरीर केँ पुनः स्पर्श कराकय धन्यवाद ज्ञापित करब तखनहि आगू बढब। तेँ, हमरा ओहि जलस्रोत केर दर्शन करा दे जेकर जल गंगाजल समान लगैत अछि।

उगना – मालिक! बहुत विद्वान् भेनाय सेहो कखनहुँ कखनहुँ खराबी कय दैत छैक। टन्ट घन्ट ठाढ कय दैत छैक। एखनहुँ बेरिया जेहेन भऽ गेल हँ। एखनिये साँझ भऽ जायत तखन राति मे कतय सुतब? कलौ सेहो नहि खेलहुँ अछि। से कलौ सेहो खेबय। रास्ता कटबय आ कि बौआइत रहबय?

विद्यापति – (किछु सोचिकय) नहि उगना! हमर मोन आगू बढय के अनुमति नहि दय रहल अछि। बिना कृतज्ञता ज्ञापित कएने ओहि जलस्रोत केँ। तेँ भोजन आर आगूक यात्रा जलस्रोत केर दर्शन के बादे हो। चले।

उगना – ले बलइया! ई एगो तेसरे नाटक भऽ गेल मालिक!! आइ त अहाँ केँ कलौ गेबे कयल, जौरे जौरे भोले बाबा के कलौ सेहो अहाँ आइ मारि देलियनि। हम त भुखल छीहे, बाकी उपाये कि अछि! चलू। (चलि दैत अछि आर कनी दूर गेलाक बाद) ओ मालिक! कोनो घर-उर पहिने राति मे रुकय लेल ताकि लिअ, तखन आबिकय देख लेब। ओना जाइते-अबिते सूर्यास्त भऽ जायत त राति मे रुकबाक झंझटि ठाढ़ भऽ जायत कि नहि!

विद्यापति – (गौर सँ उगना केँ देखैत) हे भोलेनाथ! कखन धरि रहस्य बनब अहाँ? हम मूर्ख एहि मायावी आँखि सँ अहाँ केँ चिन्ह नहि सकलहुँ। क्षमा कय दिअ! क्षमा कय दिअ!! क्षमा कय दिअ!!! हे भोलेनाथ!! हम अधम-पतित केँ क्षमा कय दिअ। आब अहाँ नहि छिप सकैत छी। (एकाएक उगनाक पैर पकड़िकय कानय लगैत छथि) तोंहे शिवऽ आब जनु मोह परतारऽ!! (सम्पूर्ण गीत)

दर्शन दिअ हे भोले-शंकर, दर्शन दिअ!!

उगना – घोर कलियुग आबि गेल अछि मालिक, घोर कलियुग। गाम-घर मे नहि छी मालिक तेँ, नहि त आइये अहाँ केँ जाति सँ बारि दितय बाभन सब। मालिक कहुँ नौकर के पैर धेलक हँ! दैव हौ दैव!! कतेक अनर्थ करैत छी मालिक! आर पैरो त छोड़ू। हाँ – हाँ!! खसियो पड़ब। कतय सँ ई आफद आबि गेल!! ह! ह!!

विद्यापति – (पैर पकड़ने) उद्धार करू हे शिव शम्भो! उद्धार करू! दर्शन दिअ! प्राण लय लिअ मुदा आब पैर आब नहि छोड़ब हे भोलेनाथ। हम अहाँ केँ बहुत सतेलहुँ हे शंकर! आब बदला मे या त हमर प्राण लय लिअ या दर्शन दिअ। दर्शन दिअ – दर्शन दिअ – दर्शन दिअ! दर्शन दिअ भोले, दर्शन दिअ!! दर्शन दिअ!!!

उगना – (स्वगत – स्वयं सँ) आब आर अपना केँ नुका नहि सकैत छी, ई हठी भक्त छी। न मानत आ न पैर छोड़त। (विहुँसैत) अच्छा, त देखू ऊपर!

(एकाएक उगना विलीन भऽ जाइत अछि आर सामने महादेव अपन असली रूप मे ठाढ़ छथि, विद्यापति माथ उठाकय हाथ जोड़ने एकटक महादेव दिश ताकि रहल छथि।)

महादेव – भक्त विद्यापति! अहाँक भक्तिभावना सँ अत्यन्त प्रसन्न छी। यैह अटूट भक्ति हमरा अहाँक सान्निध्य मे अयबाक लेल बाध्य कयलक अछि। अहाँ माँगू, जे मँगबाक हो से माँगू।

विद्यापति – हे प्रभो भोलेनाथ! अहाँक दर्शन सँ हम कृत्य-कृत्य भऽ गेलहुँ। सर्वप्रथम त ई मँगैत छी जे अहाँक सेवक विद्यापति जे उत्तरदायित्व लेलक अछि ताहि मे हमरा सफलता भेटय।

महादेव – अवश्य भेटत वत्स! अवश्य भेटत। साधु भक्त विद्यापति, अहाँ अपना लेल नहि माँगि जनहित केँ महत्व पहिने देलहुँ। अहाँ आर अधिक विश्वसनीय भऽ गेलहुँ भक्त, आरो विश्वसनीय। आरो माँगू!!

विद्यापति – अहाँक दर्शन एहि रूप मे हमरा मृत्युकाल सँ पहिने हुए।

महादेव – अवश्य दर्शन देब वत्स। अवश्य दर्शन देब। अहाँ यथार्थतः विद्वान् आर बुद्धिमान् दुनू छी भक्त विद्यापति। अहाँ दर्शन केर वचन लय कय मृत्यु ऊपर विजय प्राप्त कय लेलहुँ, अहाँक जोड़ा एखन एहि भूमण्डल पर नहि अछि वत्स। आर माँगू।

विद्यापति – भगवन्! अहाँ सदिखन आजन्म अपन सान्निध्य मे रहबाक वचन दिअ जाहि सँ निरन्तर हम अपनेक दर्शन कय सकी।

महादेव – अहाँ अपन जाल मे बान्हि लेलहुँ हमरा भक्त! बान्हि लेलहुँ अन्तिम वचन बिना किन्तु! मुदा ई देनाय सम्भव नहि अछि। हम ता धरि अहाँक संग उगनाक रूप मे अवश्य रहब जा धरि नौकर मात्र रहबाक विश्वास दियबैत रहब। जाहि दिन अहाँ ई स्पष्ट करब जे हम शंकर छी त हम क्षणहि भरि मे अहाँक संग छोड़ि देब। हम अहाँक संग रहब लेकिन अप्रत्यक्ष रूप सँ, शरीर मे नहि। हमरा लेल आदरसूचक शब्द नहि तऽ अहाँ व्यवहार करब आर नहिये दोसर केकरो स्पष्ट करब जे हम महादेव छी। स्वीकार अछि?

विद्यापति – स्वीकार अछि प्रभु।

(एकाएक महादेव विलीन भऽ जाइत छथि आर उगना सामने ठाढ़ छथि। विद्यापति प्रणाम केर अवस्था मे हाथ जोड़ि गद् गद् मोन सँ एकटक उगना केँ देखि रहल छथि आर हुनकर दुनू आँखि सँ प्रसन्नताक नोर बहि रहल छन्हि।)

उगना – साँझ पड़ि गेल मालिक! कतहु राति होइ सँ पहिने घर-उर धय लीतहुँ त ठीक रहैत। चलू जल्दिये।

विद्यापति – चले उगना चले!! तूँ त मानवरूप मे हमर जन्म लेनाइये धन्य कय देलें। हम कतेक भाग्यशाली छी, आह!

(दुनूक प्रस्थान)

उगना-विद्यापति (नाटक)

द्वितीय खंड

अङ्क १

दृश्य १

दिल्ली के दरबारक दृश्य – बादशाह अपन गद्दी पर विराजमान छथि। दरबारी सब अपन-अपन आसन पर बैसल छथि। मंत्रणा चलि रहल अछि।

बादशाह – राज-खजानाक कि स्थिति अछि वजीर-ए-आजम?

वजीर-ए-आजम – सब कियो कर चुक्ता कय देलक हँ। मात्र मिथिला के बाउन राजा इन्कार कएने छलय। ओकरा बन्दी बना लेल गेल अछि हुजुर।

बादशाह – लेकिन ओ त ३ वर्षक अग्रिम भुगतान पहिनहि कय देने छल, फेर ओकरा बन्दी कियैक बनायल गेल?

वजीर-ए-आजम – सही फरमेलहुँ अपने परवरदिगार! लेकिन खजाना खाली रहय आर ओ आरो बेसी अग्रिम कर दय सँ इनकार कय देने छलय। मजबूरन ओकरा बन्दी बनेबाक हुक्म देल गेलैक।

बादशाह – अगर एहि तरहें अग्रिम कर देनिहारक संग हमर वजीर-मंडली पेश अबैत रहल तऽ पूरा सल्तनत मे एक दिन बगावत भऽ कय रहत। अग्रिम कर भुगतानी हेतु बतौर इनाम किछु देल जेबाक चाहैत छल, तेकर बदला मे ओकरा बन्दी भेटल। कियैक कियो अग्रिम कर पेश करत? अहाँक खजाना खाली अछि त से अहाँ खर्च कयलहुँ अछि, ओ त नहि कयलक। खाली करबाक जिम्मेदारी अहाँ लोकनि पर अछि, ओकरा ऊपर नहि। तेँ, ओकरा बन्दी बनाकय ओतुका रियाया केर विश्वास अपना सब खत्म कयलहुँ अछि, ओकर दिल नहि जीतलहुँ अछि।

(सब के सब सिर झुका लैत अछि, किन्तु बादशाह बजैत रहैत छथि)

बादशाह – सुनू! युद्ध मे हराकय ओकर एहि मुलुक पर कब्जा कयलहुँ अछि, एकर मतलब ई नहि निकलैत अछि कि ओ दिल सँ सेहो हारि गेल। अगर सब मुलुक केर रियाया एकाएक बगावत पर उतरि गेल त फेर हमरा सब केँ भगबाको जगह नहि भेटत। अतः ओकर दिल केँ जीतू, जँ रहबाक अछि तँ।

(द्वारपाल केर प्रवेश)

द्वारपाल – हुजुर! मिथिला सँ दू आदमी आयल अछि। परवरदिगार केर दर्शन चाहि रहल अछि।

बादशाह – पेश करू। (द्वारपाल हुक्म पाबि पुनः प्रस्थान कय जाइछ, बादशाह अपन मंत्री आ दरबारी सब सँ कहैत छथि…) देख लेलहुँ न! शिकायत लय कय लोक आबय लागल।

(विद्यापति, उगना संग द्वारपाल केर प्रवेश होइत अछि। विद्यापति माथा सँ पाग उतारिकय अपन हृदय सँ लगबैत सिर झुकाकय प्रणाम करैत छथि। एकटक सँ बादशाह विद्यापति आ उगना दिश तकैत छथि।)

द्वारपाल – (उगना सँ) सलाम करे रे लड़का!

उगना – (विद्यापति दिश घुमिकय) आऽ परनाम मालिक।

बादशाह – (ठहक्का मारिकय हँसैत) अरे वाह! कतेक नीक!! कतेक नीक!!

(बादशाह केँ हँसैत देखि सभ कियो हँसय लगैत अछि।)

एक वजीर – देहात सँ आयल अछि।

बादशाह – देख रहल छी वजीर-ए-आजम एकर पहिरावा? कि हालत अछि मिथिला केर! तैयो ३ वर्षक अग्रिम कर ओ देलक। मालिक केर प्रति वफादारी सेहो अहाँ देखिये लेलहुँ। अहाँक बादशाहक जरीदार लिवास सँ नीक ओकरा अपन प्रिय मालिक लगैत छैक जे एकदम साधारण कपड़ाक लिवास पहिरि रखने अछि। आयल अछि त किछु सिखियो लिअ। देखू मिथिलाक हिन्दू फकीर सब कि सिखेने अछि ओहि ठामक आदमी केँ। अपन राजाक प्रति केहेन वफादारी होयत! ओहिठामक रियाया केर शायद ओतय दिल जीतल जाइत अछि। अच्छा छोड़ू! (विद्यापति दिश घुमिकय) अच्छा त अहाँ मिथिला सँ आयल छी? अहाँक परिचय आ एबाक उद्देश्य?

विद्यापति – हमर नाम विद्यापति छी। हम मिथिला सँ अयलहुँ अछि। ओहि ठामक राजा परमादरणीय शिव सिंह जिनका अपने अकारण बन्दी बना लेलहुँ अछि, हुनकहि दरबार मे हम एक शायर (कवि) छी जहाँपनाह, ताहि सन्दर्भ मे बात करय आयल छी।

दरबारी शायर – हाहाहा! अहाँ शायर छी? न शायर जेहेन पहिरावा, न शायर जेहेन केस। न शायर जेहेन जुबान! फेर केहेन शायर छी अपने? हाहाहा!!

सभी – वाह-वाह! एकरा कहल जाइत छैक शायर आ ओकर शायरी।

बादशाह – (विद्यापति दिश ताकिकय) एतय हीरा के भंडार अछि, खराब नहि मानब।

विद्यापति – (विहुँसिकय)

शीशा सन दिल अछि मिथिलाक,

कटि जाइत अछि हीरा,

ओ त रेखा मात्र खिचैत अछि।

आ स्वयं कटि जाइत अछि हीरा,

ओतय कोनो देखाबा,

ओकरा नहि अबैत अछि।

नहि दैत छैक पीड़ा,

न शस्त्र उठेनाय जनैत अछि,

शास्त्र केर ओ हीरा!!

उगना – आह मालिक!

स्वयं भूखल रहिकय ओ बाँटय

सोना चाँदी हीरा,

प्रतिभा केर ओ परम पूजारी

मिथिला और न दूजा!!

केहेन रहल मालिक? देखलहुँ अनेरुआ के शायरी!!

बादशाह – वाह! वाह!! जवाब नहि, जवाब नहि!! देखू वजीर लोकनि, देखू, एक अदना आदमीक शायरी। केहेन कमाल अछि मिथिलाक इन्सान सभक!

(बादशाह अपन गला सँ माला निकालिकय एकटा विद्यापति आर एकटा उगना केँ दैत)

बादशाह – बतौर ईनाम ई स्वीकार करू। एखन तुरन्त पहिने एहि लड़का लेल कपड़ाक इन्तजाम करू।

(दुनू गोटे माला लैत छथि और विद्यापति उगना केँ मनहि-मन आँखि मुँदिकय प्रणाम करैत छथि)

उगना – हम कपड़ा लय कय कि करब? भगवे पहिरय लेल जन्म लेने छी। आर भने भगवे पहिरने रहब, निस्सन देह अछि अखाड़ा मालिश केर। (दरबारी शायर दिश ताकिकय) भुसुक्क भऽ गेल की हमर मालिक के एक्के बमगोला सँ? हमर मालिक बड़ पैघ विद्वान् छथि। केहेन-केहेन केँ त झाड़ा सटका दैत छथिन!

विद्यापति – (बीच्चहि मे बजैत) हम सरकार सँ किछु अर्ज करय चाहि रहल छी।

बादशाह – कहू-कहू! कि कहय चाहैत छी!!

विद्यापति – हमर राजा केँ अकारण धोखा दय कय अपनेक आज्ञा सँ अपनेक हुक्मगार लोकनि बन्दी बना लेलनि अछि। अग्रिम कर सेहो देल जा चुकल अछि तखन ई काज केहेन उचित भेल?

बादशाह – एहि मसला पर त एतय एखन नुक्ताचिनी चलि रहल छल शायर विद्यापति।

दरबारी शायर – (ठाढ़ भऽ कय) परवरदिगार! एकटा अर्ज करय चाहि रहल छी।

बादशाह – इजाजत अछि।

दरबारी शायर – हम हिनक उत्तर लेल खराब नहि मानैत छी कियैक त ईहो शायर थिकाह, लेकिन हिनकर नौकर त हमर तौहिनी कयलक अछि। अतः बिना मुकाबला के कोनो ईनाम पेबाक हिनकर कोनो हक नहि बनैत छन्हि।

किछु वजीर – सही फरमेलनि अछि दरबारी शायर जी।

दरबारी शायर –

शायरी सँ हम सोहरत कमेलौं हँ।

शायरिये हमरा दौलत दिएलक।

शायरिये हमरा दरबार अनलक अछि।

शायरी सँ हमर बच्चा सब सेहो,

सौकत-शान प्राप्त कयलक अछि।

विद्यापति –

जतने जते धन पापे बटोरल

मिलि-मिलि परिजन खाय,

मरणक बेर हरि कियो नहि पूछय

करम संग चलि जाय!!

उगना –

जियह जियह मालिक! जियह!!

(दरबारी शायर दिश देखिकय) कनी पाचक आ कि हर्रे-बहेरा आ औउरा खाय लेब, तखने पेटक गुड़गुड़ी जायत। एक्के गो गोला देखिकय मन उझुकय लागल तखन भोला बाबा वला गीत सब त बाकिये अछि।

बादशाह –

सचमुच शायर विद्यापति! सचमुच अहाँ माहिर शायर छी। अहाँ पर खुदा मेहरबान छथि। दिल खुश कय देलहुँ। तैयो दरबारी शायर बहुत दिन धरि खिदमत कयलनि अछि, तेँ जाँच के एक अवसर हुनका आरो दैत छियनि। (दरबारी शायर दिश ताकिकय) अहाँ जे पुछय चाहैत छी से हिनका सँ पुछि लियौन।

दरबारी शायर – इजाजत अछि परवरदिगार?

बादशाह – जरूर, जरूर!!

दरबारी शायर – हिनकर आँखि पर पट्टी बान्हल जाय। पट्टी हमहीं बान्हब। अपने सब हमर पाछू आउ।

(विद्यापतिक आँखि पर पट्टी बान्हिकय सभक सब चलि पड़ैत अछि)

विद्यापति – उगना, ई कि भऽ रहल अछि? ई कि भऽ रहल अछि? (मनहि मन उगना, उगना उगना जपि रहला अछि।)

उगना – हम कोन दिनक लेल छी मालिक? घसलेट्टी लोक सब केँ हम कोनो गुदानबो करैत छी! औउरा हर्रे बहेर खाय लेल कहलियैक से खेबे नहि केलक हँ, पैखाना पेशाब बन्द होइवला छैक से पते नहि छैक। पता चलतैक त पैजामा गन्दा भऽ जेतैक? तखनहुँ बाकी अहाँ जाउ न! अरे बड़का हाकिम त ठीके अछि, ई पोठिया-चेल्हबा सब चाल दय रहल अछि। बाकी, एकटा काज करू। मालिक, ई भाँग कनी खा लियऽ।

(विद्यापति मुंह बबैत छथि आर उगना हुनकर मुंह मे चुटकी भरि भांग राखि दैत छथि, फेर विद्यापति केँ उगने-उगना नजरि आबय लगैत अछि)

विद्यापति – हमर उगनाक बराबरी के करत एतय?

दरबारी शायर – (दाँत कटकटबैत) हिनका एकटा कोठरी मे बन्द कय देल जाय। पट्टी बान्हले रहबाक चाही।

(विद्यापति केँ बान्हिकय एकटा कोठरी मे बन्द कय देल जाइत छन्हि। सामने दरबारी शायर, बादशाह, किछु वजीर बैसि जाइत छथि। आर कनेक दूर पर उगना केँ सेहो बैसा देल जाइत छैक। सामने एकटा नर्तकी बिना साज आ आवाज के नृत्य कय रहली अछि।) आब बाहरक माहौल केर किछु अन्दाज लगाउ त मिथिलाक शायर साहेब?

विद्यापति – उगना! उगना!! (किछु समय लेल चुप)

वजीर – जे बिनु किछु देखने शायरी करय ओ न भेल शायर!

दोसर वजीर – अहाँ दिल्ली दरबार के शायर छी। आर ई मिथिला दरबार के!! अहाँक बराबरी ई कि करता! बेकार आफद मे अहाँ हिनका फँसा देलियनि। शायरक शायरी कि होइत छैक एकर जानकारी दय रहल छी।

उगना – बहुत लोक केर करम-लुकाठी सब जरय लेल तैयार छैक मालिक! आब बहुते भऽ गेल। उगना तैयार अछि तखन। तखन त सब केँ झाड़ा फिरेनाय ठीक नहि हेतैक। मालिक! अगल-बगल गन्हा जायत! बाकी आब लुत्ती लय केँ दागय मे कोनो हर्ज नहि छैक।

दरबारी शायर – चुप रहह हौ! हँ त शायर जी, अहाँ किछु कहू। अपन बीबी-बच्चाक सेहो कनी ख्याल करू। अहाँक बिना हुनका लोकनिक कि हेतनि? हम अपन शागिर्द लोकनिक संग अहाँक औकादि देखय लेल आतुर छी।

अपन औलादक खातिर हम कि नहि कयलहुँ!

शान ओ शौकत सँ हम जिनगी जीलहुँ!!

अहाँ फटेहालिये मे रहय योग्य छी,

जे समय के नजाकत नहि बुझय,

बुझू जे ओ जाहिल छी!

ओ शायर केहेन जे दौलत नहि कमेलक,

ओ शायरी केहेन जे अपनो केँ नहि खींचलक!

हमर शागिर्द खींचेबाक लेल आतुर अछि,

अरे मिथिलाक शायर, अहाँ कियैक व्याकुल छी?

(एकाएक भीतर सँ विद्यापतिक स्वर)

विद्यापति –

माधव हम परिणाम निरासा

तुंहूँ जगतारन दीन दयामय,

अतए तोहर विसवासा

माधव हम परिणाम निरासा!

तातल सैकत वारि विन्दु सम,

सुत मित रमणि समाजे,

तोंहे बिसारि मन ताहि समर्पितु

अब मोहे होउ कउन काजा

माधव हम परिणाम निरासा!

आध जनम हम नीन्द गमायल

जरा सिसु कत दिन भेला,

निधुवन रमणि-रभस-रंग मातल

तोंहे भजब कउन बेला

माधव हम परिणाम निरासा!

कत चतुरानन मरि-मरि जाओत

न तुअ आदि अवसाना,

तोंहे जनमि पुनि तोंहे समाओत

सागर लहरि समाना,

माधव हम परिणाम निरासा!

भनहि विद्यापति सेष समन भय

तुअ बिनु गति नहि आरा,

आदि अनादिक नाथ कहौअसि

अबतारन भार तोहारा

माधव हम परिणाम निरासा!!

बादशाह – कि बात अछि, कि बात अछि शायर विद्यापति अहाँक! कि बात। वाह-वाह!! खोलि दियौन दरबाजा। (दरबारी शायर दिश ताकिकय) आब अहाँक खेल खतम!

(विद्यापति सामने आबि जाइत छथि)

बादशाह – माँगू शायर विद्यापति, आइ अहाँक मोनक सब मुराद हम पूरा कय देब। माँगू, बिना खौफ अहाँ माँगू। खुदाक वास्ते अहाँ किछु माँगू। हम किछो दय देब।

विद्यापति – हुजुर! अगर अहाँ हमरा ऊपर एतेक मेहरबान छी त अहाँ कृपा कय केँ हमर राजा शिव सिंह केँ सम्मानपूर्वक कैदमुक्त कय दिअ। बहुत कृपा होयत। समस्त मिथिलाक रियाया अहाँक एहसानमन्द होयत। और हमरा किछु नहि चाही। न शान-शौकत, न धन-दौलत।

बादशाह – जरूर! जरूर!! एखन आ एखनहि हम मिथिलाक बादशाह केँ ससम्मान बरी करैत छी। हुनका ५० हाथी ५०० घोड़ा आर १००० स्वर्ण मुद्रा अहाँ जेहेन शायर केँ अपन समीप रखबाक लेल दैत छी। हुनका शाही लश्कर केर संग मिथिला पठेबाक इजाजत दैत छी। लेकिन अहाँ शायर विद्यापति, आब एहि दरबाकर खिदमत मे रहब। एतय सँ अहाँ केँ समस्त मुल्क हिन्दुस्तान चिन्हि पायत। मिथिला छोटछिन रियाया थिक। बेशक ओकर सुगन्धि और अहाँक सुगन्धि दूर-दूर धरि पसरत, लेकिन एतेक नहि जे सौंसे मुल्क हिन्दुस्तान धरि पहुँचि जाय। लेकिन एतय सँ अहाँ समस्त मुल्क मे चिन्हल जायब। कि विचार अछि अहाँक? अहाँ जँ कहब त मिथिला केँ सदाक लेल करमुक्त कय देल जायत। मात्र अहाँक हाँ कहबाक देरी अछि।

विद्यापति – हमर उत्तर नहि मे अछि हुजुर! लोक जगह नहि बल्कि प्रतिभा सँ जानल जाइत अछि। अपने हिन्दुस्तान केर बादशाह थिकहुँ। अपने महाभारत जरूर सुनने होयब। कर्ण अपन वीरता सँ जानल गेलाह। पाण्डव पक्ष केर जीत सँ हुनक कोनो ताल्लुकात नहि छलन्हि। मोहम्मद साहेब आर ईशा मशीह, बाल्मीकि व विश्वामित्र अपन प्रतिभाक कारण पूजल गेलाह, कोनो व्यक्ति विशेष वा कोनो स्थान विशेषक कारण नहि। अपन माटि व अपन आवोहवा प्रतिभा दैत अछि और ओकरा सँवारैत-सजाबैत सेहो अछि। गरीब माय केर सिनेहक तुलना दस हजार स्वर्ण मुद्रा पाबिकय सेवा करयवाली सेविका सँ पर्यन्त भेटनाय असम्भव अछि जहाँपनाह! अतः हमरा गरीब मायक आँचर बेसी प्रियगर अछि, शान-शौकत केर मुलायम बिछौना एकदम नहि।

बादशाह – से मर्जी अहाँक जे हो! अहाँ जेना चाही तेनाही करी। हम दबाव नहि देब। ओना हम अहाँक शायराना अन्दाजक कायल छी।

विद्यापति – ओना हम कहियो-कहियो हुजुर केर खिदमत मे अबैत रहब, मुदा एतय रहिकय गुजर-बशर करब हमरा लेल सम्भव नहि होयत। जायज सेहो नहि अछि आर हमरा चाहबो नहि करी।

बादशाह – अहाँ सही मे अलबेला छी शायर विद्यापति! लेकिन अबैत रहब। दरबार केँ बिसरि नहि जायब।

(ता धरि दरबार मे महाराजा शिव सिंह केर प्रवेश होइत अछि। एकाएक ओ दौड़िकय विद्यापति केँ अपन अंक मे भरि लैत छथि। दुनूक आँखि सँ अश्रुप्रवाह देखिकय बादशाह केर आँखि सेहो भीज जाइत छन्हि।)

बादशाह – धन्य छी अहाँ राजा शिव सिंह जे अहाँ केँ एहेन करीबी शायर दोस्त भेटल अछि, जे अपना लेल किछुओ नहि मांगिकय अपन मालिक व दोस्त केर लेल मात्र माँग रखलाह। एहेन इन्सान त आब तकलो पर नहि भेटत। अहाँक शायर मित्र तँ अपवाद छथि।

(उगना विद्यापति दिश ताकिकय तथा शिव सिंह दिश इशारा करैत)

उगना – मालिक! ईहे अहाँ के मित्र छथि की? आर आब अहाँ दुनू गोटे एतेक नहि न कानू! आँखियो न खराब भऽ जायत। काननाय आ हँसनाय लागल रहैत अछि जीवन मे। दुनू गोटेक मिलन भऽ गेल से त निम्मने बात भेल। एहि मे कानय के कोन बात छैक! बाकी मालिक, ई जे बड़का हाकिम छथि (बादशाह दिश तकैत) सेहो बड़ निम्मन लोक छथि। अहाँ विद्वान् छी से कतेक आदर कयलनि अछि। हमरो किछु नहि कहला। भगवो देबाक बात कय रहल छलय, एकटा मालो देलक हँ, ई सबटा निम्मन लोकक लक्षण छी।

विद्यापति – (उगना दिश ताकिकय मनहिमन प्रणाम करैत) सही बात उगना, तोहर कहब सही छौक।

शिव सिंह – (उगना आर विद्यापति केँ देखैत) महाकवि मित्र! ई?

विद्यापति – एकरा सेवक कहू, कि मालिक आ कि मित्र, नहि कहि सकैत छी। वेशभूषा सेवकक छैक, लेकिन विचार एतेक उत्तम आ महान जे प्रत्येक प्रश्नोत्तर निरूत्तर कय देत। (विहुंसैत लगैत छथि) एकरा प्रण अनुसार किछुओ आ कतहु बजबाक एहि लेल अधिकार दय देने छी। अपने खराब जुनि मानू। आइ हमरा जेहेन शक्तिहीन एकरहि सहयोग सँ पाँव-पैदल दिल्ली पहुँचि सकलहुँ अछि, अन्यथा सम्भव छल कि मोनक सपना मोनहि या फेर रस्ते मे खतम भऽ गेल रहितय।

शिव सिंह – तहन त हम किछु बाजि नहि सकैत छी, अन्यथा दरबारक अवमानना किछु सोचय पड़ैत।

बादशाह – नहि राजा, नहि। हम एकर गरीबी मे जे स्वामीभक्ति देखलहुँ अछि ओ आन ठाम देखनाय असम्भव अछि। तेँ हम एकर निश्छलताक कायल छी। हम एकरा बतौर इनाम मात्र माला देलहुँ अछि, अहाँ दण्डित कोना करबैक!

(ता धरि द्वारपालक प्रवेश)

द्वारपाल – परवरदिगार! हुजुर केर इजाजत मुताबिक सब तैयारी भऽ गेल अछि।

बादशाह – चलू, अपने लोकनि केँ विदाह कय दी। लेकिन शायर विद्यापति, अहाँ दरबार केँ बिसरब जुनि।

विद्यापति – नहि! एना कोना भऽ सकैत छैक?

(सभक प्रस्थान तथा बाहर आबिकय एक-दोसर केँ प्रणाम कय विदाह भऽ जाइत छथि)

पटाक्षेप

उगना-विद्यापति (नाटक)

द्वितीय खंड – अङ्क एक

दृश्य २

(महाराजा शिव सिंह केर दरबार, सभासद अपना-अपना स्थान पर विराजमान छथि)

महाराज शिव सिंह – हमर प्रिय महामात्य जी! सेनापति जी! आमात्यजन! ऋणी छी जे अहाँ लोकनि हमरा वास्ते – अपन राजाक वास्ते एतेक जी-जान लगाकय प्रयास कयलहुँ। अहाँ सब द्वारा मित्र महाकवि विद्यापति जेहेन दूत पठेलहुँ जिनकर प्रयास अपमान केँ सम्मान मे बदलि देलक। शत्रु केँ मित्रता मे परिवर्तित कय देलाह। खून आ तलवार केँ मान व सम्मान केर रूप दय देलनि। ओहि महाकवि केँ सम्बोधन कि करू जे स्वयं मान केर प्रतिमूर्ति थिकाह, हुनका कि मान दियनि! सम्राज्य मे सामर्थ्य कहाँ जे हुनका सम्मान दी। अपने ई नहि बुझब जे हम अपन प्राण बचेबाक बदले उपयुक्त वाक्य कहलहुँ अछि, बल्कि यैह यथार्थ थिक। मिथिलाक पाग केँ हिनका द्वारा सम्मान दिएबाक प्रमाण अस्तबल केर घोड़ा या हाथी आ कि स्वर्ण मुद्रा छी, अतः अहाँ सभक दिश सँ हम २० टोलक गाम विस्फी जे हिनकर जन्मस्थान थिकनि ओकर पूर्ण स्वामित्व प्रदान करैत छियनि। दिल्लीक सम्मान केँ अपन जन्मस्थान मिथिला मे रहबाक लेल जे हमरा सोझें मे ठुकरा देलाह ताहि महाकवि केँ अपन जन्मस्थानहु पर सेहो अधिकार नहि हुए? तेँ आइ सँ अहाँ लोकनि हमरा मे आर हिनका मे मित्र-मित्र केर भाव सँ देखी। (ताम्रपत्र दैत)

एक अमात्य – प्रशंसनीय! अति प्रशंसनीय!!

प्रधान अमात्य – हम अपन अमात्य परिषद् केर तरफ सँ एहि महाकवि केँ नमन करैत छी जे हमरा सभ केँ कर्तव्यहीन होइ सँ बचा लेलनि।

सेनापति – जे हमरा अपन उत्तरदायित्व सँ एतेक आसानी सँ मुक्ति दिया देलनि ताहि कविकोकिल केर चरण मे हम अपन प्रणाम अर्पित करैत छी।

एक सभासद – महाकवि त महाकवि छथि। हिनकर तुलना तँ मात्र हिनकहि टा सँ कयल जा सकैत अछि। धन्य तऽ हम सब छी और धन्य अछि मिथिलाक पावन भूमि जेकरा महाकवि समान रत्न भेटल अछि। अतः हम सब समस्त सभासदक दिश सँ कविकोकिल केर आशीर्वचन चाहैत छी।

सब कियो – अवश्य! अवश्य!!

विद्यापति – सब सँ पहिने त हम भगवान् भोलेनाथ केँ प्रणाम करैत छी जे हमरा शक्ति प्रदान कयलनि आर दिल्ली धरि पहुँचाकय विजयी बनेबा मे सहायता कयलनि। तत्पश्चात् अपन आश्रयदाता महाराजा व महारानी केँ नमन करैत छी। नमन करैत छी उपस्थित समस्त सहयोगी लोकनि केर जिनकर प्रेरणा हमरा सत्य केर दर्शन करौलक, तथा यशभागी बनबाक सौभाग्य प्रदान कयलक। आब हम स्पष्ट बात कहय चाहब जे एहि विजयश्री मे सब सँ पैघ योगदान त अहाँ सभक अछि। हम त किछु नहि कयलहुँ अछि। सबटा भोलेनाथ केर कृपा थिक। आब हम अपने लोकनि सँ आग्रह करब जे अपन राजा केर तत्परता सँ रक्षा करू। मिथिला केर सुख-शान्ति तथा समृद्धि हेतु राष्ट्रक प्रति समर्पित भऽ कय काज करय कियो जँ, चाहे ओ अधिकारी हो, अमात्य हो या हो चरवाहा – सभक योगदान राष्ट्रनिर्माण मे बराबर केर होइत छैक। शिक्षा केर प्रचार-प्रसार करैत राष्ट्र केँ शिक्षित बनाबी। शिक्षित समाज मात्र उचित-अनुचित ऊपर सम्यक् रूप सँ विचार करय मे सक्षम होइत अछि। शान्ति, शक्ति, शिक्षा एवं समृद्धि केर सन्देश मिथिला सँ मिलिकय विश्वव्योम धरि पसरि जाय। राष्ट्रीयताक भावना केर रक्षाक सन्देश दय मे मिथिला अग्रणी रहय। आर अन्त मे, हम सब सँ प्रार्थना करैत छी जे हमरा आब अवकाशग्रहण करबाक आज्ञा दय देवपूजन मे अपन समय व्यतीत करय दी। अवस्था वृद्धावस्था दिश अग्रसर भऽ गेल अछि। अतः शान्ति केर इच्छूक जीवन आब आध्यात्मिक पृष्ठभूमि केर चाहत कय रहल अछि। (शिव! शिव!! कहैत ओ बैसि रहैत छथि।)

एक सभासद – अपनेक आज्ञा तथा अपनेक उपदेश हमरा लोकनि केँ शिरोधार्य अछि, मुदा अपनेक विरक्ति स्वीकार्य नहि अछि। हम अनाथ नहि होबय चाहैत छी। हम सब अपन भगवान् केँ एना नहि जाय देबय चाहैत छी।
महाराजा शिव सिंह – नहि, नहि! मित्रप्रवर हमरा सब केँ छोड़ि नहि रहला अछि अपितु विशेष दौड़-धूप नहि कय शान्तिपूर्वक समय व्यतीत करय चाहि रहल छथि। (विहुँसैत विद्यापतिक दिश देखैत) अच्छा, त आब हम सब कियो चली। मित्र केँ हुनकर घर पहुँचाबी। लगभग चारि होमय जा रहल अछि। हुनका पठेबाक तैयारी करू। अपन सेवक केँ घर पठाकय मित्र हमरा संगहि एतय धरि चलि अयला अछि, तेँ हिनकर सुविधा-असुविधा पर सेहो ध्यान राखब हमरा सभक धर्म थिक। अतः चली! (सभा उठि जाइत अछि)

पटाक्षेप

उगना-विद्यापति (नाटक)

 
द्वितीय खन्ड – अङ्क १
 
दृश्य ३
 
(स्थना – विद्यापतिक घर। विद्यापतिक पत्नी घर केर दरबज्जा पर बैसल अपना आप सँ बात कय रहली अछि)
 
विद्यापतिक पत्नी – (स्वगत) लगभग चारि मास हुनकर दिल्ली गेना होबय जा रहल अछि। एखन धरि कोनो सूचना नहि अछि। हे शिव! कल्याण करब। (दूर दिश ग’र कय केँ देखैत) अरे! शायद उगने त आबि रहल अछि। लेकिन असगरे कियैक? ओ कतय गेलाह? हे शिव! हे शिव!! कल्याण करब।
 
उगना – (नजदीक आबिकय) आ प्रणाम मालकिनी! ओतय बड़का रोड पर मालिक केँ राजा के जौरे छोड़ि देलउं हँ आ मालिक हुनके जौरे राजा घर गेला हँ। हम खाली अप्पन मोटरी-चोटरी लय कय घोरबग्घी सँ उतरिकय घरे एतय चलि एलौं हँ। मालिक समाद कहय लेल आगू पठा देला अछि।
 
विद्यापतिक पत्नी – दिल्ली यात्रा केहेन रहलौ उगना? ठीक सँ पहुँचि त गेला तोहर मालिक? काज भेलउ कि नहि?
 
उगना – हैवा लियऽ! यै मालकिनी, ठीक सँ पहुँचि नै गेलियै त ई मोटा-ऊटा लेनहिये आपस कोना आबि गेलियै? ई देह जे हमर फूलिकय कदीमा भऽ गेल अछि से खेनाइये-उनाइये खाय कय भेल हँ, कोनो मारि-तारि खाय कय देह नहि फूलल हँ। जखन हम जौरे छलहुँ त मालिक के रस्ता मे के कि करितय? मारि लाठी के हम चोखा नहि बना दितियैक ओकरा? अखाड़ा-मालिश वला ई देह कोन दिन काज अबितय? बतिआय मे मालिक से आ पटका-पटकी आ कि लाठी चलबय मे हमरा से मोकाबला वला भेटब मोस्किल अछि मालकिनी। ओतय एहेन-एहेन न एगो-दु-गो बात मालिक बजलाह कि ओतुका सब आदमी के झड़े-झपटा सटैक गेल। एहेन न विद्वान् वला बात बजलखिन एके पढुआ-पाट मे सब केँ बोलतियो बन्न भऽ गेलय आ चितंगो भऽ गेल सब। बहुत घोड़बग्घी आ हाथी-उथी इनामो भेटलनि हुनका आ से सबटा मालिके के बात पर। मालिक सन विद्वान् जाय आ काजो नहि हुए? आ हे मालकिनी हम हमेशा मालिक के अगल-बगल मे घुरपेंच कटैत रहैत छलहुँ। देखैत रहैत छलहुँ जे कियो मालिक पर आँखि ऊँखि त नहि गुराड़ैत अछि। एगो बात मालकिनी! ओहिठाम किछु लोक मालिक सँ जरबो करैत छल, लेकिन मालिक के बात पर चारूनाल चित्त भऽ गेल आ सभक मुंहे बिधुआ गेल।
 
विद्यापतिक पत्नी – अच्छा, बात बादो मे करब। पहिने हाथ-पैर धो कय आबे आ खेनाय खा ले। बहुत थाकल हेमे।
 
उगना – थाकब-उकब कोना मालकिनी! घोरबग्घी सँ न एलौं हँ। आरे मोन पड़ल मालकिनी! हम पहिने बरदबा के हाल-चाल देखिकय अबैत छी। ओ केना अछि? मन सँ चरल-उरल हँ कि नहि? ऊ ऊपर स बसहा नाहित लगैत अछि आ बाकी भीतुरका बड़ी बदियल अछि। कन्हुआइतो-उन्हुआइतो छल कि? अच्छा अबैत छी। (चलि जाइत अछि)
 
विद्यापतिक पत्नी – (अपना आप सँ) एकरा सँ बातो केनाय आफद मोल लेनाय छी। अपना सँ पहिने बरदे के चिन्ता छैक एकरा। (भीतर चलि जाइत छथि)
 
उगना – (बाहर आबिकय, बरद दिश देखैत) कि हाल रे बरदबा! निम्मन जाकित रहलें कि नहि? अरे तूँ त बड़ लटिया गेलें हँ रे! ई कोन बात भेलय? हम नहि रही त खेनाय-उनाय बन्न? तोरा समझा-बुझा कय गेल रही न? बैठारी मे खाकय तोरा मोटाकय कुप्पा भऽ जेबाक छलौक। हम त जबे करैत छी कि तूँ हमरा लेल टा सबटा नाटक ठाढ कएलें हँ। खैर, आब कोनो चिन्ता नहि। दोसरे दिन भने खिया-उया के मुस्टंड बना देबउ। आ कि नहि! (बसहा स्वीकारात्मक सिर डोलबैत अछि उगना गला सँ रस्सी खोलैत अछि।) जो, आब तहुँ मन-माफिक चरे आ दौड़ि-दौड़िकय उमक। ताबत धरि हमहुँ भोजन-उजन कय लैत छी। मालकिनी बैसल हेथिन।
 
विद्यापतिक पत्नी – (पाछू सँ आबिकय) रे, तूँ आदमी छियें कि बरद जे तखन सँ एकांत मे ओकरा सँ बतिया रहल छँ? बरद कोनो आदमी छी जे तोहर बात के उत्तर देतउ? चल, पहिने खा ले तखन बरद सँ बातचीत करैत रहिहें।
 
उगना – हैया आबि गेलहुँ मालकिनी, अपन थरिया-लोटा लय कय। लेकिन मालकिनी, एगो बात बुझि लियऽ जे बरदो अपन चरबहबा सँ बतियाइत अछि। दिन-राति जे दुनू जौरे-जौरे रहैत अछि न से दुनू एक-दोसर के बात बुझय लगैत अछि। हे देखू, हमर बरद हमरा केना चिन्ह जाइत अछि! हऽऽ रे हऽऽ! एन्ने आबे। (बरद रुकि जाइत छैक आ पाछू ताकय लगैत छैक) एन्ने घुरे कहैत छियौक, सुनलें कि नहि? (बरद पाछू घुमि जाइत अछि) देखलियैक न मालकिनी! केना बरदबा हमर बात बुझि गेल! आ देखू हम कहैत छी कि एकरा एखन तरास जोर कएने छैक। पानि पियत। देखू केना पानि के तरफ भागत। हेऽ हेऽ – (बरद पानि दिश दौड़ि पड़ैत अछि) आब बुझलियैक मालकिनी जे केना चरबाहा आर बरद एक दोसरा सँ बतियाइत अछि? यैह कारण एतबा दिन पर जे एलियैक हँ से मान-मनौव्वल आ रुस्सा-फुल्ली त हमरा ओकरा मे हेब्बे करत। अच्छा आब चलू, खाय लेल दियऽ।
 
विद्यापतिक पत्नी – अच्छा, चले चले। (हँसय लगैत छथि) जेना तूँ तेहने तोहर मालिक, आर ओहने ई बरद सेहो अछि!! तोरा सभक भाषा तोंही सब बुझे। चले। (दुनू भीतर दिश जाइत छथि। खेनाय उगना केँ परसैते) एखन त तूँ दरबारक भोजन भरि मास कय के एलें हँ। घर के भोजन त केहनो नै लगतउ। (विहुंसय लगैत छथि)
 
उगना – एहन बात जे दोसर कहने रहितय न मालकिनी त थरिया-उरिया पटैक कय भागि जइतहुँ। आरे जे स्वाद एहि भात आ उलायल राहड़िक दालि मे अछि आ तेकरा जौरे बैगन के तरकारी मे अछि से राजदरबार के खेनाइ मे कतय सँ आओत? तय पर सऽ कदीमा के तीमन आ ओल के चोखा के स्वाद ओकरा सभक कपार मे कतय सऽ भेटत? ओ सब घीउ जौरे अलुआ खाइत अछि सैह बुझि लिअऽ! अलुआ के कतबो गंगा स्नान कराकय चानन-ठोप कय देबय त ओ तिलकोर आ कि मखान थोड़े न भऽ जेतय? कनी दालि आओर दिअऽ। (उठाकय बाकी बचल पीबि जाइत अछि) उलबा राहड़िक दालि के पानि जे सुअदगर लगैत अछि से हाय रे हाय!!
 
विद्यापतिक पत्नी – (विहुंसय लगैत छथि आर दालि आनिकय दैत छथिन) अच्छा, अच्छा! खो जतेक मोन करैत छौक। मुदा बरद केँ सेहो जाय कय पानि पिया दिहीन। दू पहर होबय जा रहल अछि।
 
उगना – बरदबा कोनो हमरे भरोसे बैसल हेतय? ओ चरि-उरि कय पानि-तानि पीबिकय एतीकाल ढेकार बैसिकय लैत होयत। हम खुगले न छोड़ि आयल छी। ओ भीतुरका बदमाश अछि। चलू न देखबय ओ केना हमरा पर कन्हुआयत आ पाउज करत से! जखन हम जेबय त उमकि-उमकि कय भागत आ कखनहुँ बिना बजेने लग आबिकय देहो सुँघत। ओ भीतरिया बदियल बरद छी।
 
विद्यापतिक पत्नी – अच्छा छोड़ अपन डाह-डहकन। बाज, आर किछु लेमें?
 
उगना – नहि, नहि! आब किछु लेब मालकिनी। पेट एकदम भरि गेल हँ। ओना हमर खेनाय के कोनो ठेकान नहि अछि। हँरिया के हँरिया साफ कय दैत छियैक आ कखनहुँ-कखनहुँ एक्को फँक्का मे ढेकार होबय लगैत अछि। ई नीसाँ-नीसाँ के बात छी। पुरना भाँग मे ढेकार होबय लगैत अछि आर नवका भाँग मे हँरिया के हँरिया साफ भऽ जाइत अछि।
 
विद्यापतिक पत्नी – उगना आब जेबो कर। बहुत बजैत छँ। माथा जुनि बिगाड़। अन्ट-शन्ट बकैत रहैत छँ।
 
उगना – अच्छा, जाइत छी।
 
(पटाक्षेप)
दृश्य ४
 
उगना – (उगना खा कय थारी उठबैत घुमिते अछि ता विद्यापतिक प्रवेश) – लियऽ, आइ मालिको आबि गेलाह। झुठे-मुठे हरदम बिगड़ल रहैत छी मालकिनी। (थारी ऊपर उठाकय प्रणाम करैत) आ प्रणाम मालिक!
 
विद्यापति – (मनहि मन उगना केँ प्रणाम करैत) कहे उगना, सब ठीकठाक छौक न!
 
उगना – मर! हम ठीक नहि रहब मालिक त के ठीक रहत! एकदम नीक जाकित पहुँचि गेलहुँ। (हाथ आँखि तक उठबैत लोक केँ देखबाक उपक्रम करैत) मालिक! पाछू त बड़का भीड़ नाहित आबि रहल अछि। बुझाइत अछि जे कोनो लकड़सुंघा-उंघा धरायल हँ। हम देखैत छी मालिक।
 
विद्यापतिक पत्नी – उगना! पहिने जो आ आँइठ हाथ आ बर्तन साफ करे तखन बात करैत रहिहें अपन मालिक सँ। ओहो थाकल छथिन। पहिने बैसय त दहुन हुनका। हाथ-पैर धुए दहुन।
 
विद्यापति – नहि उगना! ओ भीड़ त तोरे ओतय आबि रहल छौक। राजदरबार के लोक सब छी। हमरा पारितोषिक मे भेटल सामान सब लय कय आबि रहल अछि, ओ एतय विस्फी मे एकटा घरो हमरा लेल बनायत। अपन राजाक आज्ञा पालन करय आबि रहल अछि।
 
उगना – मालकिनी त हमरा पर खखुआएले रहैत छथिन। हम कुनू मालिकक टंगरी छनने छियनि? बैसता अपने देह सँ आ कि हमरा देह सँ! थाकर हुनकर पैर छन्हि आ कि हम्मर? नीके न भेल जे भीड़ के विषय मे पहिने जानि गेलहुँ। हमर दुहरा पर आबि रहल अछि त सभक बैठक-उठक के इन्तजाम पहिने सँ न कय लेब!
 
विद्यापतिक पत्नी – (बिगड़िकय) जो भाग एतय सँ! बहुत बढि-चढिकय बाजय लागल हँ। पैघ-छोट के कनिकबो ज्ञान नहि। कतय केकरा संग, कखन, कि बजबाक चाही से सब किछु ज्ञान नहि।
 
विद्यापति – कियैक बिना कारण बिगड़ैत छियैक ओकरा पर दुल्लहि माय? ओकरा खूब ज्ञान छैक पैघ-छोट के। दिल्ली यात्रा मे एकर बुद्धिमानी आ वीरता के अनुभव हमरा भेल अछि। एकरे प्रताप अछि जे आइ हम एतय छी नहि त कतय रहितहुँ से कहब मोस्किल अछि। तेँ हमहीं कतहु किछु बजबाक अधिकार दय देने छी। भीड़ देखिकय उत्सुकता जगलैक त पुछि लेलक। एहिमे बिगड़बाक कोन बात छैक?
 
विद्यापतिक पत्नी – अहाँ एकरा माथ पर चढा लेने छी। कोनो दिन आफद ठाढ़ कय देत। नौकर केँ नौकर रहय दियौक। अहाँ एकरा मुंहलगुआ बनाकय राखू मुदा हम बर्दाश्त नहि करबय। आब एकरा ठीक सँ राखहे पड़त।
 
विद्यापति – घर बनय आ लक्ष्मीक निवास सँ पहिने या एना कहू जे अधिकार पबिते अहाँ केँ गौरव एतेक बढि गेल? ई सब शुभ लक्षण नहि भेल दुल्लहि माय। आब अहाँ आर्थिक रूप सँ दुर्बल कवि-पत्नी नहि रहलहुँ। बीस गाम अर्थात् बीस टोलाक बिस्फी गाम अहाँक छी आब। बतौर पारितोषिक उगने के बुद्धि दिएलक अछि।
 
विद्यापतिक पत्नी – उगना कि दियाओत खाक? जेकरा न बाजय, न खाय आ न रहय के ठेकान छैक? ओ अहाँ केँ सबटा दिया देलक? अपने लेल कियैक न सबटा मांगि लेलक? नौकर नहि रहितय, मालिके बनि जइतय? अच्छा छोड़ू! हमहुँ अपन नारी स्वभावक परिचय एखने देखा देलहुँ। पहिने हाथ-पैर धोउ फेर आगू के हाल-चाल आ विषयक बात करब।
 
विद्यापति – (विहुँसैते तथा लोटा उठाकय पैर धोबाक लेल जाइत) (स्वगत) अगर अहाँ सब नहि रहितहुँ त मानव कतय सँ अबितय? राम-रावण युद्ध कियैक होइतय? महाभारतक युद्ध कियैक मचितय? आबयवला दिन मे अहीं सभक कृपा सँ सन्त सेहो बनब। महन्थ सेहो बनब। अहाँ सब खाली मानव बननाय सिखलहुँ। ओ मानव मित्र बनय आ कि शत्रु, एकर चिन्ता अहाँ केँ नहि अछि। अहाँ अगर मानव बनेलहुँ त मानवता तोड़बाक-मरोड़बाक मे सेहो कम हाथ नहि रहैछ। विश्वामित्र, इन्द्र केँ सेहो अहीं सब खेल देखेलहुँ। फेर हमर बात अहाँ कि सुनब! (विहुँसैत हाथ-पैर धोइत छथि)
 
(पटाक्षेप)
 
दृश्य ५
 
(स्थान विद्यापतिक घर। विद्यापतिक पत्नी दरबाजा पर ठाढ़ उगना केँ बजा रहली अछि)
 
विद्यापतिक पत्नी – उगना! रे उगनाऽ! देख आइ शिवराति छी। सब कियो व्रत रखने अछि। आइ घर मे भोजन नहि बनतौ। साँझ मे शिव-अर्चना के बाद सब फलाहार करब। अतः साँझ होइ सँ पहिने बेलपात आनि दिहें। बुझलें।
 
उगना – हमर काज लेल निश्चिन्त रहू मालकिनी। बेलपत्र हम बोझक बोझ आनि देब। जतेक भोला बाबा भकोसता ओतेक आनि देब। लेकिन भोलो बाबा अजीबे के भगवान छथि। अरे अन्न-पानि खेबे नहि करैत छथि, काजू-किसमिस, छाल्ही-खोआ, खाजा-मुँगबा, भात आ उलबा राहड़ि के दालि, तिलकोर के तरुआ, बर-बरी, तीमन-तरकारी – एतेक निम्मन-निम्मन चीज सब अछि से हुनका नीके नहि लगैत छन्हि। कम सँ कम दहियो-चूड़ा-चिन्नी, हरियर मिरचाई जौरे त खाय के देखितथिन आ कि खाली भाँग, बेलपत्र खेता? ई कोनो बात भेलैक? पगलेट भगवान बुझाइत छथि। बाकी अहाँ निश्चिन्त रहू मालकिनी, हम जतेक बेलपत्र ओ खेता ततेक बोझक-बोझ आनि देब।
 
विद्यापतिक पत्नी – उगना! आब तूँ जरूरत सँ अधिक आगू बढल जा रहल छँ। रे हम सब जाहि भगवान भोलेनाथ केर आराधना करैत छी हुनकर तूँ अपमान करबुहुन? ठीक नहि हेतउ नहि त भाग एतय सँ। दुराचारी! तोहर जीह नहि गलि गेलौक हुनकर अपमान करैत!
 
उगना – (हँसैत) ओना हम अहाँ के सामने सँ भागि जाइत छी, बाकी हम हुनका किछो नहि कहलियनि हँ। अनेरुआ रहय सँ कनी मुंहफट्ट अबस्स भऽ गेल छी तेँ बिना धोती-कुर्ता पहिरेने बोल-वचन बजा जाइत अछि। आ ई बातो सत अछि कि नङ्गटे बात निम्मन लोक सब के नीक लगबो नहि करैत छैक। छय कि नहि मालकिनी? बाकी एखन हम भागि जाइत छी। एखन अहाँ के मोन हमरा पर खखुआयल अछि। (हँसैते भागि जाइत अछि)
 
विद्यापतिक पत्नी – (स्वगत) जखन पागल आ मचन्ड केँ नौकर रखता त यैह सब न होयत। आइ भोलेशंकर केर अपमान कयलक अछि, काल्हि केकरो आर के करत। परसू हमरो सभक अपमान करत। एकरा भगइये दय मे कुशलता अछि। आइ जँ ओ एकरा नहि भगेता त हमरे एकरा भगाबय के कोनो उपाय ताकय पड़त। छूट के मतलब ई नहि जे माथे पर चढिकय बैसि जाय! ओ त हमेशा बाहर रहैत छथि, भोगय त हमरा पड़ि रहल अछि न। (बरामदा पर क्रोध मे किछु क्षण बैसि जाइत छथि आर अपने आप बड़बड़ाइत रहैत छथि, तखन संजीवनी अबैत अछि आर बाजय लगैत अछि)
 
संजीवनी – अनर्थ भऽ गेलय मालकिनी। अन्हेर भऽ गेलय।
 
विद्यापतिक पत्नी – (चौंकिकय) कि भऽ गेलय संजीवनी? कियैक पसेना सँ नहायल छँ? अँय! तू एतेक क्रोध मे कियैक छँ? अरे किछ बजबो करमें आ कि खाली विफरैते रहमें?
 
संजीवनी – जे आइ धरि नहि भेल छल ओ अहाँक ई पागल नोकर आइ कय देलक। सौंसे गाम मे खलबली मचि गेल अछि।
 
विद्यापतिक पत्नी – कि केलकय संजीवनी? केकरो संगे छू-छा केकलैक की?
 
संजीवनी – शिव! शिव!! एहेन बात नहि छैक।
 
विद्यापतिक पत्नी – तखन? आर कि केलकैक? बजबो त कर! खाली दुविधा मे दय कय कियैक सशंकित कय रहल छँ?
 
संजीवनी – हम डीह पर गाय चरा रहल छलहुँ। हमरा संगे गंगोली, तमुरिया, लोथवा, कूटना, बलेसरा, लुतिया सब सेहो गाय चरा रहल छलय कि एकाएक अहाँक नोकर उगना सेढा दिश सँ बरद पर चढिकय ओकरा उमकाबैत गाछी दिश जा रहल छलय। ओकरा बरद पर बैसल जे जतय देखलक ओतहि गुम्म रहिकय ठाढ़े रहि गेल। मालकिनी! कहू त कतहु एहनो होइत छैक? बरद पर कियो बैसैत छैक? हरे! हरे!! ओहो आइ शिवराति के दिन! सब कियो शिकायत कय रहल अछि जे अहाँ केहेन नोकर राखि लेने छी जे बरद पर चढिकय घुमैत अछि। कियो बजैत छैक त मारिपीट पर उतारू भऽ जाइत अछि। ईहो कोनो बात भेलैक जे जेकर पूजा सब करैत अछि ओहिपर सवारी कियो करय! मालिक भोला बाबाक पूजा करैत छथि आ नौकर ओहि भोला बाबाक अपमान करय। ओह! घोर कलियुग आबि गेल अछि। एहि बातक शिकायब बहुत लोक अहाँ सँ करत। यैह कहय आयल छलहुँ।
 
विद्यापतिक पत्नी – (तामस मे उगना पर विफरैते) आइ हम ओकर प्राण लय लेबय। हे भगवान्! कतय सँ एकरा हमर माथा पर पटैक देलहुँ! दुर्बुद्धि त हिनका आबि गेलनि जे एहि पागल केँ राखि लेलनि। आब कि करू हे भोलेनाथ! (माथा पकड़ि लैत छथि, फेर क्रोध सँ माथा उठबैत) आब बहुत भऽ गेलय। आब एकरा एको दिन लेल राखब अपन अहित करब होयत। ई गेला कतय भोर सँ? कोन काज आबि गेलनि हिनका आइये? आइ शिवराति छी आर भोजन नहि करक अछि त एकर अर्थ ई नहि भेलय जे सायं-पूजाक व्यवस्था तक नहि देखथि? खैर! ई कतहु रहथि, हम उगना केँ आइ भगइयेकय दम लेब। (बैस जाइत छथि आर संजीवनी सेहो चलि जाइत अछि)
 
पटाक्षेप
 
उगना-विद्यापति (नाटक)
 
दृश्य ६
 
(विद्यापतिक घर, विद्यापतिक पत्नी साँझक पूजा लेल ठाउं-पीढी कय रहली अछि आर संगहि उगना पर सेहो मोनेमन तामस सँ बजने जा रहली अछि।)
 
विद्यापतिक पत्नी – हे भोलेनाथ! कतय सँ एहि पागल केँ हमरहि माथा मढि देलहुँ। आइ शिवरातिक दिन जखन सब कियो अहाँक पूजा मे लागल अछि तखन हमर घर मे हमर नोकर अहाँक अपमान कयलक अछि। क्षमा करब हे भोलेनाथ! ई पागल अछि, लेकिन एकरा राखक दोख त हमरे थिक। दोषी त हमहीं सब छी। (एकाएक खड़खड़ाहटक आवाज पर पाछू दिश बैसले-बैसल घुमिकय देखैत छथि, किछु नहि रहला पर अरिपन ऊपर सिन्दूर लगबैत क्रोधहि मे) आखिर गेल कतय ई पागल? साँझ भऽ गेल, नहिये बरद लय कय आयल आ नहिये बेलपत्र अनलक। कतहु बरद लय कय भागि त नहि गेल? बताहे अछि, कोन ठेकान। आइ आबय त हम खबरि लैत छी। ईहो कतय चलि गेलाह पता नहि! जाय कय तकबो करितहुँ एहि बताह केँ… किछु बुझय मे नहि अबैत अछि जे कि करू।
 
(गुम भऽ कय तामस मे हाथ रोकि लैत छथि। ता धरि उगना प्रवेश करैत अछि। मोटका रस्सी मे तीन टा बड़का-बड़का बोझ मे बेलपत्र जमीन पर घिसियाबैत आनि रहल अछि।)
 
उगना – लियह मालकिनी! दू टा बेलक गाछे पाँगिकय आनि देलउ हँ। खाली फुनिगठे टा छोड़ि देलउ हँ, बाकी सब ठहुरी सब पाँगिकय आनि देलउ हँ। एतबहु मे यदि भोला बाबाक पेट नहि भरत त बाकी पाँच टा गाछ आरो देखिकय आबि गेल छी। ओकरो पाँगिकय आनि देब। देखी जे कतेक खाइत छथि ओ। छलय त आरो दू बोझ बेलपत्ता, मुदा ई बरदबा बड़ लोभी भऽ गेल अछि। चरनाय-उरनाय छोड़िकय ओहो बेलपत्रे खाय लागल। आधा त वैह खा गेल। बाकी जे बचि गेल से सब लेने एलउ हँ। हम त गाछे पर छलहुँ, नीचा एलउँ त देखलहुँ जे ओ खा रहल अछि। हम ऊपर सऽ डपटितो रहियै आ भागय ल कहियैक त कन्हुआकय ऊपर दिशका खाली डिम्हा उठा लैत छलय, आ खेनाइयो नहि छोड़ैत छलय। हमहूँ अकछा कय कहलियैक जे खा ले बौआ, फोकट के माल छउ, जतेक खेबाक छउ खाय ले। जल्दी-जल्दी उतरियो नहि सकैत छलहुँ, बहुते काँट सब छलैक ठहुरी सभक जैड़ मे। तखन छोड़ि देलियैक जे ईहो पेट भरि खायत, हम त गाछ पर चढले छी आउर पाँगि लेब। बाकी मारबो कोना करितियैक। ओहो त हमरे पोस मानैत अछि, दयो न मोन मे आबि गेल, तेँ छोड़ि देलियैक खाइक लेल। जे बचल से घिसियेने एलउ हँ। ईहो कि थोड़बे न कम भेल?
 
विद्यापतिक पत्नी – (कनीकाल चुप रहिकय, फेर तामस सँ भरल) उगना! मुंह पर लगाम दे। बहुत बर्दाश्त केलियउ तोरा बताह बुझिकय। तूँ बताह कम आ बदमाश बेसी छँ। भागि जो एतय सँ आब। एहि घर मे तोरा लेल कोनो जगह नहि छौक। भैर जीवन जाहि भोलेनाथ केर अर्चना हम सब कियो कयलहुँ, तूँ हुनकर आइ बेर-बेर अपमान कयलें हँ। हमर बरदक पीठ पर बैसिकय तूँ आइ ओकरा दौड़ेलें हँ। आब हम बर्दाश्त नहि करबौक। चाहे एकर परिणाम जे हो! तूँ भागि जो, आ एखनहि भागि जो।
 
उगना – भागि त हम जेबे करब मालकिनी, अनेरुआ छी न, कोनो एकटा जगह पर खुट्टा गाड़िकय रहबो नहि करैत छी। बहुते घर छैक। काज के कतहु कमी नहि छैक। बाकी बिना मालिक के कहने हम नहि जायवला छी। मरदबाली बात छैक। मरदे-मरदी बात करब। अहाँ त हमरा पहिलुके दिन सँ भगा रहल छी। अहाँ के बात पर भगितहुँ त कहिया न भागि गेल रहितहुँ। बाकी मालिक हमरा नौकरी पर रखलाह। मालिके भगेता तखन हम भागब, ओना नहि भागब। आ मालिक हमरा भगेबे नहि करताह। ओ बड निम्मन लोक छथि। अहीं बड खखुआइत छी।
 
विद्यापतिक पत्नी – (क्रोधित होइत) लुच्चा! बदमाश! पगला! अनेरुआ! उचक्का! आब हम एको पल तोरा एहि घर मे नहि रहय देबउ। घर हमर छी कि तोहर? भाग एतय सँ। एखन भाग एतय सँ। एखन भाग। रौ, भागय छँ कि नहि? (उगना चुपचाप हँसैत ठाढ़ अछि, विद्यापतिक पत्नी क्रोध मे बिगड़ैत जाइत छथि) नहि भगमे त आइ मारि-मारिकय तोरा एहि घर सँ भगेबउ।
 
(बगल सँ झाड़ उठाकय मारय दौड़ैत छथि, उठाकय प्रहार करहे लगैत छथि, ता धरि विद्यापति प्रवेश करैत छथि)
 
विद्यापति – (जोर सँ हल्ला करैत) ई कि अनर्थ कय रहल छी दुल्लहि माय?
 
विद्यापतिक पत्नी – अहाँ चुप रहू, एहि पागल सँ आइ छुटकारा पाबइये पड़त।
 
(जा धरि विद्यापति दौड़िकय आबितथि, हुनकर पत्नी उगना पर प्रहार कय दैत छथिन।)
 
विद्यापति – हाँ-हाँ-हाँ-हाँ!! अनर्थ भऽ गेल! अनर्थ कय देलियैक अहाँ दुल्लहि माय!! हमरा सोझाँ अहाँ भोलेशंकर केर अपमान कय देलहुँ। हे भगवान् – कि होइवला अछि?
 
(उगना अन्तर्धान भऽ जाइत अछि)
 
विद्यापति – अरे उगना? कतय चलि गेलें? उगना? उगना?? (दौड़िकय दरबज्जा दिश जाइत छथि) उगना! उगना!! (दौड़िकय भीतर अबैत छथि) उगना! उगना!! (दौड़िकय घर आ बाहर करैत चिकरैत रहैत छथि) उगना! उगना!! (बेहोश भऽ कय खसि पड़ैत छथि, आर कनीकालक बाद फेर उठिकय दरबज्जा दिश दौड़ैत छथि) उगना! उगना!! (विद्यापतिक पत्नी ई सब देखि हतप्रभ – चुपचाप ठाढ़ रहि जाइत छथि, फेर ओ विद्यापति केँ सम्हारबाक प्रयत्न करैत छथि मुदा विद्यापति हुनकर हाथ झमारिकय छोड़बैत बाहर दिश भागैत छथि) उगना!! उगना!! उगना!! उगनाऽऽऽऽऽऽऽऽऽ!!
 
(बहुत रास लोक सब जमा भऽ जाइत छथि)
 
आदित्य – हरे! हरे!! ई कि भेलनि विद्यापति काका केँ?
 
विक्रम – शायद बताह भऽ गेलाह।
 
अखिलेश – एखनहि त भला-चंगा छलाह? क्षण भरि मे कि भऽ गेलनि?
 
आशु – कतेक नीक हमरा संग किछुकाल पूर्व बात कय रहल छलाह। पागलपनक कोनो लक्षण नहि छलन्हि।
 
अमर – अरे! भगवानक लीला बड़ा विचित्र छन्हि।
 
रामकिशोर – हँ भाइ, एकदम सही कहि रहल छँ।
 
विद्यापति – (एकाएक गाम सँ बाहर दिश भगैत छथि) उगना! उगनाऽऽ! अरे कतय छँ रे? कियैक नुका गेलें? तोरा कियो नहि मारतउ उगना! भोलेशंकर कहाँ छी? उगना? उगना?? (भागल जा रहल छथि, गाम सँ बाहर आबि दुइ व्यक्तिक आगू आबि एकाएक रुकिकय) औ जी सूर्यकान्त – एम्हर हमर उगना केँ कतहु देखलहुँ की?
 
सूर्यकान्त – ओ त बरद लय केँ घरहि दिश गेल छल?
 
विद्यापति – (कसिकय हुनका पकड़िकय) तखन तूँ हमर उगना केँ जरूर देखलहक। कने हमरा ओकरा लग लेने चलह, बड़ पैघ उपकार हेतह सूर्यकान्त तोहर। हमरा अपन उगना सँ भेटा दय। (फेर ओकरा छोड़ि आगू दिश भगैत छथि) उगना! उगना! उगना!! उगनाऽऽऽ!! (एकटा गाछ केँ पकड़िकय) अरे, तूँ त एतहि ठाढ़ छह। हमर उगना केँ कतहु देखलह की? (फेर ओकरो छोड़िकय भागैत) उगनाऽ – उगनाऽऽ – उगनाऽऽऽ – उगनाऽऽऽऽ (कहैत ओ खसि पड़ैत छथि)
 
पटाक्षेप
 
उगना-विद्यापति (नाटक)
 
दृश्य ७
 
(जंगल केर दृश्य, एक जटा बढेने साधू अपन कुटियाक सोझाँ ठाढ़ रस्ता दिश ताकि रहल छथि, विद्यापति अस्त-व्यस्त अवस्था मे पागल जेकाँ उगना-उगना करैत भागल आबि रहल छथि… गबैत छथि)
 
विद्यापति –
उगना रे! मोरा कतय गेलाह,
कतय गेला शिव कीदहु भेलाह!
उगना रे!….
 
भाँग नहि बटुआ रुसि बैसलाह,
जोहि हेरि आनि देल हँसि उठलाह!
उगना रे!…
 
जे मोरा कहता उगना उदेस,
ताहि देबओं कर कंगना ओ भेस!
उगना रे!…
 
नन्दन वन बीच भेटला महेस,
गौरि मन हर्खित मेटल कलेस!
उगना रे!….
 
भन विद्यापति उगना सँ काज,
नहि हितकर मोरा त्रिभुवनराज!
उगना रे!….
 
(पुनः साधू केँ एकाएक भरि पाँज पकड़िकय…)
 
विद्यापति – (साधूक पैर छनने) बाबा! बाबा!! अहाँ हमर उगना केँ एम्हर जाइत देखलहुँ की?
 
साधू – (स्वगत) ई प्राण त्यागि लेत! हमहुँ कि कय सकैत छी! वचनबद्ध छी!! फेर सँ त ओहि रूप मे जा नहि सकैत छी, मुदा एकर रक्षा त करहे टा पड़त। भक्त केँ त बचाबहे टा पड़त। (जोर सँ) केकरा ताकि रहल छह?
 
विद्यापति – उगना केँ यौ बाबा! उगना केँ देखा दिअ। उगना सँ भेटा दिअ।
 
साधू – ओ के छलह? केहेन छलह? कतय चलि गेलह? किछो त कहबह? हम कने ऊँच सुनैत छी।
 
विद्यापति – उगना? उगना केँ नहि जनैत छियैक? हाहाहा! हाहाहा!! उगना केँ जनैत छियैक! भोलेशंकर केँ नहि जनैत छियैक? हाहाहा! हाहाहा!! महादेव केर रूप केहेन छलनि? महादेव केँ नहि जनैत छियैक? हाहाहा! हाहाहा!! (फेर एकाएक कानय लगैत छथि) उगना! उगना!! बाबा, हमरा उगना सँ भेटा दय बाबा। हमर भोलेनाथ सँ हमरा भेटा दय बाबा!!
 
साधू – (स्वगत) ई पागल भऽ गेल। ई प्राणान्त कय लेत। अच्छा, किछु उपाय करी। (जोर सँ) एक चरबाहा जेहेन आदमी केँ तोरा अलावे एहि जंगल मे भगैत हम देखने रही। तोरा आ ओकरा सिवाये आइ भैर दिन मे हम केकरो नहि देखलहुँ।
 
विद्यापति – हँ, हँ, कतय अछि ओ? वैह हमर उगना छी। कतय अछि ओ? हमर उगना केँ हमरा देखा दिअ।
 
साधू – काल्हि भोरे फेर ओ एतय आओत। तोरा भेटबा देबह। ता धरि एहि कुटिया मे राति बिताबह। जंगल मे कतय जेबह! ओ गाम गेलह हँ। भोरका समय फेरो एतह।
 
विद्यापति – आयत न हमर उगना बाबा? सच-सच कहू, आयत न? हमरा भेटा देब न?
 
साधू – हाँ, ओ एतह, आ निश्चिते एतह। तूँ आराम करह ता धरि। लैह! ई फल खाह आर शीतल जल पीबह। कि दशा बना लेलह हँ तहूँ।
 
(विद्यापति पागल जेकाँ फल खाइत छथि आर पानि पिबैत पिबैत नीन्द केर झपकी जेकाँ लेबय लगैत छथि, आर क्षणहि भरि मे गहींर निन्द्रा मे सुति रहैत छथि। पर्दाक पाछू प्रकाश पर शंकर अवतरित होइत छथि आर सुतल विद्यापति केँ उपदेश दैत छथि।)
 
शंकर – कियैक पागल बनैत छी भक्त विद्यापति? अहाँ विद्वान् छी। अहाँ केँ पता अछि जे हम अपन वचन निभेलहुँ अछि। अहाँ केँ पता अछि हम अप्रत्यक्ष रूप सँ सदिखन अहाँक संग छी। वचनबद्ध सेहो छी। अहाँ ईहो जनैत छी जे अन्तकाल हम अहाँ केँ बजाबय लेल अपनहि आयब। फेर ई पागलपन केहेन? अहाँक धर्मपत्नी विलैख रहली अछि। बच्चा सब कानि रहल अछि। आर अहाँ विद्वान् भऽ कय पागल बनि रहल छी? जाउ, कतहु रहिकय हमर पूजा करू। किछु दिनक बाद हम अहाँ केँ बजाबय लेल अपनहि आयब। समय कम अछि, आर अहाँ केँ किछु लिखय लेल सेहो बाकी अछि। पागलपन छोड़ू आर हमर ध्यान करू।
 
(पाछू घुमिकय)
 
शंकर – अहाँ कियैक कनैत छी? अहाँक पति एखन जीवित छथि। ओ आबि रहला अछि। हम चलि एलहुँ एहि मे अहाँक कोनो दोख नहि। सबटा समय केर खेल थिक। पूर्वजन्मक कर्म अहाँ केँ केवल माध्यम बनय लेल उकसा देलक। ओ पाप केँ कटबाक रहैक, एहि माध्यम सँ कटि गेल। कानू जुनि। नियति पर भरोसा राखू। जा रहला अछि अहाँक पति। गाम सँ सटले शिव मन्दिर मे ओ पूजा कय रहला अछि।
 
(महादेव अन्तर्धान भऽ जाइत छथि, पर्दा खसैत अछि, आर फेर उठैत अछि। विद्यापति गामक बगलहि एक छोट मन्दिर मे शिवलिंग पर माथा टेकने पूजा मे तल्लीन छथि। विद्यापतिक पत्नी दौड़ैत-हाँफैत अबैत छथि आर विद्यापतिक पैर पर खसैत विलाप करैत छथि।)
 
विद्यापतिक पत्नी – नाथ! नाथ! दोषी हम छी। विनाशक कारण हम छी। अभागिन छी। पापी छी।
 
विद्यापति – नहि, नहि! छोड़ू पैछला बात केँ। पूजा करू।
 
(दुनू गोटे शिवलिंग केँ पकड़िकय माथा टेकैत छथि)
 
पटाक्षेप
 
उगना-विद्यापति (नाटक)
 
तृतीय खण्ड
 
अङ्क १ – दृश्य १
 
(पुष्पोद्यान् – विद्यापति फूल तोड़ि-तोड़िकय फूलडाली मे रखैत छथि आर आत्मविभोर भऽ कय गाबि रहल छथि)
 
आहे तोड़ब कुसुम लोढ़ब बेलपाते
आहे पूजब सदाशिव गौरीक नाथे
कओन विधि ना
शिव होऽऽ उतरब पार कओन विधि ना!!
 
बसहा चढ़ल शिव फिरए मसान
भंगिया जरल वेदन नहि जान
कओन विधि ना
शिव होऽऽ उतरब पार कओन विधि ना!!
 
जप तप नहि, नहि कयलहुँ दान
बीति गेल तिपन करैत आन
कओन विधि ना
शिव होऽऽ उतरब पार कओन विधि ना!!
 
भनहिं विद्यापति सुनु हे महेस
निर्धन जानि मोहि हरहु कलेस
कओन विधि ना
शिव होऽऽ उतरब पार कओन विधि ना!!
 
(गबिते शिवालय दिश चलि पड़ैत छथि, बीच रस्ता मे…)
 
नन्दू – प्रणाम मालिक!
 
विद्यापति – जय भोलेनाथ! कुशल-मंगल सँ छँ न नन्दू?
 
नन्दू – सब भोलेनाथ केर कृपा अछि मालिक। मालिक, एतेक सबेरे नहि न उठल करू। बुढापा वला शरीर छी। ठंढा लागि जायत।
 
विद्यापति – नन्दू! ठंढ नहियो लागत तैयो एहि शरीर केँ आब जेबाके छैक। जर्जर वस्त्र लय आत्मा आब घुमय-फिरय लायक नहि रहि गेल। वस्त्र केर नहि चाहलो सँ कि हेतैक? आत्मा केँ त वस्त्र बदलहे के छैक। तोहर खोंखी केहेन छौक?
 
नन्दू – मालिक, हमहुँ त आब बुढाए गेल छी। बुढा शरीर जा धरि संग दय रहल अछि ता धरि दय रहल अछि। आब त भोलेनाथ आर हुनकर गंगाजल टा आसरा अछि।
 
विद्यापति – (भोलेनाथ आर गंगाजल शब्द सुनिकय विद्यापतिक आँखि भरि जाइत छन्हि) सच्चे कहैत छँ नन्दू, तूँ एकदम सच कहि रहल छँ। हे भोलेनाथ! हे भोलेशंकर! हे त्रिभुवननाथ!! (बैसि जाइत छथि)
 
(कामेश्वर बाबू, राजेश्वर बाबू, लक्ष्मीश्वर बाबू लोकनिक प्रवेश। सभक हाथ मे फूल आ लोटा मे अछिञ्जल छन्हि)
 
कामेश्वर बाबू – (विद्यापति केँ सम्बोधित करैत) भाइसाहब, कुशल सँ छी न?
 
विद्यापति – भोलेनाथ केर कृपा अछि।
 
राजेश्वर बाबू – महाशिवरात्रि कहिया पड़त भाइजी?
 
विद्यापति – निरन्तर, हर दिन, हर क्षण शिवरात्रिये त अछि भाइ। भोलेनाथ केर पूजाक लेल दिन कि आ राति कि! तिथि आर लगन कि!
 
लक्ष्मीश्वर बाबू – (हँसैत) भोले भाइजी केँ अपना लेने छथिन।
 
विद्यापति – (तन्मय भाव सँ गाबय लगैत छथि)
 
कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ।
 
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल
सुख सपनहु नहि भेल हे भोलानाथ।
 
एहि भव सागर थाह कतहु नहि
भैरव धरु करुआर हे भोलानाथ।
 
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहु अभय बर मोहि हे भोलानाथ।
 
(गबैत-गबैत बेहोश भऽ जाइत छथि)
 
सरोज – अरे, दौड़ू-दौड़ू… पानि आनू। बाबा बेहोश भऽ गेलाह। बाबा केँ किछु भऽ गेलनि।
 
(पानि लेने दौड़िते कौशल केर प्रवेश। पानिक छींट मारैत अछि। विद्यापति ‘शिव-शिव’ करैत उठि बैसैत छथि।)
 
विद्यापति – (कनीकाल मौन रहिकय) शिव! शिव!! आब समय बहुत कम रहि गेल अछि बन्धुगण। बच्चा लोकनि, आब हमरा चलबाक अछि। बहुत कृपा होइत जँ हमरा गंगा कात धरि हमरा पहुँचेबाक कृपा करितहुँ। हम गंगा माइ केर कोरा मे निश्चिन्त भऽ कय सुतय चाहैत छी। माँ सेहो हमरा बजा रहल अछि। शिव-शिव! आब हम चलब। (उठिकय ठाढ़ भऽ जाइत छथि)
 
अजय – देखू-देखू! विद्यापति काकाक मुखमंडल पर केहेन दिव्य आभा आलोकित भऽ रहल अछि।
 
सरोज – हम एखन तुरन्त कहरिया सब केँ बजा अनैत छी। बाबा केँ गंगा तट धरि पहुँचेबाक अछि। खड़खड़िया सँ गंगा कात धरि पहुँचेबाक भार ई हमरहि देने छलाह। हम एखनहि खड़खड़िया आ ६ गो कहरिया लय कय अबैत छी।
 
(सरोज तेजी सँ चलि जाइत अछि, कनियेकाल मे सजल-सजायल खड़खड़िया लय केँ कहरिया सब उपस्थित भऽ जाइत अछि।)
 
पटाक्षेप
 
दृश्य २
 
(महेन्द्र आ भोगेन्द्र के प्रवेश)
 
भोगेन्द्र – चलह – चलह भैया, मालिक गंगा कात लेल जा रहल छथि। चलह हुनका विदाह करय। फेर मालिक अओता कि नहि अओता। दर्शन कय लह। विदाह कय दहुन।
 
महेन्द्र – विदाह कियैक हौ? हम त हुनका संगे गंगा कात धरि जायब।
 
वकील – हमहुँ चलबह भैया।
 
महेन्द्र – चलह! चलह!!
 
(गंगेशक प्रवेश)
 
गंगेश – चलह, चलह भैया सब।
 
(बाबा केँ पहुँचेबाक आ विदाह करबाक वास्ते पूरा गामक लोक मन्दिर पर उमड़ि पड़ल अछि)
 
सब गोटे सम्मिलित स्वर मे बजैत अछि – चलह! चलह!! हुनकर दर्शन लेल चलह।
 
(मन्दिर पर पूरे गामक लोक उमड़ि पड़ल अछि। सब एक-एक कय केँ विद्यापति केँ पैर छुबि प्रणाम करैत अछि। विद्यापति सब केँ आशीर्वाद दैत छथिन।)
 
विद्यापति – हे हमर स्वजन-परिजन! बच्चा आ समस्त बन्धुगण! अहाँ सभक स्नेह-प्रेम लय केँ गंगा माइ लग जा रहल छी। अहाँ सभक स्नेह और प्रेम हमर मार्गदर्शन करैत आयल अछि। आर अन्तहु धरि ई संगहि अछि। अहाँ सब गोटे खूब प्रसन्न रहू। आब हमरा आज्ञा दिअ। समय कम अछि। दूरी बहुत अछि। चलह भाइ कहरिया लोकनि। जल्दी हमरा माइ लग पहुँचाबह। बड़ी कृपा हेतह। शिव! शिव!! (हाथ जोड़िकय सब गोटे केँ प्रणाम करैत छथि, कहरिया चलि पड़ैत अछि)
 
सब मिलिकय सामूहिक स्वर मे – हमहुँ सब चलब अहाँक संग अरियातय लेल। (आर सब डोलीक पाछू-पाछू दौड़य लगैत अछि)
 
पटाक्षेप
 
दृश्य ३
 
(स्थान मउ बाजितपुर गाम, कहरिया डोला रखैत)
 
एक कहरिया – बहुत थाकि गेल छी आर साँझो पड़ि गेल। रस्तो ठीक नहि अछि। मालिक सेहो थाकि गेला अछि। राति भैर एतहि विश्राम कय केँ काल्हि भोरुकबे अन्हारे चलि देब। आब गंगा मैया सेहो नजदीके त छथि।
 
विद्यापति – यथार्थता अछि जे हमहुँ थाकि गेल छी। लगैत नहि अछि जे गंगा माइक समीप हम पहुँचि सकब। समय एकदम नजदीक आबि गेल अछि। (डोला सँ बाहर आबि ध्यानमग्न भऽ बैसि जाइत छथि, किछु कालक बाद विहुँसैत) माँ क्रूर नहि होइत छथि, ओ त स्वयं सन्तानक लेल दुःख सकैत छथि। पुत्र मायक दर्शन लेल एतेक दूर आबि सकैत अछि त कि माय पुत्रक लेल, एक असहाय-अथबल पुत्रक लेल, निःशक्ति पुत्र केँ कोरा मे उठाबक लेल किछु दूर नहि चलि सकैत छथि की? ओ अवश्य अओती। माँ हमरा कोरा मे उठाबय जरूर अओती।
 
(ध्यानस्थ भऽ जाइत छथि, प्रातःकालक दृश्य बदलैत अछि आर विद्यापति ध्यानमग्न मुद्रा मे बैसल छथि, कलकल ध्वनि सुनाय दैत अछि।)
 
एक कहरिया – देखह! देखह!! गंगा माय कतेक तेजी सँ बहैत एम्हर आबि रहली अछि!! अरे!! अरे!! मालिकक देह सँ सटिकय, देखह… देखह… आगू बढि गेलीह बहैते। धन्य हो हे गंगा माय, तोहर महिमा अपरम्पार छह।
 
(सभक सब गंगा आर विद्यापति केँ प्रणाम करैत अछि)
 
विद्यापति – (आँखि खोलिकय) आबि गेलहुँ माँ! अहाँ पुत्र केँ लय लेल!! हमरा विश्वास छल। अहाँ जरूर आयब। पुत्र कानय आ माय ओकरा चुप नहि कराबय, ई भ’ए नहि सकैत अछि। अहाँ पुत्रक आवाज सुनि लेलहुँ। पुत्र अहाँक जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहत। (गंगाजल स्पर्श कय माथा सँ लगा लैत छथि आर गंगा मे प्रवेश करैत छथि, तथा तन्मयभाव सँ गबैत छथि)
 
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे
छाड़ैत निकट नयन बह नीरे
कर जोड़ि विनमओं विमल तरंगे
पुनि दरसन होअ पुनमति गंगे
कि करब जप तप जोग धेआने
जनम कृतारथ एकहि स्नाने
एक अपराध छेमब मोर जानी
परसल पाय माय तुअ पानी
कवि विद्यापति समदओं तोंही
अन्त समय जनु बिसरब मोही
 
(आँखि मुंदिकय पूजा मे लीन भऽ जाइत छथि, जोर सँ बजैत…)
 
विद्यापति – भोलेनाथ! भोलेनाथ!!
 
(एकाएक महादेव प्रकट होइत छथि)
 
महादेव – हम आबि गेलहुँ भक्त विद्यापति। हम आबि गेल छी अपन वचन निभेबाक लेल। आँखि खोलू भक्त। देखू, हम अहाँ केँ लेबय स्वयं आयल छी। चलू-चलू!! समय भऽ गेल अछि। समय भऽ गेल अछि वत्स, चलू!!
 
विद्यापति – (आँखि खोलिकय भोलेनाथ केँ प्रणाम करैत छथि) हम धन्य भेलहुँ हे प्रभु अहाँक दर्शन पाबि, कृत्य-कृत्य भेलहुँ। कृपा कय केँ आब अपने हमरो अपनहि मे समेटि लिअ हे भोलेनाथ। दानी। भोलेशंकर। त्रिभुवननाथ। अकिंचन केँ स्वयं मे मिला लिअ।
 
(दुनू हाथ जोड़िकय प्रणाम करैत छथि, भोलेनाथ दिश आँखि मुंदिकय ध्यानमग्न भऽ जाइत छथि। देवाधिदेवक हाथ सँ ज्योति निकलैत अछि आर विद्यापतिक शरीर धरि पहुँचैत अछि, गंगाक उछाल आ गड़गड़ाहटक संग एकाएक ऊपर उठैत अछि तथा शिव आलोक और गंगाजल उछाल मे विद्यापति विलीन भऽ जाइत छथि।)
 
समाप्त
 

हरिः हरः!!