मैथिली सुन्दरकाण्डः हनुमान्‌जी केर अशोक वाटिका मे सीताजी केँ देखिकय दुःखी होयब आर रावण केर सीताजी केँ भय देखायब

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

हनुमान्‌जी केर अशोक वाटिका मे सीताजी केँ देखिकय दुःखी होयब आर रावण केर सीताजी केँ भय देखायब

युक्ति विभीषन सब सुनेलनि। चलथि पवनसुत विदाई लेलनि॥
कय वैह रूप गेला फेर ओहिठाँ। वन अशोक सीता रहथि जहाँ॥३॥
भावार्थ : विभीषणजी द्वारा (माता केर दर्शनक) सब युक्ति (उपाय) कहल गेल। तखन हनुमान्‌जी विदाई लय केँ चललथि। फेर ओ (पहिने केर मच्छड़ समान छोट) रूप धय केँ ओतय गेलाह, जाहि अशोक वन (वन केर जाहि भाग मे) सीताजी रहथि॥३॥
देखि मनहि मे कयल प्रणाम। बैसलि बीति जाय निशि याम॥
दुब्बर देह सिर केस जटा सन। जपथि हृदय रघुपति गुण सदिखन॥४॥
भावार्थ : सीताजी केँ देखिकय हनुमान्‌जी ने हुनका मनहि सँ प्रणाम कयलनि। हुनका बैसले-बैसल रात्रिक चारि पहर बीति जाइत छल। शरीर दुब्बर भऽ गेल छल, माथ पर केस जटा समान भऽ गेल छल। हृदय मे ओ सदिखन श्री रघुनाथ जीक गुण समूह केर जाप (स्मरण) करैत रहैत छलीह॥4॥
दोहा :
निज पद नयन धेने मन राम पद कमल लीन।
परम दुःखी भेला पवनसुत देखि जानकी दीन॥८॥
भावार्थ : श्री जानकीजी अपन आँखि अपनहि पैर मे लगौने छलीह (नीचाँ दिशि ताकि रहल छलीह) और मन श्री रामजी केर चरणकमल मे लीन छल। जानकीजी केँ दीन (दुःखी) देखिकय पवनपुत्र हनुमान्‌जी बहुते दुःखी भेलाह॥८॥
चौपाई :
तरु पल्लव मे रहला नुकायल। करैत विचार जाय कि कायल॥
तखनहि रावण ओतय आयल। संग ओकर कते स्त्री सजायल॥१॥
भावार्थ : हनुमान्‌जी गाछक पात मे नुकायल रहला आर विचार करैत रहला कि आबि कि करू (जाहि सँ हिनकर दुःख दूर करी)।  ताहि समय बहुते रास स्त्रि लोकनिक संग सजि-धजिकय रावण ओतय आयल॥१॥
बहु विधि दुष्ट सीता समझाय। साम दान भय भेद देखाय॥
कह रावण सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥२॥
भावार्थ : ओ दुष्ट सीताजी केँ बहुतो प्रकार सँ बुझेलक। साम, दान, भय और भेद देखेलक। रावण कहलक – हे सुमुखि! हे सयानी! सुनू! मंदोदरी आदि सब रानी केँ -॥२॥
अहाँक अनुचरीं ई प्रण थिक मोर। एक बेर बिलोकु मोरा ओर॥
तृन धय ओट कहथि बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥३॥
भावार्थ : हम अहाँक दासी बना देब, ई हम प्रण थिक। अहाँ एक बेर हमरा देश देखू त सही! अपन परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्र जी केँ स्मरण करैत जानकीजी तिनका ओट (परदा) कय केँ कहयल लगलीह – ॥३॥
सुन दसमुख भगजोगनी प्रकाश। किन्नहु होइ कमलिनी विकास॥
यैह मन बुझे कहथि जानकी। दुष्ट न जान रघुवीर बाण की॥४॥
भावार्थ : हे दशमुख! सुन, भगजोगनीक (भुकभुकिया) प्रकाश सँ कहियो कमलिनी (फूल) फुला सकैत अछि? जानकीजी फेर कहैत छथिन – तूँ (अपना लेल सेहो) एहिना मन मे बुझि ले। रे दुष्ट! तोरा श्री रघुवीरजीक बाण केर खबरि नहि छौक॥४॥
रे पापी हरि अनलें तूँ सून मे। अधम निर्लज्ज लाज नहि मन मे॥५॥
भावार्थ : रे पापी! तू हमरा सूनसान मे हरि अनलें हँ। रे अधम! निर्लज्ज! तोरा लाज नहि अबैत छौक?॥५॥
दोहा :
अपना सुनि भगजोगनी सम राम केँ सूर्य समान।
कड़ा बोल खिसियाय कय तरुआरि केँ तान॥९॥
भावार्थ : अपना केँ भगजोगनी केर समान और रामचंद्रजी केँ सूर्य केर समान सुनिकय आ सीताजी केर कठोर वचन केँ सुनिकय रावण तलवार निकालिकय बड़ा तामस मे आबिकय बाजल -॥९॥
चौपाई :
सीता तूँ मोर केलें अपमान। काटब तोहर मूरी कृपान॥
नहि त चट द मान मोर बात। सुमुखि न हेतहु जीवन घात॥१॥
भावार्थ : सीता! तूँ हमर अपनाम केलें हँ। हम तोहर मुन्ड एहि कठोर कृपाण सँ काटि देबौक। नहि तँ (आबो) जल्दी हमर बात मानि ले। हे सुमुखि! नहि तँ जीवन सँ हाथ धोयए पड़तौक॥१॥
श्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
से भुज कंठ कि तोर तलवारा। सुन सठ यैह थिन सत्य प्रण मोरा॥२॥
भावार्थ : (सीताजी कहलखिन-) रे दशमुख! प्रभु केर भुजा जे श्याम कमल केर मालाक समान सुंदर और हाथीक सूँड केर समान (पुष्ट तथा विशाल) अछि, या तऽ ओ भुजा हमर कंठ मे पड़त या तोहर भयानक तलवारे। रे शठ! सुन, यैह हमर सच्चा प्रण अछि॥२॥
चंद्रहास हरु मोर परिताप। रघुपति बिरह आगि सँ जात॥
शितल तेज बहति बड़ धार। कह सीता हरु मोरे दुख भार॥3॥
भावार्थ : सीताजी कहैत छथिन – हे चंद्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी केर विरहक आगि सँ उत्पन्न हमर बड़ा भारी जलन केँ तूँ हरि ले, हे तलवार! तूँ शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहबैत छँ (अर्थात्‌ तोहर धारा ठंढा और तेज छौक), तूँ हमर दुःख केर बोझ केँ हरि ले॥३॥
सुनिते वचन फेरो मारय दौड़लक। मयपुत्री तखन नीति बुझेलक॥
कहय सब राक्षसनी बजाय। सीता बहु विधि त्रासल जाय॥४॥
भावार्थ : सीताजी केर से वचन सुनिते ओ हुनका मारय दौड़ि गेल। तखन मय दानव केर पुत्री (मन्दोदरी) नीति कहिकय ओकरा बुझेलीह। तखन रावण सब दासी (राक्षसनी) सब केँ बजाकय कहलक जे जाकय सीता केँ बहुतो तरहक डर (त्रास) देखाउ॥४॥
मास दिवस मोरे कहल न मानत। तँ तलवार खींचिकय काटत॥५॥
भावार्थ : यदि महीना भरि मे ई हमर कहल नहि मानत तऽ हम ई तलवार निकालिकय काटि देबैक॥५॥
दोहा :
भवन गेल दसकंधर एतय पिसाचिनि बृंद।
सीता त्रास देखा रहल धरय रूप बहु मंद॥१०॥
भावार्थ : (से कहिकय) रावण घर चलि गेल। एम्हर राक्षसनी सभक समूह बहुतो तरहक खराब रूप धय केँ सीताजी केँ डर देखबय लागल॥१०॥
चौपाई :
त्रिजटा नामक राक्षसी एक। राम चरण रति निपुण विवेक॥
सब केँ बजाय सुनेलक सपना। सीते सँ सब कर हित अपना॥१॥
भावार्थ : ओहि मे एकटा त्रिजटा नामक राक्षसी छल। ओकरा श्री रामचंद्रजीक चरण मे प्रीति छलैक और ओ विवेक (ज्ञान) मे निपुण छल। ओ सब केँ बजाकय अपन स्वप्न सुनेलक आ कहलक – सीताजी केर सेवा कय केँ अपन कल्याण कय ले॥१॥
सपना मे बानर लंका जारल। राक्षसक सेना सब मारल॥
गदहा चढल नग्न दसशीश। मुंडित सिर खंडित भुज बीस॥२॥
भावार्थ : सपना मे (हम देखलहुँ जे) एकटा बंदर लंका जरा देलक। राक्षसक सब सेना मारि देल गेल। रावण नग्न अछि आर गदहा पर सवार अछि। ओकर केश कटायल छैक, बीसो हाथ कटल छैक॥२॥
एहि तरहें ओ दक्षिण दिशि जाय। लंका मानू विभीषन पाय॥
नगर भरि रघुबीर दोहाय। पुनः राम सीता केँ बजाय॥३॥
भावार्थ : एहि तरहें सँ ओ दक्षिण (यमपुरी केर) दिशा केँ जा रहल अछि आर मानू लंका विभीषण पाबि गेल अछि। नगर मे श्री रामचंद्रजीक दोहाय देल जा रहल अछि। तखन श्रीराम सीताजी केँ बजावा पठौलनि अछि॥३॥
ई सपना हम कही पुकारी। होयत सत्य जाइत दिन चारी॥
ओकर वचन सुनि केँ सब डरल। जनकसुता केर चरणन्हि पड़ल॥४॥
भावार्थ : हम पुकारिकय (निश्चय केर साथ) कहैत छी कि ई स्वप्न चारि (किछुए) दिन बाद सत्य भऽ कय रहत। ओकर वचन सुनिकय ओ सब राक्षसी सब डरा गेल और जानकीजी केर चरण मे खसि पड़ल॥४॥

श्री सीता-त्रिजटा संवाद