कलियुगक कल्पवृक्ष – दान

राजा हरिश्चन्द्र - पत्नी-पुत्र आ राजपाट सब किछु दान मे दऽ देलनि - बेर-बेर प्रणाम!!

– आध्यात्मिक आलेख : A must read Article

           – महामण्डलेश्वर स्वामी श्रीबजरंगबलीजी ब्रह्मचारी

धन्य अछि ओ देश, धन्य अछि ओ प्रदेश, धन्य अछि ओ धरती और धन्य अछो ओ भारतीय संस्कृति तथा रीति-नीति एवं जीवन-यापनक पद्धति जतय धनसँ अधिक धर्मक, भोगसँ अधिक योगक, स्वार्थ सँ अधिक परमार्थक और धर्मक चारू पद – सत्य, तप, दया और दान मे सँ दानक महिमाक सर्वाधिक महत्त्व देल गेल अछि।

वेद प्रभुसम्मित भाषा मे, स्मृति एवं पुराण सहृदसम्मित हितोपदेशक वाणी मे, काव्य-ग्रन्थ कान्तासम्मित सरस सुझावक रूप मे दानक गरिमा, दानक महिमा, दानक सत्ता, दानक महत्ता, दानक उपयोगिता और दानक आवश्यकताकेँ बड़ा समारोहक साथ अनुमोदन आ वर्णन करैत अछि।

वेदक आदेश अछि –

राजा हरिश्चन्द्र - पत्नी-पुत्र आ राजपाट सब किछु दान मे दऽ देलनि - बेर-बेर प्रणाम!!
राजा हरिश्चन्द्र – पत्नी-पुत्र आ राजपाट सब किछु दान मे दऽ देलनि – बेर-बेर प्रणाम!!

श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयादेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। (तैत्तरीय. शीक्षा. एकादश अनु.)
अर्थात् श्रद्धापूर्वक दान देबाक चाही, बिना श्रद्धाक नहि। आर्थिक स्थितिक अनुसार देबाक चाही, लज्जा सहित देबाक चाही। भय सँ देबाक चाही आर जे किछो देल जाय, ओ सब विवेकपूर्वक देबाक चाही।

सन्तक वाणी अछि –
चार वेद पद् शास्त्र मे बात मिली है दोय।
सुख दीन्हे सुख होत है दु:ख दीन्हे दु:ख होय॥

आर काव्यग्रन्थ मे कहल गेल अछि –
प्रभु कृपा से ही है पाया तुमने स्वर्ण रत्न धन मान।
फिर क्यों देने में कंजूसी उनकी वस्तु उन्हीं को दान॥

यैह दानक भावना नास्तिक केँ आस्तिक, भोगीकेँ योगी, स्वार्थीकेँ परमार्थी, कृपणकेँ उदार आ नीरसकेँ सरस बनाकय मानव-जीवनक परम लक्ष्य – परमार्थ-पथपर अग्रसर करैत अछि।

दीपक जतय जरैत अछि, ओतय प्रकाश अवश्य होइत अछि, स्रोत जतय फूटैत अछि, जलधार ओतय सँ निश्चिते बहैत अछि, पुष्प जतय खिलैत अछि, सुगन्ध ओतय दूर स्थानतक पसरैत अछि। ताहि तरहें दानक भावना सँ मानव-जीवनमे जनकल्याणकारी, लोकमंगलकारी आस्तिकता, आध्यात्मिकता, नैतिकता और धार्मिकताक प्रादुर्भाव अवश्य होइत अछि, जेकरा व्यष्टि आ समष्टि सबहक लेल अत्यन्त अपेक्षित और आवश्यक मानल गेल अछि।

नावक आश्रय लैत हेलयवला कहियो डूबत नहि, थाकि गेला पर नावकेँ पकैड़ लैत अछि। राजमार्ग पर चलनिहार रस्ता नहि बिसरैत अछि। तहिना सबकेँ सुखी बनावयवाला दान-धर्म केर आश्रय लैत जीवनयापन करयवला दानदाताकेँ कहियो दुर्गति नहि हेतैक। भगवान् श्रीकृष्णक घोषणा अछि –
‘न हि कल्याणकृत्कश्चिद्‌दुर्गतिं तात गच्छति।’ (गीता ६/४०)

मुठिया चाउर, अपन खेबा योग्य सीद्धा मे सँ एक मुठी निकालिकय दान लेल राखब आ गरीब-असहाय केँ नित्य दान करब, ई मिथिलाक लौकिक व्यवहार मे अछि। बेर-बेर प्रणाम!!
मुठिया चाउर, अपन खेबा योग्य सीद्धा मे सँ एक मुठी निकालिकय दान लेल राखब आ गरीब-असहाय केँ नित्य दान करब, ई मिथिलाक लौकिक व्यवहार मे अछि। बेर-बेर प्रणाम!!
दानवीर कर्ण अपन प्राण-रक्षक कवच तक दान मे दऽ देलनि! बेर-बेर प्रणाम!!
दानवीर कर्ण अपन प्राण-रक्षक कवच तक दान मे दऽ देलनि! बेर-बेर प्रणाम!!

वृक्षक जैड़केँ जलसँ सींचन केला पर शाखा, पत्ता, फल, फूल सबकेँ जल प्राप्त भऽ जाइत छैक। समुद्र मे स्नान केलासँ सब नदी मे स्नान करबाक पुण्य प्राप्त होइत छैक। तहिना उचित देश, काल आ पात्रकेँ ध्यानमे राखिकय दान कएला सँ पुरुषार्थ-चतुष्टयक उपलब्धि क्रमश: अपने-आप होमय लगैत छैक।

चाहे कोनो आस्तिक हो या नास्तिक, ईश्वरवादी हो या अनीश्वरवादी, चाहे कियो जानल-मानल विद्वान् हो अथवा निरक्षर, चाहे कियो अपार धन-सम्पत्ति संपन्न धनी-मानी हो या हो पेटकेँ पीठसँ सटेने अत्यन्त दीन-हीन धनहीन; प्राय: सब कियो एहि दान-धर्मक महत्त्वकेँ स्वीकार करैत अछि।

निरुक्तकार ‘देव’ शब्दकेर व्याख्या करैत कहैत छथि –
‘देवो दानाद् द्योनाद् दीपनाद् वा।’ (दैवत्तकाण्ड १/५)
अर्थात् सब पदार्थक देनिहार केँ देवता कहल जाइछ।

एहि मानव-शरीरक निर्माणहि पंचमहाभूतक दान सँ भेल अछि। यथा –
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा॥

एतबा नहि, सूक्ष्म शरीर केर रचना सेहो देवतादिक द्वारा प्रदत्त दान टा सँ भेल अछि –
‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’, ‘चन्द्रमा मनसो जात:।’

ज्योतिष-फलित विचारसँ – ई सूर्यदेवता आत्मशक्तिकेँ, चन्द्रमा मनकेँ, मंगल साहस-वीरताकेँ, बुध वाक्‌शक्तिकेँ, गुरु ज्ञानकेँ, शुक्र संतान-प्रजननकेँ, शनि अध्यात्मशक्तिकेँ प्रदाता मानल गेला अछि। ताह सँ गीता मे भगवान् आदेश देलनि अछि –
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥३/११॥

सदैव अपना सँ कमजोर पर दयाक दृष्टि राखि सौहार्द्र, प्रेम तथा साधन आदि केर दान देब हमरा लोकनिक कर्तब्य थीक। बेर-बेर प्रणाम!!
सदैव अपना सँ कमजोर पर दयाक दृष्टि राखि सौहार्द्र, प्रेम तथा साधन आदि केर दान देब हमरा लोकनिक कर्तब्य थीक। बेर-बेर प्रणाम!!

अर्थात् देवता टा हमरा सबकेँ सब किछु देलनि अछि। तैँ हमरा लोकनिकेँ सेहो यज्ञद्वारा देवताक भावपूर्ण उन्नतिकेर प्रयास करबाक चाही। एहि तरहक आपसी सहयोगहि सँ सब कल्याणकेँ प्राप्त करब।

एहि दानक सत्ता-महत्ताकेँ केवल भारतवासी या केवल हिन्दूधर्मावलम्बिये टा नहि, विश्वक प्राय: सब धर्मावलम्बी, सब देशवासी स्वीकार करैत अछि।

दानक महत्ता विश्ववासी सब बुझलनि मानलनि,
जुगो-जुग सँ दानक सत्ता जन-जन मे समेलनि।
दानहि होइछ भाव भक्ति आ दानहि ज्ञानक शक्ति,
दानहि कर्म योग सूत्रपातक सुखद कथा बनेलनि॥
सबहक कल्याण हेतु दान केर खूब प्रचारो भेलनि,
प्रेम सद्भाव एहि दानक पावन निशानी बनलनि।
लोक परलोक दुनू दानी केर सुखद होइछ बुझेलनि,
वेदो बस अही महिमा दानक खूब बखानलनि॥

भूस्सा कूटला सँ चाउरक प्राप्ति संभव नहि भऽ सकैत छैक। जल-मंथन सँ घृत आर बालू पेरला सँ तेल त्रिकालहु मे प्राप्त नहि भऽ सकैत छैक। तहिना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्’ केर उच्च उदात्त लोककल्याणकारी भावनाकेँ बिसरि केवल अपन घर, मकान, दुकानक संकीर्ण स्वार्थ मे लागल रहला सँ देश, राष्ट्र, समाज आ मानवताक भला कदापि नहि भऽ सकैत छैक। ताहि लेल शास्त्र मे ‘पण्डिता: समदर्शन:’ और ‘सर्वभूतहिते रता:’ केर मानवतावादी प्रकृति, प्रवृत्ति, चित्तवृत्ति अपनेबा पर बेसी बल देल गेल छैक।

चित्तवृत्ति आ चिन्तनकेर आधारपर दानदाता आर ग्रहीताक कतेको भेद-प्रभेद कैल गेलैक अछि। यथा –

पाश्चात्य सभ्यता व अन्य धर्म सब मे सेहो दानशीलताकेँ सर्वोपरि धर्म मानल गेल अछि। बेर-बेर प्रणाम!!
पाश्चात्य सभ्यता व अन्य धर्म सब मे सेहो दानशीलताकेँ सर्वोपरि धर्म मानल गेल अछि। बेर-बेर प्रणाम!!

निकृष्ट मानवक वृत्ति – ‘हमर तऽ हमर, तोरो हमर’।
मध्यम मानवक वृत्ति – ‘हमर तऽ हमर, तोहर से तोहर’।
उत्तम मानवक वृत्ति – ‘तोहर से तोहर, हमरो तोहर’।
उत्तमोत्तम मानवक वृत्ति – ‘ई सबटा थीक झूठ झमेला, नहि किछु मोरा नहि किछु तोरा’।

मिष्ठान्न-पक्वान-हविष्यान्न केर आहुति पाबि कड़ुआ धुआँ सेहो सुगन्धित भऽ जाइछ। संखिया जेहेन भयानक विष सेहो संशोधन केलापर औषधक कार्य करैत अचि। समुद्रक खारा जल सूर्यक किरणक संस्पर्श पाबि मधुरिमा मे बदैल जाइछ, ताहि प्रकार सँ दान-धर्मक आश्रय लैत जीवन-यापन कएनिहार साधककेँ अन्त:करण केर शुद्धि होइत भक्ति और मुक्ति केर दिशा मे स्वाभावित गति बढि जाइछ।

दानदाताक कीर्ति अजर-अमर बनि जाइत छैक। ओकर जीवनसँ लोककेँ एकटा नव शिक्षा, नव दीक्षा, नव उपदेश, नव आदेश, नव सन्देश, नव स्फुरणा, नव प्रेरणा आ नव चेतनाक प्राप्ति होइत छैक। दानदाताक यशोगान, कीर्तिगान, गुणगान, जन्म-जन्मान्तर, कल्प-कल्पान्तर, युग-युगान्तर धरि चलैत रहैत छैक। ताहि द्वारे तँ महादानी हरिश्चन्द्र आदिक सम्बन्ध मे कहल गेल छैक –
‘प्रात: लीजै पाँच नाम हरि, बलि, कर्ण, युधिष्ठिर, परशुराम’।

दानक सत्ता-महत्ताक सम्बन्धमे एक ग्रामीण लोकोक्ति सेहो अत्यन्त प्रसिद्ध अछि –
‘माघी नहाय चाहय पूसी, बिना देने नहि भेटय भूसी’।

What we are now is the result of our past actions and what we shall be in future that entirely depends upon our present deeds. It is fundamental truth, that doer of good or giver of charity never comes to a grief.

“हम सब आइ जे किछु छी ओ पूर्व कर्मक परिणाम अनुरूप छी, भविष्य मे हम कि बनब से पूर्णरूप सँ वर्तमान कृतित्व पर निर्भर अछि। सार्वभौमिक सत्य यैह छैक जे नीक कर्म करनिहार या दान देनिहार कदापि शोक-पीड़ा प्राप्त नहि करैत अछि।”

राजा बलि केर दानशीलता स्वयं नारायण वामन रूप धरि जाँचय अयलाह, अपन तीन डेग मे समूचा त्रिभुवन नापि लेलाक बाद, राजा बलि प्रभुजीक लीला बुझि गेला आ जगह नहि बचलाक बाद अपन माथ पर प्रभुजक चरण रखबाक अनुरोध केलनि। बेर-बेर प्रणाम!!
राजा बलि केर दानशीलता स्वयं नारायण वामन रूप धरि जाँचय अयलाह, अपन तीन डेग मे समूचा त्रिभुवन नापि लेलाक बाद, राजा बलि प्रभुजीक लीला बुझि गेला आ जगह नहि बचलाक बाद अपन माथ पर प्रभुजक चरण रखबाक अनुरोध केलनि। बेर-बेर प्रणाम!!

एकटा कथा छैक जे एगो सेठ दानक भावना सँ प्रेरित भऽ कय एकटा अन्न-क्षेत्र खोललनि, जाहिमे निर्धन-भूखा लोक आदि के नित्य भोजन देल जाइत छल। किछु दिनक बाद सेठक मनोवृत्ति मे लालच आबि गेल आर ओ सब सड़ल अन्न ओहि अन्न-क्षेत्र मे पठबय लागल। सेठक पुतोहु बड़े विवेकवती छलीह। हुनका एहि सड़ल अन्नक दान केर भयानक परिणाम सँ अपन ससूर केँ बचेबाक लेल एकटा युक्ति विचार मे एलनि। ऐगला दिन ओ ओहि सड़ल अन्नक एकटा रोटी सेठजीक भोजनक थारी मे राखि देली। ओ रोटी खाइते सेठ बड़ा व्याकुल होइत पुतोहु सँ पूछि बैसला जे कि घर मे नीक अनाज नहि अछि जे एहि तरहक सड़ल अनाजक रोटी हुनका देल गेलनि… तऽ एहि पर पुतोहु बहुत विनम्रता सँ जबाब देलखिन जे “बाबुजी! अहाँ एखनहि सँ ई सड़ल अन्न केर रोटी खेबाक अभ्यास करू; कियैक तँ आगू अहाँ यैह सड़ल अन्न केर रोटी भेटत।” सेठकेँ अपन गलतीक अनुमान लागि गेलनि, पुतोहुक प्रशंसा करैत ओ ओहि दिनसँ नीक अन्न टा अन्नक्षेत्र मे पठाबय लगलाह।

ध्यान रहय, जेना पहाड़ सँ नदी निकलैत अछि और सूर्य सँ निकलैत अछि प्रकाश, तहिना दान-धर्म केर पालन सँ सब सद्गुणक प्रादुर्भाव होइत अछि। ताहि लेल शास्त्र मे विवेकसँ वासनाक, त्यागसँ तृष्णाक, भक्तिसँ ममताक, ज्ञानसँ अहंताक, वैराग्यसँ कामनाकल्पनाक, सन्तोषसँ इच्छा-अभिलाषा-लालसाक और दानसँ संग्रहकेर संकीर्ण भावनाक परित्याग कय ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ मे रमण-भ्रमण करैत अत्यन्त सुखी जीवनयापनक मार्ग प्रशस्त कैल गेल अछि।

प्यासलकेँ पानि नहि पिया पेबाक कारण अतुल जलराशिकेर स्वामी समुद्रक स्थान (वाटर लेवेल) सबसँ नीचाँ भऽ गेल अछि और ठीक एकर बिपरीत कनेकबा जलवाला रहितो सबहक प्यास मिझेनिहार – सबकेँ सुखी बनेनिहार दानदाता मेघकेँ आकाशमे ओतेक ऊँच स्थान पर राखल गेल अछि।

यैह दानक भावना जनकल्याण, लोककल्याण, समाजकल्याण, राष्ट्रकल्याणक भावना सँ ओत-प्रोत मानल जाइत छैक। यैह दानक भावना सब पाप, ताप, सन्ताप सँ मुक्त कय सदाचार, सद्विचार, समता आ मानवताक बाटपर चलबैत छैक।

यैह दानक भावना सब आधि, ब्याधि और उपाधि सँ मुक्त कय आत्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञानक दिशा मे अग्रसर करैत छैक।

यैह दानक भावना भगवान् केर साधना, आराधना और उपासना मे श्रद्धा, भक्ति तथा अनुरक्ति उत्पन्न करैत छैक।

यैह दानक भावना नरकेँ नारायणक दिशा मे, भक्त केँ भगवानक दिशा मे, आत्माकेँ परमात्माक दिशा मे आ जीवके ब्रह्मकेर दिशा मे उन्मुख करैत छैक।

एहि कलियुग मे ‘दानमेकं कलौ युगे’ कहिकय एकरा ‘दानकेँ कलियुगक कल्पवृक्ष’ बतबैत भक्ति, मुक्ति, शक्ति आ शान्तिक सबहक प्राप्तिक सुगम उपाय मानल गेलैक अछि। ताहि हेतु अनेक प्रकारक दानक चर्चा करैत कहल गेल अछि –

भूखा केँ अन्नदान आ प्यासा केँ जलदान,
रोगीक वास्ते औषधालय खोलाउ यौ!
आ सब दान सँ श्रेष्ठ ज्ञानदान हेतु सेहो,
बनि अधिकारी विद्वान् केँ बजाउ यौ!!
एहेन उदार दानदाता केर हो वाह-वाह,
हुनकर गति कि होइछ बतबैछी सुनियौ!
आर सब कियो भगवान् केँ खोजैत अछि,
मुदा दानीक खोज भगवाने करैछ यौ!!

ॐ तत्सत्!!